पंजाब में कृषि संकट और किसान आंदोलन का उभार

 

पंजाब के किसान सितंबर माह में पारित नए कृषि कानूनों के खिलाफ झुकने को तैयार नहीं हैं। लगातार उनका विरोध प्रदर्शन सुर्खियों में बना हुआ है, जिसके कई रचनात्मक और सांस्कृतिक रंग गजब की दिलचस्पी पैदा कर रहे हैं। केंद्र सरकार भी अडिय़ल बनी हुई है और वह कानूनों को ज्यों का त्यों बनाए रखने की जिद पर अड़ी हुई है। हालांकि किसानों के राजनीतिक दबाव के कारण पंजाब सरकार को केंद्र के कृषि कानूनों के खिलाफ, सांकेतिक ही सही, विधेयक पारित करने पड़े हैं। पिछले कुछ हफ्तों में किसानों और सरकार के बीच तीखे टकराव देखने को मिले हैं। पहले पंजाब में किसानों के जत्थे जगह-जगह रेलवे ट्रैक पर बैठ गए, कई दिनों तक पंजाब में रेल संवाएं ठप रहीं, राज्य की बिजलीघरों में कोयले का संकट खड़ा हो गया। फिर किसानों ने इन कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली कूच किया। हजारों किसानों के इस मार्च को जगह-जगह पुलिस की घेराबंदी, वाटर कैनन और आंसू गैस के गोले झेलने पड़े।

कृषि कानूनों के खिलाफ व्यापक माहौल में केंद्र सरकार सुधार के पक्ष में कई तरह की दलीलों की आड़ ले रही है। सरकार ने किसान आंदोलन को यह कहकर बदनाम करने की कोशिश की कि उसके पीछे शोषण करने वाले बिचौलियों का हाथ है और यह भी कि इन कानूनों से छोटे और सीमांत किसान खुश हैं। ऐसी फिजा बनाई जा रही है कि इन कानूनों का विरोध बड़े, समृद्ध और राजनैतिक रूप से ताकतवर किसान कर रहे हैं, जिनका पंजाब के किसान यूनियनों में दबदबा है और जो पुरानी व्यवस्था से सबसे ज्यादा मुनाफा कमाते रहे हैं।  

फिर भी हकीकत यही है कि इन प्रदर्शनों को बड़े पैमाने पर सामाजिक समर्थन मिल रहा है। ये व्यापक विरोध प्रदर्शन हरित क्रांति के बाद पंजाब की राजनीति और राजनैतिक अर्थव्यवस्था का आईना है। हाल के वर्षों में किसान अपने अंतर्निहित विरोधाभासों और उभरती संभावनाओं के मद्देनजर वर्ग, जाति और स्त्री-पुरुष भेदभाव की दीवारें तोडक़र लामबंद हुए हैं। पंजाब की कृषि पर पिछले सात वर्षों के अपने शोध के आधार पर मैं कह सकती हूं कि राज्य की किसान राजनीति के हालात पहले के मुकाबले काफी बदल गए हैं। पंजाब में किसानों के आंदोलन को पुराने चश्मे से देखना नाइंसाफी हो सकती है।

मंडी व्यवस्था का बचाव

पंजाब और हरियाणा के किसान हरित क्रांति के मुख्य लाभार्थियों में रहे हैं, जब 1960 के दशक के आखिरी वर्षों में देशभर में गेहूं और धान की अधिक उपज वाली किस्मों की बुआई शुरू हुई। अंग्रेजी राज के आखिरी दौर से ही शुरू हुए भूमि सुधार और चकबंदी की बदौलत दोनों राज्यों की किसानों के पास सुरक्षित पट्टेदारी थी। इस कारण यहाँ के किसानों को नई किस्म के फसलों के लिए जरूरी महंगे रासायनिक खाद और सिंचाई में निवेश करने में सहूलियत हुई।

