सूखा – सच का या सोच का ?
आज सूखे की मार से दस राज्यों के 256 जिले और देश की एक तिहाई आबादी ग्रस्त है। कामधेनु की तरह सबका पोषण करने वाली धरती का सीना मोटी-मोटी दरारों से चिरा पड़ा है। सूखे पेड़-पौधे, प्यासे जानवर और पक्षियों का रुदन राग भविष्य के महाविनाश का संकेत दे रहे हैं। किसान अपनी आंखों के सामने कुम्हलाती खेती, मवेशियों की चारा-पानी के लिए तड़पन, अपनी घर-गृहस्थी को उजड़ता देख, निराशा-हताशा में डूब, उस रास्ते की ओर बढ़ चला है, जहां से कोई लौटकर नहीं आता। इन परिस्थितियों का सही-सही विश्लेषण कर, विचार करने की आवश्यकता है, ताकि समझदारी के साथ समाधान खोजने में सही दिशा की ओर बढ़ चलेंं।
विश्व के अन्य देशों की तरह अपने देश में भी प्राकृतिक आपदाएं आना कोई नई बात नहीं है। किसी ना किसी क्षेत्र में सूखा-बाढ़, चक्रवात, तूफान, अकाल, महामारी और भूकंप आदि घटनाएं होती रहीं हैं होती रहेंगी। हर भू-भाग में रहने वाली आबादी ने उन्ही परिस्थितियों में रहने का कौशल विकसित कर लिया था और आज भी कई देश ऐसा कर पाने में सफल हैं। जैसे हर मिनट किसी ना किसी भूकंप की कंपन सहने वाले जापान के क्रांतिकारी भवन डिजाइन, इजराइल में पानी की कमी है, लेकिन सिंचाई के सभी उन्नत टेक्नोलाॅजी के साथ-साथ डेयरी में भी इजराइल काफी ऊपर है। इसके अलावा दुनिया के ठंडे रेगिस्तान में गिने जाने वाले लाहौल-स्पिति में भी वहां के पांरपरिक ज्ञान के कारण ही पानी की उपलब्धता है और फल व सब्जी उत्पादन भी हो रहा है, ऐसे सैंकड़ों उदाहरण हैं। तीन ओर समुद्र और उत्तर में हिमालय से घिरे इस देश में अनगिनत नदियां, झील, तालाब और मानव निर्मि त बड़े-बड़े बांध हैं, लेकिन इन सबके बावजूद देश जल-संकट से जूझ रहा है, यहां विचारणीय बिंदु यह है कि क्या ये स्थितियां अचानक पैदा हुई हैं या फिर इन्हे हमने धीरे-धीरे पैदा किया है। भौतिक समृद्धि पाने की अंधी दौड़ में, हमने सांस्कृतिक मूल्यों की उपेक्षा कर, जिस तरह की जीवन पद्धति को अपनाया है वह ही जिम्मेदार है। विकास और प्रकृति के बीच सहज सामंजस्य को भुलाकर, विकास के जिस मार्ग को हमने चुना है, क्या वोो मार्ग मानव सभ्यता को सुख और समृद्धि की ओर ने जाने में सक्षम है? या महाविनाश की ओर!
