काफी पुराना है वैक्सीन के विरोध का इतिहास, महात्मा गांधी भी रहे खिलाफ
एक ओर जहां कोविड-19 महामारी से बचने के लिए लगाए जाने वाले टीके (वैक्सीन) की किल्लत है वहीं दूसरी तरफ टीकाकरण के खिलाफ अफवाहें और पूर्वाग्रह भी कम नहीं हैं। यह विरोध देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के अलावा दुनिया के कई देशों में अलग-अलग आधार पर किया जा रहा है। जहां पढ़े-लिखे लोग इसका विरोध वैज्ञानिक खोज और व्यवस्था व पूंजीपतियों के षड्यंत्र को आधार बनाकर कर रहे हैं वहीं ऐसे लोगों की कमी नहींं जो इसका विरोध धर्म, नपुंसकता या भय आदि के आधार पर कर रहे हैं।
किसी भी महामारी के खिलाफ अफवाह फैलने और फैलाने का इतिहास उतना ही पुराना है जितना महामारी का इतिहास है। यहां तक कि महात्मा गांधी ने भी कई दफा यूरोपियन इलाज पद्धति के तहत टीकाकरण का विरोध किया था। जून 1912 में जब गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे तो वहाँ के एक स्थानीय अखबार ‘इंडियन ओपिनियन’ में गांधी लिखते हैं, “टीकाकरण एक बर्बर प्रथा है। यह आधुनिक काल का ऐसा जहरीला अंधविश्वास है जैसा आदि-काल में भी नहीं था। हमारे शरीर में एक संक्रमित गाय के शरीर से निकालकर टीका लगाया जा रहा है और इस अशुद्धिकरण का हमें हिस्सा बनाया जा रहा है।” 1929 में जब गांधी भारत आ चुके थे तो अपने बेटे मणिलाल और बेटी सुशीला गांधी के साथ-साथ आम जनता के लिए नवजीवन पत्रिका में लिखते हैं, “कोई भी शाकाहारी ये टीका कैसे ले सकता है, ये टीका लेना सूअर का मांस खाने के बराबर है।” इतना ही नहीं, जब वर्ष 1918 में हिंदुस्तान समेत पूरे विश्व में स्पैनिश इनफ़्लुएंज़ा महामारी फैल रही थी तो गांधी और सरदार पटेल खेड़ा सत्याग्रह के लिए गुजरात के किसानों को संगठित कर रहे थे और दूसरी तरफ उनका एक पोता (शांति), और एक बहू (चंचल) महामारी की चपेट में अपना जान गवां चुके थे।
विभिन्न महामारियों के निवारण के लिए चलने वाले टीकाकरण अभियान और इसके विरोध का सिलसिला आजादी के बाद से आज तक जारी है। भारत में टीकाकरण की प्रक्रिया कितनी जटिल और चुनौतीपूर्ण हो सकती है इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि पोलिओ महामारी के खिलाफ भारत में टीकाकरण की शुरुआत वर्ष 1995 में होती है और देश को पोलियो मुक्त होने में पूरे 19 वर्ष लगते हैं। नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के अनुसार भारत के बच्चों में टीकाकरण की सफलता मात्र 62% है। इसी रिपोर्ट में यह भी तथ्य सामने आया कि वर्ष 2005-06 और 2015-16 के बीच भारत में टीकाकरण में तकरीबन 20% की गिरावट आई है जो चिंताजनक है। पिछले कुछ वर्षों में केरल, गुजरात और मुंबई के कई क्षेत्रों में बच्चों के अभिभावकों और निजी विद्यालयों ने अपने बच्चों को एमएमआर का टीका लगवाने से इंकार कर दिया था। ऐसी खबरें टीकाकरण के दौरान खूब आती थींं।