शायद अधिक पैदावार वाली नई फसलों की तरफ किसानों के झुकाव की अहम वजह इस क्षेत्र में लाई गई कृषि विपणन व्यवस्था यानी मंडी प्रणाली थी जो नए कृषि कानून के तहत कमजोर कर दी जाएगी। यह गेहूं और धान के लिए एक खुली खरीद योजना थी जिसके तहत सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी पर तय किस्म की कितनी भी मात्रा में मंडी से खरीदती थी। इस वजह से किसान आश्वस्त रहते थे कि खेती में उनका निवेश व्यर्थ नहीं जाएगा और उपज के अच्छे दाम मिल जाएंगे।

कई विशेषज्ञों और 2015 में शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में भी यह तर्क दिया गया कि मंडी प्रणाली का लाभ छोटे किसानों के मुकाबले बड़े किसान उठा रहे हैं। एक नजर में देखें तो इस तर्क में कुछ दम लगता है क्योंकि बड़े किसान ज्यादा मात्रा में उपज बाजार में लाते हैं (अलबत्ता आज बड़े किसान भी संकट में हैं)। हालांकि न्यूनतम समर्थन मूल्य की सुरक्षा के कारण छोटे किसान भी इसका लाभ उठाते हैं। एमएसपी से किसानों को अपनी कमाई का अंदाजा हो जाता है जिससे घरेलू खपत और कर्ज चुकाने जैसी खर्चों का हिसाब लगा लिया जाता है। इसलिए मंडी व्यवस्था में हर वर्ग के किसान का साझा हित है, जो मौजूदा किसान गोलबंदी में भी साफ दिख रहा है।

मंडी व्यवस्था में कमीशन एजेंटों या आढ़तिया की भूमिका महत्वपूर्ण है, जो भारतीय खाद्य निगम (एफसीआइ) जैसी सरकारी एजेंसियों को कृषि उपज की बिक्री में सहूलियत मुहैया कराते हैं। आढ़तिया किसानों को लगातार अग्रिम भुगतान कर देते हैं, चाहे सरकारी खरीद एजेंसियों से बिक्री का भुगतान मिलने में देर हो। इससे किसानों को अगली फसल लगाने और दूसरी जरूरतों के लिए पैसा मिल जाता है। छोटे किसान तो खासकर ऐसे कर्ज के लिए आढ़तियों पर निर्भर होते हैं। ऐसे कर्ज पर ब्याज दर ऊंची होती है, फिर भी अधिकतर किसान आढ़तियों को ‘मजबूरी का बैंकर’ कहते हैं। किसानों इलाज, पढ़ाई से लेकर विभिन्न आयोजनों और विदेश जाने जैसे खर्चों के लिए आढ़तियों ही सहारा बनते हैं।

पंजाब में आढ़तिया कारोबार लंबे समय से बणिक जातियों या महाजनों के हाथों में रहा है और इनका अपने ग्राहक किसानों से पीढिय़ों का नाता है, जो ज्यादातर सिख जाट समुदाय से हैं। हालांकि अब संपन्न जाट भी आढ़तिया बन चुके हैं। यह कोई छिपी बात नहीं है कि प्रदेश के कई किसान संगठनों और दो बड़ी पार्टियों-शिरोमणि अकाली दल और कांग्रेस-के कई बड़े नेता आढ़तिया कारोबार से जुड़े हैं। (मैंने पहले के लेख में भी यह दलील रखी है कि इस कारण से आढ़तियों का तबका मजबूत हुआ है)।  