जिस तरह गरमाती धरती पर जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उसे वैज्ञानिक भी सामान्य नहीं मान रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में दो दशक से अधिक समय काम कर चुके वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि हिमालय में सूखा चक्र की शुरूआत हो चुकी है। भूगर्भ वैज्ञानिकों का कहना है कि 50 वर्ष में हिमालयी क्षेत्र का तापमान और बढ़ेेगा, जिससे शुरूआत में बाढ़ आएगी और फिर सूखा बढ़ेगा, अनियमित तेज बारिश होगी। इन बदलावों के चलते ना तो हिमालय में पानी रुकेगा और ना ही ग्लेशियरों के पिघलने से फिर बर्फ जम सकेगी। हिमालय के बाहरी वातावरण और नीचे भूगर्भ में हो रहे बदलाव अच्छे संकेत नहीं दे रहे हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि इंडियन प्लेट प्रतिवर्ष दो सेंटीमीटर हिमालय के नीचे सरक रही है, जिससे हर वर्ष हिमालय भी ऊंचा उठता जा रहा है। हिमालय अपने संक्रमणकाल से गुजर रहा है। कम से कम पचास हजार साल सेे अधिक चलने वाले इस चक्र को हिमालय एक बार पहले भी झेल चुका है। इन वैज्ञानिकों की बातें सुन इस देश के नीति-निर्माता जाने-समझे कि उन्हे क्या करना है।
इन नीति-निर्माताओं से जो हम समझे उसकी चर्चा भी कर लेते हैं, हरित क्रांति ने गेहूं- धान के भंडार तो जरूर भरे, लेकिन तिलहन-दलहन और मोटे अनाजों की स्थिति क्या है? पारंपरिक फसल चक्र के बदले फसल कुचक्र ने मिट्टी-पानी-बीज और पर्यावरण आदि को किस स्थिति में पहुंचाया है हम सब जानते हैं। इन नीति निर्माताओं ने देश की कृषि को गर्त में और किसान को मौत के मुंह में धकेल दिया है। अभी सूखे की परिस्थिति पर ही चर्चा करें तो ठीक रहेगा। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1951 में भारत में प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 5177 घनमीटर थी जो आज घटकर 1650 घनमीटर रह गई है। वर्ष 2050 तक ये आंकड़ा 1447 घनमीटर या उससे भी कम होने की संभावना है। प्रति व्यक्ति कम जल उपलब्धता का बड़ा कारण बढ़ती आबादी है। देश में प्रति वर्ष बारिश और हिमनदों से 4000 अरब घनमीटर प्राप्त जल में से 2131 अरब घनमीटर यों ही बह जाता है, शेष 1869 में से मात्र 1123 अरब घनमीटर जल को हम सतही उपयोग या धरती के पेट में उतार पाते हैं। बड़े-बड़े बांध और नदी जोड़ने जैसी महत्वाकांक्षी महंगी परियोजनाओं की सोच रखने वाले नीति निर्माताओं की देन है सूखा।
इन अदूरदर्शी नीति निर्माताओं के पास न तो टिकाऊ कृषि नीति है ना ही प्राकृतिक आपदाओं से निपटने की समझ और ना ही जल-प्रबंधन का सहूर। अगर ठीक से प्रबंधन कर लें तो अकेले 86,140 वर्ग किलोमीटर में फैला गंगा बेसिन ही 47 फीसद खेतों और 35 फीसद आबादी की सूखे से मुक्ति में सक्षम है। प्रबंधन की ही बात करें तो दिल्ली में प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता करीब 250 लीटर प्रति दिन है, जबकि मैक्सिको में प्रति व्यक्ति प्रति दिन पानी की उपलब्धता लगभग 150 लीटर है और इजराइल में प्रति व्यक्ति प्रति दिन पानी की उपलब्धता करीब 100 लीटर है, फिर भी पानी वहां की मारामारी नहीं है जबकि दिल्ली में पानी के लिए त्राहि-त्राहि है। इजराइल में ये सिर्फ पानी के सही प्रबंधन से ही संभव हुआ है।