जब भी कोई महामारी आती है, तब-तब महामारी के साथ साथ टीकाकरण को लेकर कई तरह की अफवाहें फैलती है, जिसका इतिहास बहुत पुराना है। पिछले वर्ष जब कोरोना महामारी फैली उसके साथ साथ अफवाहें भी उतनी ही तेजी से फैलीं। कोरोना टीकाकरण से होने वाली नपुंसकता की अफवाह सिर्फ मुसलमानों में नहीं बल्कि मध्य प्रदेश के हिंदू समाज के लोगों में भी धड़ल्ले से फैलाई जा रही है। जिस तरह से कोरोना के इलाज और दवा को लेकर रामदेव से लेकर कई जनप्रतिनिधियों द्वारा गैर-जिम्मेदाराना दावे किए गए, इन भ्रांतियों की वजह से भी कोरोना टीकाकरण को लेकर गलतफहमियां पैदा हो रही हैं। कई वैज्ञानिक शोधों ने तो इस बात की भी पुष्टि की कि कोई भी टीका करोना के खिलाफ पूर्ण सुरक्षा नहीं देता है। लेकिन फिलहाल इस महामारी के खिलाफ हमारे पास यही सबसे कारगर हथियार है। इन सब के बीच एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना महामारी के दौरान भारत में आयुर्वेदिक दवाओं की बिक्री तेजी से बढ़ी है।
टीकाकरण के प्रति अविश्वास विकासशील देशों से कहीं ज्यादा विकसित यूरोप और अमेरिका में हैं। हाल ही में लंदन स्थित संस्था वेल्कम ग्लोबल मॉनिटर के द्वारा दुनिया के 140 देशों में कराए गए एक सर्वे के अनुसार यूरोप और अमेरिका में 41% लोग टीकाकरण पर विश्वास नहीं करते हैं जबकि भारत जैसे विकासशील देशों में मात्र 20 % लोगों ने ही टीकाकरण पर अविश्वास जाहिर किया। यूरोप और अमेरिका में तो कई संस्थाएं बनी हुई है जिसका मूल मकसद टीकाकरण का विरोध करना रहा है। एंटी-वैक्सीनेशन सोसाइटी ओफ़ अमेरिका (न्यूयॉर्क) उन्नीसवीं सदी के आखिरी वर्षों से लेकर और बीसवीं सदी तक हर तरह के टीकाकरण का विरोध करती रही। इसी तरह अमेरिकन एंटी-वैक्सीनेशन लीग ने बीसवीं सदी के दौरान अमेरिका के अलावा इंग्लैंड में भी प्रखर रूप से टीकाकरण का विरोध किया।
पिछले वर्ष जब कोरोना महामारी शुरू हुई थी तो अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प ने भी टीकाकरण का विरोध किया था। वॉल स्ट्रीट पत्रिका ने लिखा था कि कैसे टीकाकरण के विरोध में आवाजें अमेरिका से भारत तक सोशल मीडिया के माध्यम से तेज गति से पहुंच रही है। वहीं दूसरी तरफ एशिया और अफीका में कोरोना को पश्चिमी सभ्यता द्वारा षड्यंत्र के नजरिए से भी देखा जा रहा है। अफवाहों के बारे में एक प्रचलित कहावत है, “जितना मुँह उतनी बातें।” पर अगर इसमें प्रचलित व प्रभावशाली व्यक्तियों या संस्थाओं का मुँह शामिल हो जाए तो अफवाहें कई गुना प्रभावशाली हो जाती है। पिछले एक वर्ष में कोरोना को लेकर लोगों से थाली पिटवाने, दिया जलवाने के बारे में जिस तरह की भ्रामक बातें बोली गई, उससे भी अफवाहों को बल मिला है। महामारी के साथ-साथ इन अफवाहों से निपटने के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए। कोरोना के प्रति अफवाहों को बढ़ावा देने में प्रभावशाली लोगों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के बयान अहम भूमिका निभाते हैं।
(स्वीटी टिंड्डे अज़ीम प्रेमजी फ़ाउंडेशन (श्रीनगर, गढ़वाल) में एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं। आप लेखक से tinddesweety@gmail.com पर कर सकते हैं।)