इस तरह किसानों का आढ़तियों से कई तरह का सामाजिक नाता है, जिससे उन्हें ऋण की किस्ते चुकाने और समय-सीमा में रियायत मिलती है। जब फसल की लागत लगातार बढ़ रही है और खेती से होने वाले आय में लगातार कमी आ रही है, कर्ज हासिल करने की औपचारिक व्यवस्था अपर्याप्त तथा गैर-बराबर है,  आढ़तिया एक ‘जरूरी बुराई’ की तरह बने हुए हैं। किसानों के लिए ये जाने-पहचाने और वक्त-जरूरत पर काम आने वाले हैं, जबकि ताकतवर तथा अनाम चेहरे वाले कारपोरेट उनकी पहुंच से बाहर होंगे, जिन्हें नया कानून इस धंधे में प्रवेश दिलाने का खतरा पैदा कर रहे हैं। इन वजहों और संपन्न तथा राजनीतिक रसूख रखने वाले जाट सिख कमीशन एजेंटों के बढ़ते दबदबे से आढ़तियों के खिलाफ किसान यूनियनों की पहले की शिकायतें दब-सी गई हैं। कई ऐसे किसान संगठन जो पहले आढ़तियों के ख़िलाफ़ थे, अब उन्होंने खुद को आढ़तियों के विरोध से किनारे कर लिया है। यह सब कहने का मतलब यह कतई नहीं है कि बिचौलिये के तौर पर आढ़तिया शोषण नहीं करते हैं। लेकिन, इन सामाजिक और आर्थिक रिश्तों से समझा जा सकता है कि आढ़ती ग्रामीण पंजाब की सामाजिक संरचना का किस कदर हिस्सा हैं और क्यों किसान नए कानूनों का विरोध कर रहे हैं, जो आढ़तियों के दबदबे वाली मंडी व्यवस्था के अलावा कुछ और विकल्प मुहैया कराता है।

उभरती वर्ग-जाति गोलबंदी

नए कानूनों के विरोध प्रदर्शनों की ज्यादातर रिपोर्टिंग और टिप्पणियों में पंजाब किसान आंदोलन में खेतिहर मजदूर यूनियनों की सक्रिय शिरकत को नजरअंदाज कर दिया गया है। कई प्रदर्शनों और मंचों से ‘मजदूर-किसान एकता जिंदाबाद’ के नारे गूंजते हैं। इन यूनियनोंं में पेंडु मजदूर यूनियन, क्रांतिकारी पेंडु मजदूर यूनियन, पंजाब खेत मजदूर यूनियन और दलितों के लिए जमीन के हक के संघर्ष में जुटे जमीन प्राप्ति संघर्ष कमिटी (जेडपीएससी) शामिल हैं। मजदूर संगठनों का किसानों को सर्मथन कोई छोटी बात नहीं है। हमें याद रखना चाहिए कि जाट सिख किसानों और कृषि मजदूरों, खासकर भूमिहीन दलितों, के बीच संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है।

पंजाब की किसान यूनियनों ने 1970 और1980 के बाद शुरू हुए नए किसान आंदोलन के समय से ही सिर्फ बड़े किसानों के हितों का ही ध्यान रखा है। हालांकि ये यूनियनें छोटे किसानों को भी साथ लाने में कामयाब रही हैं। इसकी वजह है कि हरित क्रांति ने सभी किसानों को व्यावसायीकरण की ताकतों के आगे कमजोर किया है। छोटे और बड़े किसान साझा धार्मिक और जातीय पहचान वाले भी हैं। किसान यूनियनों ने जाट सिख किसानों को दलित खेतीहर मजदूरों के खिलाफ लामबंद किया।

लेकिन, साल दर साल जैसे-जैसे हरित क्रांति का उत्साह खत्म होता गया, यह परंपरागत विरोध भी कई मायनों में धीमा पड़ता गया है। खेतों की उर्वरकता घट गई है, मिट्टी और जल की स्थिति बदतर हो गई है और लागत खर्च में लगातार इजाफा हुआ है। छोटे किसान और कृषि मजदूर सभी को खेती के माध्यम से अपना जीवन यापन करने में कठिनाई हो रही है। कर्ज के जाल में फंसकर ये लोग कृषि छोड़ रहे हैं या फिर ड्रग्स के आदी हो रहे हैं या आत्महत्या जैसा कदम उठा रहे हैं (ढेसी और सिंह 2008)। इन्हीं परिस्थितियों के कारण राज्य के किसान और मजदूर एक मंच पर गोलबंद दिख रहे हैं।

क्रांतिकारी पेंडु मजदूर यूनियन के एक नेता की दलील है, ‘‘ऐसा प्रोपगैंडा फैलाया जा रहा है कि यह सिर्फ किसानों का मुद्दा है। लेकिन दरअसल यह मजदूरों, दुकानदारों, आढ़तियों, छात्रों, कामगारों और युवा लडक़े और लड़कियों का भी मुद्दा है क्योंकि हम सब जानते हैं कि हमारा पेट खेती के कारण ही भरता है।’’ आगे उनका कहना है कि मंडियों के जगह पर कॉरपोरेट खरीद केंद्रों को लाने से मजदूरों की जगह मशीनें ले लेंगी और मजदूर ठेकेदारों की भी रोजी-रोटी छिन जाएगी।