मानकों के अनुसार अगर पानी की उपलब्धता प्रति वर्ष 1000 घनमीटर प्रति व्यक्ति हो तो ठीक माना जाता है। इजराइल में ये आंकड़ा करीब 461 घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष का है। यानी तय मानकों से बेहद कम पानी की उपलब्धता होने के बावजूद इजराइल में पानी की कमी नहीं है और भारत 1650 घनमीटर प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पानी की उपलब्धता के बावजूद पानी की समस्या से जूझ रहा है। ये कुप्रबंधन का ही नतीजा है कि देश की जहां 40 फीसद आबादी पानी की कमी से जूझ रही है, वहीं दूसरी बड़ी समस्या जल संदूषण की है, जिसे कई लोग जल प्रदूषण भी कह देते हैं। भू-जल हो या गंगा और यमुना जैसी पवित्र अविरल बहती नदियां, भयानक रूप से संदूषण की शिकार हैं। उदाहरण लें तो गंगा नदी के 100 मिलीलीटर जल में 60 हजार मल जीवाणु यानी ईकोलाई बैक्टिरिया पाए गए हैं। देश में लाखों लोगों की मौत जल-जनित रोगों के कारण हो रही है।
विश्व के करीब ढ़ाई फीसद भू-भाग पर लगभग अट्टारह फीसद आबादी को लेकर रहने वाले भारत के पास समस्त प्रकार की जलवायु क्षेत्र मौजूद है। यहां बर्फ से ढंकी चोटियां…ध्रुव प्रदेश जैसा दृश्य! दक्षिणी प्रायद्वीप का भूमध्य रेखा के निकट सूर्य भी सीधी किरणों के कारण भीषण गर्मी वाला क्षेत्र भी भारत में है और कभी चेरापूंजी जैसा क्षेत्र 16000 मिलीमीटर बारिश के साथ अधिकतम वार्षिक वर्षापात वाला क्षेत्र है, तो शून्य से 50 मिलीलीटर वर्ष का थार मरूस्थल वाला राजस्थान या लेह, लद् दाख, करगिल और लाहौल स्पिति के शुष्क क्षेत्र भी यहीं हैं। जहां आसमान से बरसीं एक-एक बूंदों को संजोने की वे पारंपरिक तकनीके, जिनके चलते ये कम वर्षा वाले क्षेत्र भी बेपानी नहीं हुए। अगर, यहां पानी को संजोने की स्थानीय कौशल ना होता, तो यहां आबादी भी ना होती।
देश की प्रभावित आबादी का बड़ा हिस्सा अपने घर और पशुओं को भगवान भरोसे छोड़ पलायन कर गया है। सच तो ये है कि, सरकारें भाग-दौड़ कर के भी पीने का पानी, पशुओं के लिए चारा, जरूरतमंदों को अनाज की व्यवस्था और फसल बर्बाद होने पर रोजगार मुहैया नहीं करा पाईं हैं। लेकिन ये वक्त सूखे से उभरी चुनौतियों से निपटने का है, कोसने का नहीं। हम सबको मिल बैठकर तत्कालिक व दीर्घकालिन योजना पर विचार कर उनको क्रियानवित करने का मार्ग प्रशस्त करना होगा। इसके लिए सरकार की सहभागिता के साथ-साथ जनभागिता भी जरूरी है। स्कूलों के पाठ्यक्रमों में बच्चों को बचपन से ही जल संरक्षण, संवर्ध न और विवेकपूर्ण उपयोग के पाठ पढ़ाने होंगे, तभी इन आपदाओं से निपटने में हम फिर से सक्षम हो सकेंगे। और इसके लिए संचार माध्यमों को भी कारगर, रचनात्मक भूमिका निभानी होगी।
हरित क्रांति के शुुरूआती दौर से चले आ रहे फसल चक्र ने देश के 264 जिलों को डार्कजोन में पहुंचा दिया है। अभी तक औसतन 11 मीटर जल स्तर नीचे गिर चुका है। हमारे यहां भूजल का 70 से 80 फीसदी उपयोग अकेले सिंचाई के लिए होता है। हमें योजनाएं बनाते वक्त भौगोलिक और प्राकृतिक स्थितियों को ध्यान में रखना होगा। हमें मिट्टी, मौसम और उपलब्ध जल के अनुसार फसल और फसल चक्र का चुनाव करना चाहिए। कम पानी वाले क्षेत्रों में गन्ना और धान जैसी फसलों के बजाए कम पानी में होने वाले मोटे अनाज, दलहन, तिलहन आदि की पैदावार ले सकते हैं। जलवायु परिस्थिति के अनुसार बीजों का चुनाव भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। दुनिया में तीन ‘‘आर‘‘ यानी ‘रीड्यूज़, रिसाइकल और रीयूज़‘ की बात कही जा रही है। सही भी है हमें पानी और अन्य संसाधनों के उपभोग में कमी करनी है, फिर उनका पुनःचक्रण करना है, यानी अपशिष्ट जल को उपचारित करके सिंचाई, सफाई या अन्य कार्यों में दोबारा उपयोग करना आदि। इससे शहरी क्षेत्र में 60 फीसद के अधिक जल की खपत कम की जा सकती है।
