किसान और खेती की आउटसोर्सिंग से किसका भला होगा?
कृषि प्रधान भारत की विडंबना यह है कि एक के बाद एक सरकारों की नीतियों, लागत व मूल्य नीति की खामियों और घटती जोत के आकार के चलते किसान और समूचा कृषि क्षेत्र मुश्किल में उलझा हुआ है।
इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि पिछले 20 साल के दौरान हर रोज औसतन 2035 किसान मुख्य खेतीहर का दर्जा खो रहे हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह यह है कि सभी सरकारें महंगाई पर काबू करने के नाम पर किसानों को उनकी उपज का पूरा दाम देने से बचती रही हैं। यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा। किसान की बदकिस्मती देखिए कि वह हर चीज फुटकर में खरीदता है, थोक में बेचता है और दोनों तरफ का भाड़ा भी खुद ही उठाता है।
एनएसएसओ के 70वें राउंड के आंकड़े बताते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर कृषक परिवार की औसत मासिक आमदनी महज 6426 रुपये है। इस औसत आमदनी में खेती से प्राप्त आय का हिस्सा महज 47.9 फीसदी है जबकि 11.9 फीसदी आय मवेशियों से, 32.2 फीसदी मजदूरी या वेतन से और 8 फीसदी आय गैर-कृषि कार्यों से होती है।
बढ़ती लागत के चलते किसान का मुनाफ लगातार घटता जा रहा है। वर्ष 2015 में पंजाब के कृषि विभाग ने बढ़ती लागत के मद्देनजर गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य 1950 रुपये प्रति कुंतल तय करने की सिफारिश की थी। खुद पंजाब के मुख्यमंत्री ने कृषि लागत एवं मूल्य आयोग यानी सीएसीपी और केंद्र सरकार से गेहूं का एमएसपी 1950 रुपये करने की मांग की थी। लेकिन नतीजा क्या हुआ? गेहूं का एमएसपी महज 1525 रुपये तय किया गया। अब बताईये 425 रुपये प्रति कुंतल का नुकसान किसान कैसे उठाएगा?
केंद्र में नई सरकार आने के बाद किसानों को उम्मीद जगी थी कि स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू किया जाएगा। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनावी सभाओं में किसानों को लागत पर 50 फीसदी मुनाफा दिलाने का वादा किया था। लेकिन ये उम्मीदें भी फरवरी, 2015 ने चकनाचूर हो गईं जब केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा कि वह कृषि उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य लागत से 50 फीसदी ज्यादा बढ़ाने में सक्षम नहीं है। केंद्र सरकार की ओर से दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि लागत पर 50 फीसदी बढ़ोतरी बाजार में उथलपुथल ला सकती है। तर्क यह है कि 60 करोड़ लोगों सिर्फ इसलिए वाजिब दाम से वंचित रखा जाए ताकी बाजार न बिगड़े। इस तरह की नीतियां लागू करने वाले सरकारी अधिकारी क्या 30 दिन काम कर 15 दिन का वेतन लेने को तैयार हैं? फिर किसान के साथ ये खिलवाड़ क्यों?
कृषि के मामले में नीतिगत खामियों का सिलसिला उपज के दाम तक सीमित नहीं है। और भी तमाम उदाहरण हैं। सरकार ने 5 लाख टन ड्यूटी फ्री मक्का का आयात किया था जिससे कीमतों में जबरदस्त गिरावट आई। अब इसमें मक्का उगाने वाले किसान का क्या दोष जो समर्थन मूल्य से कम से उपज बेचने को मजबूर हुआ? क्या ऐसे स्थितियों में सरकार को किसान के नुकसान की भरपाई नहीं करनी चाहिए? क्या इसी तरह के हालत किसान को कर्ज के जाल में नहीं उलझाते हैं? मांग और आपूर्ति की स्थिति को देखते हुए कृषि उपज के आयात या निर्यात के फैसले सरकार को लेने होते हैं लेकिन इन फैसलों में किसान के हितों की रक्षा भी तो होनी चाहिए।
हाल ही में केंद्र सरकार ने मोजांबिक से दाल आयात के लिए दीर्घकालीन समझौता किया है। इसके तहत वर्ष 2021 तक 2 लाख टन दालों का आयात किया जाएगा। भारत सरकार मोजांबिक में कॉपरेटिव फार्मिंग का नेटवर्क खड़ा करेगी और किसानों को दलहन उत्पादन के लिए अच्छे बीज और सहायता दी जाएगी। इन किसानों की उपज को सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेगी।
हैरानी की बात यह है कि सरकारी एजेंसियां भारत में सिर्फ 1 फीसदी दालों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कर पाती हैं। जबकि यही सरकार अफ्रीका के किसानों को 100 फीसदी खरीद एमएसपी पर करने का भरोसा दिला रही है। ऐसा भरोसा भारत के किसानों को दिया जाए तो यहां भी दलहन उत्पादन बढ़ सकता है। इसका सबूत यह है कि इस साल दलहन के समर्थन मूल्य में सरकार ने 425 रुपये प्रति कुंतल तक की बढ़ोतरी की है और 15 जुलाई तक दलहन की बुवाई में गत वर्ष के मुकाबले 40 फीसदी बढ़ोतरी दर्ज की जा चुकी है। अधिकांश कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि खेती की आउटसोर्सिंग भारतीय किसानों के हितों के खिलाफ है।
हालांकि, सरकार ने मुख्य आर्थिक सलाहकार के नेतृत्व में दलहन पर नीति बनाने के लिए एक समिति का गठन किया है जो एमएसपी, बोनस और दालों के उत्पादन के लिए किसानों को रियायतें आदि देने जैसे विकल्पों पर विचार करेगी। लेकिन दिक्कत यह है कि सरकार अपनी नीतिगत खामियों की तरफ तभी ध्यान देती है जबकि राष्ट्रीय स्तर पर बवाल खड़ा हो जाए। जबकि कामचलाऊ उपायों के बजाय दीर्घकालीन नीतियों और उपायों के जरिये किसान को सहारा देने की जरूरत है।