विलुप्त होने की कगार पर विमुक्त-घुमंतू जनजातियों की ‘भांतू’ भाषा!

 

मानव सभ्यता के विकास में किसी भी भाषा का बहुत बड़ा महत्व है. भाषा पर काम करने वाले और जाने माने भाषा विज्ञानी प्रोफेसर गणेश देवी के अनुसार “जब एक भाषा खत्म होती है तो ऐसी चीज खत्म होती है जिसका कोई विकल्प नहीं होता.” डिनोटिफाइड ट्राइब्स (डीएनटी) यानी विमुक्त घुमंतू जनजाति की ‘भांतू’ भाषा आज विलुप्त होने की कगार पर है.            

पीपुल्स लिंग्विस्टि सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा भारतीय भाषाओं पर किए गए सर्वे के अनुसार भाषाओं की विलुप्ति को लेकर चिंताजनक तस्वीर सामने आई है. पीपुल्स लिंग्विस्टि सर्वे ऑफ इंडिया की टीम ने देश के अलग-अलग राज्यों में किए गए अपने भाषायी सर्वेक्षण में पाया कि पिछले 50 साल में 220 भाषाएं दम तोड़ चुकी हैं. सर्वेक्षण में सामने आई 780 भारतीय भाषाओं में से 600 भाषाओं पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है. इन भाषाओं में सबसे ज्यादा खतरा घुमंतू जनजातियों की भाषाओं के विलुप्त होने का है.

सवाल है कि आखिर भाषा कब अपने अस्तित्व को लेकर खतरे में आती है और अंत में विलुप्त होने की कगार पर पहुंच जाती है? भाषा विज्ञानियों के अनुसार यह तब होता है जब उस भाषा को बोलने वाली आबादी खत्म हो जाती है या वह आबादी किसी अन्य भाषा को अपना लेती है. जिसके कारण उस आबादी की अगली पीढ़ियां भाषा से दूर हो जाती है. वहीं सामाजिक और आर्थिक कारणों को भी किसी भाषा के विलुप्त होने के पीछे बड़ी वजह माना गया है. आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत वर्ग द्वारा किसी एक भाषा को प्राथमिकता देने से भी स्थानीय भाषाएं कमजोर पड़ जाती हैं.    

विमुक्त जनजातियों की अपनी एक भाषा है. डिनोटिफाइड ट्राइब्स में आने वाली कुछ जनजातियों की इस भाषा का नाम ‘भांतू’ है. ‘भांतू’ भाषा केवल मौखिक चरण में है इसके बाद इसका लिखित रूप में कोई विकास नहीं हुआ.

विलुप्त होने की कगार पर खड़ी भाषाओं को बचाने के लिए बडौदा स्थित भाषा रिसर्च एंड पब्लिकेशन सेंटर काम कर रहा है. यह भाषा रिसर्च सेंटर संविधान की सूचि से बाहर रखी गईं और बहुत कम लोगों तक सीमित रह गईं भाषाओं को बचाने कि लिए काम कर रहा है.

डीएनटी जनजातियों की ‘भांतू’ भाषा को विलुप्त होने से बचाने के लिए अहमदाबाद का बुद्धन थिएटर भी बड़ी भूमिका निभा रहा है. डीएनटी समुदाय से आने वाले फिल्म निर्देशक दक्षिण छारा और डीएनटी समुदाय के युवा अपने नाटकों में भांतू भाषा का प्रयोग कर रहे हैं. दक्षिण छारा ने बताया, “सभी लोगों द्वारा यह भाषा नहीं बोली जाती है बहुत कम लोग रह गए हैं जो यह भाषा बोलते हैं. हमारी कोशिश है कि थिएटर के जरिए इस भाषा को आगे बढ़ाया जाए. हम अपने नाटकों की भांतू भाषा में प्रस्तुति दे रहे हैं. थिएटर के जरिए हम इस भाषा को नई पीढ़ी तक ले जा रहे हैं.”   

डीएनटी समुदाय में आने वाली छारा, सांसी, कंजर, भिली और अन्य कईं घुमंतू जनजातियां भांतू भाषा का प्रयोग करती हैं. भारत में भांतू बोलने वाले करीबन 30 लाख लोग हैं. यह भाषा समय के साथ सिकुड़ती जा रही है.      