भारत का पारंपरिक ज्ञान एक नहीं पांच साल सूूखा और अकाल में भी सुख से रहने का गुर जानता था। लेकिन आधुनिकता की चकाचैंध ने जल को सहज कर रखने, बीजों को बचाने और पशुओं की नस्ल सुधार के हुनर को भुला दिया है। सूखे से निपटने में पशुधन की बड़ी भूमिका है। अगर इनके लिए पर्याप्त पानी और चारे का इंतजाम हो तो पशु भी बचेगा और उनके दूध से हमारी सेहत भी बनी रहेगी। बरसात के दिनों में जंगलों और खेतों में घास की और पतझड़ में पत्ते की भरमार होती है। पहले इन्हे सहज कर रखने का चलन था, जो सूखे के दिनों में चारे के रूप में काम आता था। बागवानी भी सूखे के प्रभाव से निपटने में बड़ी भूमिका निभाती है। हुनरमंद हाथों की अहमियत को समझना होगा, सूखे के समय पूरे परिवार को रोजगार तो मिलता ही है, लेकिन उस समय भी सृजनशीलता की उड़ान दुखभरे वक्त को कैसे बिता देती है, इसकी गहराई को समझना होगा। फिर से पारंपरिक ज्ञान की अहमियत को समझना होगा…गांवों में कुटीर धन्धों, हाथों के हुनरमंदों से जीवन जीने के हुनर को सीखना होगा।
हाल ही के दिनों में महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में कर्जत के निकट खाडवे गांव जाना हुआ। यहां अशोक गायकर और उनके मित्रों ने मिलकर दोनो ओर पहाड़ों से घिरे साठ एकड़ भूमि पर वनदेवता डेयरी एंव कृषि फार्म विकसित किया है। यहां वर्षा जल संरक्षण के लिए चैकडैम तथा पहाड़ों से बहकर आए जल को एक एकड़ तालाब में एकत्र किया जाता है। यहां पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक तकनीक के उपयोग का अद्भुत संगम देखने को मिला। दस भारतीय नस्लों की 150 गायों का संरक्षण और संवर्धन, दूध के अलावा गोबर-गोमूत्र से बने उत्पाद, गोबर गैस का उपयोग तथा कंपोस्ट खाद आदि द्वारा जैविक कृषि, बकरी पालन, मुर्गीपालन और मत्स्य पालन भी यहां हो रहा है। बेमौसमी फल, फूल, सब्जी आदि पैदा करने के लिए पालीहाऊस तथा सूखे के मौसम में भी हाइड्रोपोनिक्स विधि द्वारा पशुओं के लिए हरेे और पौष्टिक चारे का उत्पादन। आम, आंवला, चिकू सहित अन्य बागवानी फसलें हो रही है। खेतों में सिंचाई के लिए बूंद-बूंद या टपक (ड्रिप सिंचाई पद्धति) तकनीक का प्रयोग हो रहा है। यहां प्रधानमंत्री के ‘मोर क्राप पर ड्राप‘ के नारे को साकार होते देखा जा सकता है। अगर दो साल वर्षा ना भी हो तो यहां 60 एकड़ खेती और 150 गायों के लिए पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध है। देश के अलग-अलग भागों में उत्तराखंड में उफरेखाल में सच्चिदानंद भारती, बुंदेलखंड में मंगल सिंह, जयपुर के लापोड़िया के लक्ष्मण सिंह, मध्यप्रदेश के आईएएस उमाकांत उमराव जैसे आर्थिक और सामाजिक महाशक्ति के अनेक उदाहरण हैं, जो हमें सूखे में सुख से रहने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
आर्थिक महाशक्ति की चाह तभी पूरी होगी, जब आर्थिक स्थिति को गिरने से रोकने के उपायों के साथ-साथ गिरते भूजल के स्तर के उपाय भी हों। जब भू-जल का स्तर गिरता है तो जीवन की गुणवत्ता का स्तर भी गिर जाता है। जल की उपलब्धता और खाद्य सुरक्षा के बीच गहरा संबंध है…और बिन पानी खाद्य सुुरक्षा की बात भी बेमानी है। हमें जरूरत है…भारतीय पारंपरिक ज्ञान के अनुभवों के आधार पर शोध और अनुसंधान की छूटी कड़ी को फिर से जोड़, आगे बढ़ने की…