पत्रकारिता को बचाने की चुनौती
इसमें अब कोई शक-शुबहे की गुंजाइश नहीं रह गई है कि एक संस्था के रूप में भारतीय पत्रकारिता खासकर मुख्यधारा की कार्पोरेट स्वामित्ववाले न्यूज मीडिया संस्थानों में पत्रकारिता साख के एक बड़े संकट से गुजर रही है. संभव है कि आप अपने खुद के अनुभवों से भी यह महसूस करते होंगे कि मुख्यधारा के कार्पोरेट स्वामित्ववाले न्यूज मीडिया और उसमें हो रही पत्रकारिता कितने गंभीर नैतिक और राजनीतिक-सामाजिक-कारोबारी-सांस्थानिक विचलनों की शिकार हो चुकी है; मुनाफे और दूसरे निजी हितों की पूर्ति के लिए किस तरह अनैतिक समझौते, सत्ता और बड़े कार्पोरेट समूहों के पक्ष में चापलूसी, प्रोपेगंडा और नागरिकों के साथ धोखाधड़ी कर रही है.
आपसे यह भी नहीं छुपा है कि किस तरह यह प्रोपेगंडा मीडिया न सिर्फ ताकतवर-प्रभावशाली लोगों और सत्ता का भोंपू बन गया है, बिना किसी शर्म और लाज-लिहाज के उनके एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है, गरीबों-कमजोर वर्गों और उनकी जरूरतों और मुद्दों को अनदेखा कर रहा है. यही नहीं, वह सत्ता की पैरोकारी में सच पर पर्दा डालने, सच्चाई को तोड़ने-मरोड़ने, सच को झूठ और झूठ को सच बनाने से लेकर वास्तविक मुद्दों से देश-समाज का ध्यान बंटाने के लिए पीआर, प्रोपेगंडा और छल तक का सहारा ले रहा है.
लेकिन हद तो यह हो गई है कि पिछले कुछ सालों से एक तो करेला, दूसरे नीम चढ़ा की तर्ज पर यह प्रोपेगंडा न्यूज मीडिया समाज में जहरीले सांप्रदायिक-दक्षिणपंथी प्रोपेगंडा के जरिये बंटवारे और ध्रुवीकरण की राजनीति को आगे बढ़ा रहा है. वह खुलेआम नफरत बेच रहा है, सामाजिक सद्भाव को बिगाड़ रहा है, अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों और कमजोर वर्गों को निशाना बना रहा है और आम लोगों को जहरीले प्रोपेगंडा से मानसिक रूप से बीमार बना रहा है.
यही नहीं, न्यूज मीडिया समूहों खासकर न्यूज चैनलों और उनके स्टार एंकरों-संपादकों-रिपोर्टरों में जहरीले-नफरत भरे ‘हेट स्पीच’ और प्रोपेगंडा में एक-दूसरे को पछाड़ने और सबसे आगे निकलने की होड़ में हर दिन एक लक्ष्मण-रेखा टूट रही है. कल तक जिसे हेट स्पीच समझा जाता था और जिसे सार्वजनिक विमर्श में अस्वीकार्य, असहनीय और शर्मिंदगी का कारण माना जाता था, इन न्यूज चैनलों ने उस सांप्रदायिक नफरत, घृणा और हिंसा को न सिर्फ दैनिक सार्वजनिक विमर्श का स्वीकार्य हिस्सा बना दिया है बल्कि उसका पूरी तरह से सामान्यीकरण (नॉर्मलाइजेशन) कर दिया है.
इस आलेख में इसके कारणों में विस्तार से जाने की गुंजाइश या जरूरत नहीं है और शायद दोहराव का खतरा भी है. इस प्रोपेगंडा न्यूज मीडिया और उसके बारे में आलोचनात्मक आलेख और टिप्पणियां आपने खूब पढ़ी होंगी. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इसकी बुनियादी वजह बड़ी कार्पोरेट पूंजी के स्वामित्ववाले न्यूज मीडिया की संरचना में ही निहित है. जैसाकि वरिष्ठ पत्रकार पी. साईंनाथ कहते हैं कि कार्पोरेट न्यूज मीडिया की संरचना की यह अनिवार्यता है कि वह झूठ बोले.
इसके साथ ही कार्पोरेट न्यूज मीडिया का सामाजिक ढांचा अब भी बुनियादी तौर पर सवर्ण-पुरुष-शहरी-अभिजात्य तबके से आनेवाले गेटकीपरों (संपादकों/पत्रकारों) तक सीमित है और आतंरिक ढाँचे में लोकतंत्र के लिए कोई खास जगह नहीं है. कार्पोरेट न्यूज मीडिया के ज्यादातर समाचारकक्षों में माहौल न सिर्फ दमघोंटू है बल्कि सामाजिक रूप में प्रतिगामी और उत्पीड़क है.