“वहीं दिल्ली में रहने वाले करीबन 70 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता गुरुदत्त भाना भांतू ने बताया, “भांतू भाषा को नारसी-पारसी भी कहा जाता है. भांतू भाषा डिनोटिफाइट ट्राइब्स में आने वाले भांतू कबीले की भाषा है. हरियाणा और पंजाब को छोड़कर अन्य राज्यों में रहने वाले भांतू कबीले के अधिकतर लोग भांतू भाषा में ही बातचीत करते हैं.” उन्होंने बताया “मेरा जन्म दिल्ली में हुआ है मेरे पूर्वज भी भांतू भाषा बोलते थे और आज हमारी नई पीढ़ी भी इस भाषा से जुड़ी हुई है.”

गुरुदत्त ने बताया, “हरियाणा और पंजाब में रहने वाली इन जनजातियों के बीच से यह भाषा लगभग खत्म हो चुकी है. प्रदेश के हिसाब से इस भाषा के लहजे में भी फर्क है. गुजरात में भांतू बोलने वालों के लहजे में गुजराती का मेल है तो महाराष्ट्र में भांतू बोलने वालों की भाषा में मराठी भाषा का मेल है.”      

वहीं गुजरात के अहमदाबाद से आने वालीं टीवी कलाकार कल्पना गागडेकर भी भांतू भाषा को आगे बढ़ाने के लिए लगातार काम कर रहीं हैं. कल्पना गागडेकर डीएनटी समुदाय से आतीं हैं. कल्पना गागडेकर अपने नाम से यू-ट्यूब चैनल चलाती हैं. कल्पना गागडेकर ने घुमंतू समुदाय के खान-पान को लेकर भांतू भाषा में कुछ एपिसोड्स बनाए हैं जो उनके यू-ट्यूब चैनल पर देखे जा सकते हैं.

कल्पना गागडेकर ने गांव-सवेरा को बताया “पूरे समुदाय को आपस में जोड़ने के लिये इस भाषा का हमारे लिये बहुत बड़ा महत्व है. भान्तू भाषा के जरिये हम गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र से लेकर अंडमान निकोबार तक एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. भांतू भाषा के विलुप्त होने के बारे में उन्होने बताया कि भाषा के विलुप्त होने का खतरा तो है ही. उसकी एक वजह है कि जब तक ये जनजातियां घुमंतू जीवन यापन कर रहे थे तो इनकी भाषा जिन्दा थी. जैसे-जैसे भान्तू कबीले के लोग घुमंतू जीवन छोड़ते गए और शहरों में बसने लगे तो अपनी भाषा से अलग होते चले गए. लेकिन ऐसा भी नहीं है की यह बोली बिल्कुल विलुप्त होने की कगार पर. भांतू कबीले के लोग आज भी इस भाषा का प्रयोग करते हैं. हम लोग भी इस भाषा को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास कर रहे हैं. हमने भांतू भाषा में भांतू कबीले से जुड़े खान-पान को लेकर वीडियो ब्लॉग बनाए हैं जिनको भांतू समझने वाले लोगों से अच्छा फीडबैक मिला है.”

इन जनजातियों की एक कोड लेंगवेज भी है जिसको नारसी-पारसी के नाम से जाना जाता है. कल्पना गागडेकर ने बताया कि भांतू भाषा के कुछ शब्दों को तो अन्य लोग समझ भी सकते हैं लेकिन नारसी-पारसी को भांतू समुदाय के अलावा कोई नहीं समझ सकता.    

भाषा विज्ञानी प्रोफेसर गणेश देवी ने बताया, “किसी भी समाज के सशक्तिकरण और विकास के लिए भाषा का महत्वपूर्ण योगदान होता है. ‘भांतू’ भाषा डीएनटी समुदाय से आने वाली कुछ जातियों की भाषा है. जैसे पंजाब और हरियाणा में सांसी जाति के लोग इस भाषा का प्रयोग करते हैं वहीं राजस्थान में सांसी और कंजर जाति के लोग इस भाषा का प्रयोग करते हैं ठीक ऐसे ही गुजरात में छारा समुदाय के लोग भी भांतू भाषा जानते हैं. उन्होंने बताया भांतू भाषा में पब्लिकेशन के स्तर पर कोई ज्यादा काम नहीं हुआ है. एक बार गुजरात में ढोल मैगजीन के जरिए छोटा-सा प्रयास हुआ था. जिसमें इऩ समुदाय से जुड़ी कहानियों और घटनाओं को भांतू भाषा में छापा गया था.”