किसानों और मजदूरों की यह नई एकता राज्य की सबसे बड़ी किसान यूनियन बीकेयू (एकता उग्राहाँ) के प्रयासों की देन है। हरे और पीले झंडे से पहचाने जाने वाले इस संगठन ने अन्य किसान संगठनों जैसे कि बीकेयू (दकौंडा), कीर्ति किसान यूनियन और पंजाब किसान यूनियन को साथ लाने में कामयाबी हासिल की है। बीकेयू (एकता उग्राहाँ) के मुख्य नेता  जोगिंदर सिंह ने मुझसे बातचीत में कहा था कि किसानों और मजदूरों के बीच जाति और वर्ग विभाजन के कारण इन यूनियनों को साथ लाना जागरूक और प्रतिबद्धता से भरा काम है। 2004 में जोगिंदर सिंह के संगठन ने लुधियाना जिले में किसानों के एक आंदोलन को समर्थन देने का फैसला किया। उनके संगठन ने मजदूरों को चाय पिलाया और प्रदर्शनकारियों के जूठे बर्तनों को साफ किया। मजदूर दलित थे इसलिए बीकेयू (एकता उग्राहाँ) के इस प्रयास ने जाति की दीवारें तोडऩे और सबको साथ लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

यूनियन ने तबसे कृषि मजदूरों के मुद्दों को सक्रियता के साथ उठाया है और लगातार समर्थन दे रहे हैं। अन्य किसान और कृषि मजदूर यूनियनों के साथ मिलकर बीकेयू (एकता उग्राहाँ) ने 2010 में मनसा जिले में दलितों के एक प्रदर्शन को तब समर्थन दिया था जब उनकी जमीन का अधिग्रहण पावर प्लांट के लिए किया गया था लेकिन बदले में कोई मुआवजा नहीं दिया गया था। इसी प्रकार 2015-16 में इन किसान यूनियनों ने कपास की नष्ट हुई फसल के लिए कृषि मजदूरों को सरकार के मुआवजा पैकिज में शामिल कराने के लिए भी सफल आंदोलन किया था। कपास चुनने का काम अमूमन दलित परिवारों की औरतें करती हैं और यह उनकी आजीविका का महत्वपूर्ण स्रोत है। हालांकि मुआवजे का वितरण भी असमान रूप से किया गया, फिर भी इसमें मजदूरों को शामिल करवाना एक बड़ी उपलब्धि थी। बीकेयू (एकता उग्राहाँ) ने जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति का भी समर्थन किया है। यह संगठन दलितों के लिए भूमि अधिकारों की मांग करती है। बीकेयू (एकता उग्राहाँ) ने इस संगठन को आर्थिक मदद के साथ ही दबंग जाटों के हमले से भी बचाया है।

इन संगठनों के नेता और कार्यकर्ता जोर देकर कहते हैं कि इस तरह का साथ आना सिर्फ किसानों और भूमिहीनों खासकर दलितों की साझी समस्या और हितों के बारे में जागरूकता लाने के कारण ही संभव हो पाया है। उदाहरण के लिए, पंजाब खेत मजदूर यूनियन के लक्ष्मण सिंह सेववाला का कहना है कि छोटे किसान कम जोत, वित्तीय और संरचनात्मक स्रोतों की असमान पहुंच और कर्ज के कारण बहुत मुसीबत में हैं। यही समस्या पंजाब के गांवों के भूमिहीन दलितों की भी है। ऐसे कुछ नेता और कार्यकर्ता इस बात पर भी एकजुट दिखते हैं कि किसी भी सार्थक बदलाव के लिए जाति और वर्ग से साथ जूझना होगा। इसके अलावा, इन संगठनों के संयुक्त मोर्चा स्वास्थ्य, शिक्षा और बेरोजगारी जैसे साझा मुद्दों पर भी संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि इन समस्याओं ने जाति और वर्ग की लीक से हटकर सबको प्रभावित किया है। बीकेयू (एकता उग्राहाँ) के जोगिन्दर सिंह के मुताबिक ऐसे साझा संघर्ष एक दूसरे से जूझने और लडऩे-झगडऩे का समय और स्थान देते हैं लेकिन साथ ही इनके कारण एक दूसरे को समझने का मौका मिलता है।

यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि इन यूनियनों की पहुंच पंजाब के कुछ ही जिलों खासकर मालवा क्षेत्र तक सीमित है जहां उग्र ग्रामीण लामबंदियों (जैसे कि मुजारा, या पट्टेदार आंदोलन) का इतिहास रहा है। अन्य क्षेत्रों में ज़्यादातर यथास्थितिवादी संगठनों का दबदबा है जिस कारण नया आंदोलन विस्तार नहीं ले पाता। जाट छोटे किसान दलितों के संघर्ष (जिसमें जमीन की लड़ाई भी शामिल है) में साथ देने से कतराते हैं क्योंकि उन्हें अपने जाति के आधार पर मिले कमोबेश विशेषाधिकारों और जमीन के स्वामित्व को खोने का डर रहता है। पंजाब में अपने शोध के दौरान मैंने छोटे किसानों को भी लगातार दलितों के ऊपर आलसी होने, कृषि कार्य न करने और ऊंचे मेहनाताना की मांग करने का आरोप लगाते सुना है। लेकिन वास्तविकता यह है कि मजदूर मौजूदा मेहनताने में मुश्किल से ही गुजारा कर पाते हैं। जैसे-जैसे खेती में मशीनीकरण का जोर बढ़ा है, कृषि मजदूरों के लिए काम के अवसरों में लगातार गिरावट देखी गई है। इसलिए दलित समुदाय के लोग यह विश्वास नहीं कर सकते कि जाट किसान संयुक्त आंदोलन में उनके हितों को बराबर महत्व देंगे।

जमीन का सवाल

छोटी जोत या जमीन न होना ही सबसे बड़ा मुद्दा है जिसकी वजह से छोटे किसानों, भूमिहीनों, जाट और दलितों की गोलबंदी दिख रही है। यूनियनों का कहना है कि 1972 में एक व्यक्ति के लिए कानूनी रूप से निर्धारित की गई भूमि की अधिकतम सीमा आवश्यकता से अधिक है क्योंकि तब से आज तक भूमि की उर्वरकता में वृद्धि हुई है। इसलिए उनकी मांग है कि इस अधिकतम सीमा को कम किया जाए और जो भी जमीन अतिरिक्त बचती है उसे भूमिहीनों या कम जमीन वाले लोगों के बीच बांटा जाए। वे चाहते हैं कि छोटे किसानों और भूमिहीन मजदूरों को राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था से मदद दी जाए, जो न सिर्फ ऋण और सिंचाई में मदद दे, बल्कि महंगे बीज, रसायन और मशीनों को खरीदने पर मजबूर न करे।

इसी कारण से पंजाब के खेत-खलिहानों में सरकारी शह से कॉरपोरेट के कब्जे के काले साए की बातें गूंज रही हैं। नेताओं और कार्यकर्ताओं के भाषणों में यही प्रमुखता से सुनने को मिल रही है। नए कृषि कानूनों के विरोध में किसान नेताओं ने बार-बार यह बात उठाई है कि राज्य को ‘अडानी और अंबानी’ के हाथों में सौंपा जा रहा है और बाद में ये लोग अमरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के गुलाम बन जाएंगे। इन भाषणों का परिणाम हमने टोल प्लाजा और रिलायंस के पेट्रोल पंपों पर हमले तथा दशहरा पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुकेश अंबानी और गौतम अडानी के पुतला दहन के रूप में देखा।