कार्पोरेट न्यूज मीडिया की इन सच्चाइयों और उसकी सीमाओं को लोग धीरे-धीरे समझने लगे हैं. इन सब कारणों से कार्पोरेट स्वामित्ववाली न्यूज मीडिया और उसमें हो रही कथित पत्रकारिता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं. यही नहीं, उसका बड़ा हिस्सा न सिर्फ अपनी साख खो चुका है बल्कि नागरिकों के एक छोटे हिस्से में ही सही लेकिन उसके खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा है.
यह गुस्सा कई रूपों में अभिव्यक्त भी हो रहा है. लोग विकल्प खोज रहे हैं. आखिर बिना स्वतंत्र, मुखर और सच्ची पत्रकारिता के लोकतंत्र भी नहीं चल सकता है और उसके कारण नागरिकों की आज़ादी और अधिकार भी खतरे में हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि आमलोगों के सरोकारों से जुड़ी, स्वतंत्र और गैर-लाभकारी मीडिया उपक्रमों से संचालित वैकल्पिक पत्रकारिता की जरूरत आज पहले से ज्यादा महसूस की जा रही है.
लेकिन सवाल यह है कि क्या वैकल्पिक पत्रकारिता मुख्यधारा की पत्रकारिता की जगह ले सकती है? क्या वैकल्पिक न्यूज मीडिया उपक्रमों और उसके विभिन्न प्लेटफार्मों में मुख्यधारा की कार्पोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों के पैमाने पर समाचारों के संकलन और आमलोगों तक पहुँचने का सामर्थ्य है? सवाल यह भी है कि क्या मुख्यधारा की कार्पोरेट नियंत्रित पत्रकारिता में सुधार या बदलाव की सारी संभावनाएं खत्म हो चुकी हैं?
यह सही है कि कार्पोरेट नियंत्रित पत्रकारिता में बुनियादी बदलाव असंभव है और कार्पोरेट स्वामित्व के ढाँचे में बदलाव और विज्ञापन आधारित बिजनेस माडल की जगह नए बिजनेस माडल के बिना आदर्श पत्रकारिता की पुनर्बहाली मुश्किल है. लेकिन क्या वहां इन सीमाओं के बावजूद पत्रकारिता को दोबारा कम से कम इस स्थिति में नहीं लाया जा सकता है कि वह स्वतंत्र, तथ्यपूर्ण, साक्ष्यों पर आधारित और संतुलित रिपोर्टिंग कर सके, विचारों के मामले में वैचारिक विविधता और बहुलता का सम्मान करे और सत्ता और कार्पोरेट गठजोड़ के प्रोपेगंडा भोंपू की तरह जहरीला-सांप्रदायिक प्रचार न करे?
ये सवाल न्यूज मीडिया आलोचना के बीच इसलिए महत्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि कार्पोरेट नियंत्रित मुख्यधारा की पत्रकारिता के विचलनों/स्खलनों और कुछ मामलों में उसके पतन की आलोचना के बाद उसके विकल्पों या उसमें सुधार का सवाल आमतौर पर अधूरा छोड़ दिया जा जाता है या अनदेखा कर दिया जाता है. यही नहीं, इस प्रक्रिया में आम नागरिकों यानी पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं की क्या भूमिका हो सकती है? क्या वे मौजूदा मीडिया परिदृश्य में हस्तक्षेप करने और पत्रकारिता जैसी जरूरी लोकतान्त्रिक संस्था की गरिमा और इयत्ता को बहाल करने में सक्षम हैं? क्या वे कार्पोरेट नियंत्रित न्यूज मीडिया पर सुधार का दबाव और वैकल्पिक न्यूज मीडिया को ताकतवर बनाने में सक्रिय भूमिका निभा सकते हैं?
