9 करोड़ लोगों को नहीं मिल रहा डिपो का सस्ता राशन, बच्चों पर सबसे बुरा असर

 

खाद्य असुरक्षा से निपटने के लिए भारत सरकार ने अपने लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) योजना से 9 करोड़ से भी अधिक लोगों को बाहर कर दिया है.

आसान भाषा में इसका मतलब यह है कि भारत में करीब 9 करोड़ से अधिक लोगों को डिपो का सस्ता राशन नहीं मिलता है.

26 मई को जारी रिपोर्ट ‘प्रॉमिस एंड रियालिटी’ 2021 में जनसंख्या की गणना के आधार पर दूसरी बार चुनी गई भाजपा सरकार की तीसरी सालगिरह को चिह्नित करते हुए प्रकाशित किया गया है.

रिपोर्ट में यह दावा किया गया है, “पीडीएस स्कीम के तहत इस का लाभ उठाने वाले लोगों की संख्या का आधार साल 2011 की भारत की जनगणना है. जिस वजह से साल 2011 के बाद आबादी का एक बड़ा हिस्सा स्कीम का लाभ नहीं उठा पा रहा है. जिस के अनुसार कम से कम 12% आबादी अपने क़ानूनी अधिकारों से बाहर हो गई है.”

यानि साल 2011 के बाद अभी तक भारत की जनसँख्या का 12% हिस्से को डिपो का सस्ता राशन नहीं मिलता है.

केंद्र की भाजपा सरकार ने अभी तक उस जनगणना की प्रक्रिया को शुरू नहीं किया है जो पिछले साल तक खत्म हो जानी चाहिए थी.

‘वादा ना तोडो अभियान’ (डब्ल्यूएनटीए) द्वारा प्रकाशित नागरिकों की रिपोर्ट के अनुसार देश में खाद्य असुरक्षा को दूर करने के लिए पीडीएस सबसे महत्वपूर्ण योजनाओं में से एक होने के बावजूद, लाभार्थियों की पहचान से जुड़ी परेशानियां, पूरी योजना के असर को कम कर रही हैं.

सरकार के वायदों को ट्रैक करने के लिए साल 2005 में नागरिक समाज संगठनों द्वारा वादा ना तोड़ों अभियान (डब्ल्यूएनटीए) की शुरुआत हुई थी.

अधिकतर राज्यों ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 की टीपीडीएस योजना में जरुरतमंद लोगों को जोड़ने के लिए समावेशी और बहिष्करण दोनों ही मापदंडों का इस्तेमाल किया है. लेकिन उसके बावजूद कई महिलाएं, सामाजिक रूप से कमजोर वर्ग, ट्रांसजेंडर, विकलांग लोगों और वृद्ध नागरिकों को टीपीडीएस (डिपो का सस्ता राशन) का लाभ लेने के लिए योजना के लिए पास (सफल) नहीं हो पाते हैं.

राजस्थान, सिक्किम, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इनमें से किसी भी जनसंख्या समूह को टीपीडीएस योजना में अपने आप शामिल ही नहीं किया जाता है. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ज्यादातर राज्यों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को स्वचालित रूप से शामिल ही नहीं किया जाता है.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मई 2021 में केंद्र, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को नोटिस जारी किया था ताकि यह पक्का किया जा सके कि कोई भी योग्य व्यक्ति प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना से अछूता न रह जाए, जिसका उद्देश्य कोविड-19 महामारी के दौरान गरीब परिवारों को मुफ्त अनाज उपलब्ध कराना था. लेकिन महामारी के दौर में राशन लेने के लिए लोगों के बायोमेट्रिक (ऊँगली के छाप) में समस्याओं की वजह से कई परिवार राशन के अधिकार से अछूते रह गए थे.

डब्ल्यूएनटीए की रिपोर्ट में नीति आयोग के तकनीकी सहयोग से ‘डलबर्ग एडवाइजर्स’ और ‘कांतार पब्लिक’ द्वारा हाल ही में किए गए एक अध्ययन का हवाला दिया गया, जिसमें यह पाया गया कि लगभग 30 लाख बच्चे महामारी के बाद से कमजोर हो गए हैं.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवें दौर के निष्कर्षों से यह भी पता चला है कि 6-23 महीने की शुरूआती उम्र के 89% बच्चों को “न्यूनतम स्वीकार्य आहार” (मिनिमम एक्सेप्टेबल डाइट) नहीं मिलता है.

साथ ही, जनसंख्या समूह में पांच साल से कम उम्र के बच्चों, किशोर लड़कियों और लड़कों, गर्भवती महिलाओं के साथ  सभी लोगों की बढ़ती संख्या एनीमिया (खून की कमी) से प्रभावित हो रही है. 2015-16 में किए गए पिछले सर्वेक्षण में 58.6% की तुलना में कम से कम 67% बच्चों जिनकी उम्र 6-59 महीने की है, में एनीमिया के लक्षण देखें गए हैं. वयस्कों में 57% महिलाओं और 25% पुरुषों (15-49 साल समूह) में एनीमिया है. महिलाओं में यह 2015-16 में 53% से बढ़कर 2019-21 में 57% हो गया है. पुरुषों में यह 23% से बढ़कर 25% हो गया है.

‘प्रॉमिस एंड रियलिटी’ रिपोर्ट इस बात पर भी प्रकाश डालती है कि अधिकांश राज्य खाद्य आयोग वित्तीय स्वायत्तता से ग्रस्त हैं और राज्य सरकारें जिला शिकायत निवारण अधिकारियों (डीजीआरओ) को नामित करने और सतर्कता समितियों के गठन से आगे नहीं बढ़ी हैं.

रिपोर्ट के अनुसार, “आज तक किसी भी राज्य सरकार ने सतर्कता समितियों के सदस्यों या कानून में किसी अन्य एजेंसी/ अधिकारियों के लिए प्रशिक्षण आयोजित करने के लिए कोई पहल नहीं की है.”