यकीनन, यूनियनों की स्वघोषित समाजवादी तथा कॉरपोरेट और साम्राज्यवाद विरोधी नजरिए और छोटी जोत के जरिए व्यावसायिक खेती को बढ़ावा देने का अंतरविरोध पूरी तरह सुलझा नहीं है। व्यावसायिक खेती, चाहे छोटी जोत में ही क्यों न हो, वर्ग और पूंजीचादी रिश्तों की खाई गहरी करती है। इतना ही नहीं कुछ हालिया अध्ययन का सुझाव है कि समकालीन भारतीय कृषि में बड़ी जोत और ज्यादा उपज मुनाफे के लिए जरूरी है। कृषि राजनीतिक अर्थव्यवस्था के भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के दक्षिणी गोलाद्र्ध के तमाम विद्वानों का मानना है कि भूमि सुधारों का मुद्दा अब पहले की तरह प्रासंगिक नहीं रह गया है। अगर भूमि सुधार को जमींदारी खत्म करने और कृषि पूंजीवाद को बढ़ावा देने का साधन मानें तो उसे इस तर्क में दम नजर आता है।

लेकिन, इन संगठनों के लिए भूमि सुधार एक दीर्घावधिक इंकलाबी लक्ष्य है। यह सामाजिक न्याय और समानता का प्रश्न है। जमीन पर हक सिर्फ आय और आजीविका का प्रश्न नहीं है बल्कि यह भूमिहीन दलितों और गैर-दलित परिवारों और खासकर महिलाओं (विस्तार से नीचे देखें) के लिए गरिमा का सवाल भी है। इतना ही नहीं, ऐसे देश में जहां अधिकांश किसान खेती की आय के अलावा अनियमित मजदूरी से जुड़े हों, छोटी-सी जमीन का मालिकाना हक भी आय की कुछ सुरक्षा दे सकता है। यह उल्लेखनीय है कि जिन कुछ गांवों में जेडपीएससी दलितों के लिए पंचायत की जमीन दिलाने में सफल रही है, वहां परिवारों ने धान और गेहूं और/या चारे (जिसे सरकार अब तक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदती है) की उपज के लिए समूह बनाए हैं। हालांकि इन उपजों से होने वाली आय कम है, लेकिन सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में यह काफी महत्वपूर्ण है।

महिलाओं की मुख्य भूमिका

जहां मौजूदा प्रदर्शनों में कृषि मजदूरों की उपस्थिति को नजरअंदाज किया गया है वहीं महिलाओं की बढ़-चढक़र हिस्सेदारी को प्रत्यक्ष तौर पर लोगों ने देखा है। इस वीडियो में बीकेयू (एकता उग्राहाँ) से जुड़ी एक महिला को गाते हुए सुना जा सकता है:

…मंडी बोर्ड हमारा है, मोदी/ हम इसे लेकर रहेंगे;

दिवाली पास है/ पर इसे कोई खयाल नहीं;

उसने पूरी दुनिया को जमीन पर धकेला है/ हम भी तुझे सबक सिखाएंगे।।

झंडा थामे महिलाएं हमारे जत्थे में हैं/ हम छाप लगाकर जाएंगे।।

मोदी चुप्पी साधे रहा/ बिबा, मैंने गलती की/ हम उससे ये कहलवाएंगे।।।

महिलाओं के इस गायन को उनके लगातार जुटाव से समझने की जरूरत है। कई किसान यूनियन 2000 के दशक से ही महिलाओं को गोलबंद कर रहे हैं और अब उनमें महिलाओं की एक अलग इकाई भी है। पिता, भाई और बेटों की आत्महत्या ने कई किसान और कृषि मजदूर परिवारों को कमाऊ पुरुष सदस्य के बगैर कर दिया है और महिलाओं पर तमाम प्रकार की सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति की ज़िम्मेदारी आ गई। हालिया साल में कर्ज में डूबे परिवारों के महिला सदस्यों की आत्महत्या की खबर भी सामने आई है। महिलाओं के ऊपर कृषि संकट के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभावों के कारण कुछ संगठन भूमि और कृषि के मुद्दे पर अब महिलाओं को भी साथ ला रहे हैं।