महत्वपूर्ण है नागरिकों की भूमिका
सच यह है कि पत्रकारिता आज जिस गहरे संकट में है, उसमें एक बड़ा कारण उससे जुड़े मामलों में नागरिकों की आमतौर पर निष्क्रिय भूमिका भी है. आश्चर्य नहीं कि न्यूज मीडिया के जनतान्त्रिकीकरण और उसमें सुधार/बदलाव के मुद्दे न तो राजनीतिक दलों के एजेंडे पर हैं और न ही नागरिक समाज के एजेंडे पर. ऐसा लगता है जैसे यह कोई मुद्दा नहीं हो. इस तथ्य के बावजूद कि राष्ट्रीय मसलों और सार्वजनिक जीवन को प्रभावित करने, जनमत बनाने और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को निर्देशित करने और लोगों की आज़ादी और अधिकारों को फ़ैलाने या संकुचित करने में मीडिया की ताकत लगातार बढ़ती जा रही है, वह सार्वजनिक बहसों और चर्चाओं से बाहर है और कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कार्पोरेट नियंत्रित न्यूज मीडिया की जवाबदेही या उसके कामकाज में पारदर्शिता या उसके नियमन जैसे जरूरी मुद्दे पर कोई सार्वजनिक पहल, कार्रवाई और आन्दोलन भी नहीं दिखाई देता है.
ऐसे में, यहाँ कार्पोरेट नियंत्रित न्यूज मीडिया में सुधार और उसके जनतान्त्रिकीकरण के साथ वैकल्पिक न्यूज मीडिया को प्रभावी बनाने के मद्देनजर चर्चा के लिए कुछ प्रस्ताव पेश हैं. ये प्रस्ताव न तो पर्याप्त हैं और न ही इनका मकसद एकतरफा कार्रवाई को प्रोत्साहित करना है. इन प्रस्तावों का उद्देश्य कार्पोरेट न्यूज मीडिया में सुधार/बदलाव के साथ पत्रकारिता की साख को बहाल करने, उसे जवाबदेह और पारदर्शी बनाने और नागरिकों की अपने दायित्व के बाबत जागरूक बनाने के लिए सार्वजनिक चर्चा/बहस को प्रोत्साहित करना है.
मीडिया साक्षरता और उसके बारे में आलोचनात्मक समझ बढाने के लिए
1. देश में मीडिया साक्षरता और उसके बारे में आलोचनात्मक समझ बनाने के लिए एक बड़ा अभियान चलाने की जरूरत है. न्यूज मीडिया यानी अखबारों को पढने, टीवी देखने और डिजिटल माध्यमों को बरतने के लिए एक आलोचनात्मक दृष्टि और विवेक जरूरी है. न्यूज मीडिया कैसे काम करता है, संपादकों/पत्रकारों की क्या भूमिका होती है, वे कैसे समाचार चुनते और गढ़ते हैं, सम्पादकीय मूल्य क्या होते हैं और उनके काम करने के नैतिक मापदंड क्या है, समाचार कैसे संकलित, सम्पादित और प्रस्तुत किए जाते हैं, टीवी में विजुअल्स कैसे बनते हैं, उन्हें कैसे सम्पादित किया जाता है, कैमरा कैसे काम करता है जैसे अनेकों पहलुओं के बारे में स्पष्ट और आलोचनात्मक समझ होने पर पाठक-दर्शक-श्रोता न्यूज मीडिया के कंटेंट को ज्यादा सतर्क और सचेत रूप से ग्रहण करेंगे.
हालाँकि मीडिया साक्षरता का यह अभियान चलाना इतना आसान नहीं है. इसके लिए न सिर्फ बड़े पैमाने पर संसाधनों और प्रशिक्षकों की जरूरत है बल्कि इसे एक साथ कई स्तरों पर चलाना होगा. इस अभियान को स्कूलों, कालेजों-विश्वविद्यालयों से लेकर कचहरियों, निजी-सरकारी दफ्तरों/कार्यस्थलों तक ले जाना होगा. यही नहीं, घरों के अन्दर ड्राइंगरूम से लेकर किचन तक और दफ्तरों समेत दूसरे सार्वजनिक जगहों पर इस बारे में चर्चा करनी होगी. एक नागरिक के बतौर हमें न्यूज मीडिया के कामकाज और उसके कंटेंट लेकर आलोचनात्मक चर्चा को ड्राइंग रूम और व्हाट्सएप्प समूहों से लेकर कार्यस्थलों और कैंटीन/कैफेटेरिया तक ले जाना होगा. उसे हर मंच पर उठाने, बोलने और लिखने की कोशिश करनी होगी. अब इसपर चुप रहने या उसे अनदेखा करने का विकल्प नहीं है.
