डेढ़ दशक के अभियान के बाद भी जानलेवा खुरपका-मुंहपका रोग
मवेशियों के लिए जानलेवा खुरपका व मुंहपका रोग (FMD) तमाम सरकारी कोशिशों और हजारों करोड़ रुपये के खर्च के बावजूद पूरी तरह काबू में नहीं आ पाया है। दो साल पहले खुरपका-मुंहपका रोग रोकथाम कार्यक्रम के तहत दी जाने वाली वैक्सिन की गुणवत्ता पर गंभीर सवाल खड़े हुए थे। पशु कल्याण और गौरक्षा का दावा करने वाले राजनैतिक दल और संगठन भी मवेशियों की रक्षा से जुड़े इस मुद्दे को लेकर चुप्पी साधे हुए हैं।
वर्ष 2014 में बागपत स्थित चौधरी चरण सिंह नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एनीमल हेल्थ के वैज्ञानिकों की एक टीम ने खुरपका-मुंहपका रोोकथाम कार्यक्रम के तहत दी जाने वाले वैक्सीन के नमूनों की जांच की थी। इस जांच में 10 नमूनों के गुणवत्ता मानकों पर फेल होने का दावा किया गया था। हालांकि, बाद में कृषि मंत्रालय की ओर से गठित एक पैनल ने वैक्सीन पर सवाल उठाने वाली रिपोर्ट को ही दोषपूर्ण करार दिया और जांच टीम का नेतृत्व करने वाले वैज्ञानिक डॉ. भोगराज सिंह के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की।
खुरपका-मुंहपका रोग रोकथाम कार्यक्रम केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 में शुरू किया था। हर साल इस कार्यक्रम के तहत सैकड़ों करोड़ रुपये की वैक्सीन का इस्तेमाल होता है जिनकी सप्लाई कई प्राइवेट कंपनियां करती हैं। करीब डेढ़ दशक से चल रहे इस कार्यक्रम के बावजूद पशुओं की जानलेवा बीमारी पर पूरी तरह अंकुश नहीं लग पाया है। वर्ष 2013-14 में देश में खुरपका-मुंहपका रोग ने महामारी को रूप लिया और हजारों मवेशियों की मौत का कारण बना। वर्ष 2015 में भी देश भर में इस रोग के फैलने के 450 से ज्यादा मामले दर्ज किए गए थे।
सरकारी संस्थान भी खुरपका-मुंहपका से मुक्त नहीं
खुरपका-मुंहपका रोग की वैक्सीन के निर्माण और प्रमाणन प्रक्रिया में कथित खामियां उजागर करने वाले भारतीय पशु चिकित्सा अनुसंधान संस्थान (आइवीआरआई) के प्रधान वैज्ञानिक डॉ. भोजराज सिंह ने हाल ही में अपने फेसबुक पोस्ट में दावा किया है कि देश के प्रमुख डेयरी संस्थान एनडीआरआई, करनाल में वर्ष 2011 में FMD के फैलनेे की जानकारी मिली है जिससे 271 पशु प्रभावित हुए और 10 जानवरों की मौत हुई थी। जबकि पूरे फार्म में रोग फैलने से दो महीने पहले ही वैक्सीन दिए गए थे। देश का नामी पशुविज्ञान संस्थान आईवीआरआई भी अपनी जानवरों को खुरपका-मुंहपका रोग से नहीं बचा पाया था।
देश भर में इस बीमारी की रोकथाम के व्यापक कार्यक्रम के बावजूद इसका शिकार होने वाले पशुओं की तादाद वर्ष 2008 में 278 से बढ़कर 2013 में 8843 तक पहुंच गई। ऐसा कोई दूसरा उदाहरण मिलना वाकई मुश्किल है जहां रोकथाम हजारों करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूद मरने वाले पशुओं की संख्या 40 गुना तक बढ़ी। व्यापक वैक्सीनेशन के बावजूद वर्ष 2013-14 में कर्नाटक और दक्षिण भारत के दूसरे भागों में यह बीमारी फैली। उत्तर प्रदेश में 10 में से 7 प्रकोपों का टीकाकृत पशुओं में होना कई सवाल खड़े करता है।
अपने ही वैज्ञानिक के खिलाफ खड़ा कृषि मंत्रालय
हैरानी की बात है कि ICAR के संस्थानों (IVRI, इज़्ज़त नगर; NDRI करनाल, IGFRI झाँसी आदि) में FMD वैक्सीन के बाद भी यह बीमारी फैलती है और हज़ारों पशुओं के उत्पादन को ठप्प कर देती है। सैकड़ों पशु मौत के मुंह में चले जाते हैं। इसके बावजूद सरकार वैक्सीन सप्लाई करने वाली कंपनी पर कार्रवाई नहीं करती बल्कि वैक्सीन की गुणवत्ता पर सवाल उठाने वाले वैज्ञानिक के खिलाफ ही 102 करोड़ रुपये की मानहानि का मुकदमा दायर कराया जाता है।
एफएमडी वैक्सीन की गुणवत्ता पर रिपोर्ट देने वाले डॉ. भोजराज सिंह को कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ रहा है। उन पर गलत तरीके से जांच करने, रिपोर्ट सार्वजनिक करने और सरकारी कार्यक्रम की छवि धूमिल करने के आरोप हैं। एक वैक्सीन निर्माता कंपनी ने भी उन पर मानहानि का दावा किया है। विडंबना देखिए, वैक्सीन में कथित खामियां उजाकर करने वाले वैज्ञानिक का बचाव करने के बजाय कृषि मंत्रालय उन्हीं के खिलाफ खड़ा नजर आता है। जबकि यह मामला देश के लाखों-करोड़ों मवेशियों की सेहत से जुड़ा है।