नवशरण सिंह ने पंजाब के प्रगतिशील आंदोलनों में जाति और वर्ग एकजुटताओं को मजबूत करने में दलित महिलाओं, जिनमें युवतियां भी शामिल हैं, की महत्वपूर्ण भूमिका का विश्लेषण किया है। मनसा जिले में भूमि अधिग्रहण के मामले में दलित महिलाओं ने ही सबसे कड़ा विरोध किया, सडक़ जाम किया, पुलिस की मार झेलती रहीं और आदमियों की गिरफ्तारी के बाद भी धरने पर बैठी रहीं। इनके संघर्ष के कुछ दिन गुजर जाने के बाद ही किसान और कुछ अन्य संगठनों ने साथ दिया। अभी के प्रदर्शन में दलित महिलाओं का आगे आना ऐसे घटनाओं की वजह से ही संभव हो पाया है। उदाहरण के लिए किसान यूनियनों ने जाटों द्वारा महिलाओं के यौन उत्पीडऩ के मामले को उठाया है। संगठनों ने मवेशियों के लिए चारे की कमी का मुद्दा भी उठाया है, मवेशी भूमिहीन दलितों के जीवनयापन का एक महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं।

निर्णायक संघर्ष

नए कृषि कानून पंजाब के कृषि कार्यों खासकर सामाजिक और सांस्थानिक पहलुओं की उन भूमिकाओं में मौलिक परिवर्तन करेंगे जो पिछले पचास साल में मंडी व्यवस्था से संचालित हैं। इसी बीच इन कृषि क़ानूनों का विरोध ग्रामीण क्षेत्र में राजनीतिक गोलबंदी के नए स्वरूप का भी इजहार करते हैं। इन सभी परिवर्तनों और घटनाओं का दूरगामी परिणाम दिखना अभी शेष है।

वर्ग, जाति और स्त्री-पुरुष विरोधाभास भारत में किसी भी प्रगतिशील कृषि राजनीति को कमजोर करने के लिए जाने जाते हैं। इसलिए कुछ कृषि मजदूर यूनियन के समर्थन के बावजूद भी यह आश्चर्य की बात नहीं है कि पंजाब का मौजूदा प्रदर्शन सिर्फ किसानों का प्रदर्शन ही लगता है। पिछले कुछ महीनों में सामने आए कुछ लोकप्रिय गीतों में भी इसी की झलक दिखती है। ग़ैर-दलित जातियों की महिलाओं को साथ लाने की कोशिश भी अधूरी दिखती है क्योंकि अभी तक बीकेयू (एकता उग्राहाँ) जैसे किसान संगठन ही इस लक्ष्य को पाने की कोशिश करते हुए दिखते हैं। पंजाब की नई और उभरती गोलबंदी को अभी जाति और वर्ग के मामले से जूझना जारी रखना होगा।

बहरहाल, किसानों, कृषि मजदूर संघों और उनके संगठनों के प्रयास भी उत्साहित करने वाले हैं। तमाम संगठन अब समझ रहे हैं कि इस प्रयास का विस्तार करना और इसे जारी रखने के लिए जमीन पर निरंतर राजनीतिक कार्य के साथ-साथ समाज के दूसरे वर्गों को जोडऩे की भी जरूरत है। इसकी झलक इन संगठनों द्वारा अन्य छात्र संगठन, शिक्षक संगठन, तर्कशील सोसाइटी और लोक मोर्चा पंजाब जैसे प्रगतिशील संगठनों के साथ किए गए गठबंधन में भी देखी जा सकता है। ये सारे संगठन भी मौजूदा प्रदर्शन में अपना योगदान दे रहे हैं। तमाम बाधाओं के बीच इन लोगों की एकजुटता न सिर्फ पंजाब बल्कि राज्य से बाहर भी प्रगतिशील बदलाव के लिए सबक है।

श्रेया सिन्हा कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के भूगोल विभाग में पोस्ट डॉक्टरल रिसर्चर हैं। उनका अध्ययन भारत में विकास और कृषि परिवर्तन के राजनीतिक अर्थशास्त्र पर है। यह लेख सबसे पहले द इंडिया फ़ोरम पर अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद रश्मि गर्ग द्वारा