2. मीडिया साक्षरता अभियान का एक और बहुत जरूरी हिस्सा है- न्यूज मीडिया से आ रहे कंटेंट में दिखनेवाली गड़बड़ियों, विचलनों और तोड़मरोड़ पर सार्वजनिक प्रतिकार करना. इसके लिए नागरिक समाज के संगठनों से लेकर आम नागरिकों को नियमित तौर पर संपादकों को प्रतिवाद चिट्ठियां और ईमेल लिखने से लेकर उस बारे में प्रेस काउन्सिल और न्यूज ब्राडकास्टिंग स्टैण्डर्ड अथारिटी को शिकायती पत्र लिखने चाहिए. उन्हें इस बारे में सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर भी अपनी बात दर्ज करवानी चाहिए. गंभीर विचलनों और जहरीले-सांप्रदायिक प्रोपेगंडा के मामलों में “नाम लेकर शर्मिंदा करना” (नेम एंड शेम) भी जरूरी है. याद रहे कि सार्वजनिक आलोचना का दोहरा असर होता है- एक, कार्पोरेट न्यूज मीडिया संस्थानों पर दबाव पड़ता है और दूसरे, इस बारे में आम नागरिकों की चेतना भी बढ़ती है.
आप जैसे आम पाठक-दर्शक-श्रोता ऐसे मामलों में सक्रिय दिलचस्पी लेकर अपने परिचितों के साथ बात कर सकते हैं, व्हाट्सएप्प समूहों में चर्चा शुरू कर सकते हैं और सोशल मीडिया पर टिप्पणियां लिख सकते हैं. संपादकों को चिट्ठी और ईमेल लिख सकते हैं.
3. मीडिया साक्षरता अभियान के तहत फैक्ट चेक करनेवाले संगठनों और प्लेटफार्म्स को मजबूत बनाना बहुत जरूरी है. औद्योगिक स्तर पर संगठित-संचालित सत्ता समर्थक प्रोपेगंडा और जहरीले-सांप्रदायिक प्रचार के मुकाबले में आल्ट-न्यूज, बूम-लाइव और इंडिया-स्पेंड जैसे फैक्ट चेकर्स की ताकत भले कम हो, उनके पास उस स्तर के संसाधन और पहुँच न हो लेकिन इन सबने संगठित फेक न्यूज और जहरीले प्रोपेगंडा के मुकाबले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसमें कोई शक नहीं है कि वे मीडिया साक्षरता यानी मीडिया के कामकाज और उसके कंटेंट के बारे में लोगों को जागरूक करने के साथ लोगों को तथ्यों और सच्चाई से अवगत कराने की जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे रहे हैं. वे कार्पोरेट मीडिया के लिए वास्तविक नियामक और अंकुश का काम कर रहे हैं.
हमें उनके साथ खड़ा होना होगा. उनकी रिपोर्टों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने की कोशिश करनी होगी. एक नागरिक के रूप में कम से कम हम उनकी रिपोर्टों को सोशल मीडिया पर शेयर करने के साथ अपने परिचितों के व्हाट्सएप्प समूहों में भेजें तो झूठ और प्रोपेगंडा से लड़ने में मदद मिलेगी. हम अपने-अपने इलाकों में छोटे स्तर पर ही सही झूठी ख़बरों/प्रोपेगंडा की जांच-पड़ताल कर सकते हैं या फेक न्यूज/प्रोपेगंडा की जांच-पड़ताल के लिए फैक्ट चेकर्स के पास भेज सकते हैं.
हमें इन फैक्ट चेकर्स की हर तरह से मदद करनी चाहिए. अगर साल में एक बार अपनी आर्थिक सामर्थ्य के मुताबिक कम से कम 500 रूपये से लेकर 5000 रूपये तक मदद कर सकें तो उन्हें न सिर्फ अपना काम बढ़ाने, उसे स्थायित्व देने और अपनी पहुँच बढ़ाने में मदद मिलेगी बल्कि उनकी स्वतंत्रता भी सुनिश्चित हो सकेगी. फैक्ट चेकर्स कार्पोरेट या सरकारी पैसे के बजाय हम-आप जैसे लोगों के पैसे से चलें तो वे ज्यादा स्वतंत्र और निर्भीक होकर अपना काम कर पायेंगे.
कार्पोरेट न्यूज मीडिया में सुधार और उसके जन्तान्त्रिकीकरण के लिए
4. आज कार्पोरेट न्यूज मीडिया के स्वामित्व के नियमन की सख्त जरूरत है. इसकी शुरुआत न्यूज मीडिया कंपनियों के स्वामित्व और उसकी शेयर-होल्डिंग को सार्वजनिक किया जाना चाहिए. उसमें सिर्फ कंपनी नहीं बल्कि उसके असली मालिक का नाम भी होना चाहिए. अभी ज्यादातर न्यूज मीडिया कम्पनियाँ शेयर-होल्डर के रूप में कंपनियों के नाम घोषित कर देती हैं लेकिन उससे यह पता नहीं चलता कि उसके वास्तविक मालिक कौन हैं. यही नहीं, इस जानकारी को एक पब्लिक पोर्टल पर डाला जाना चाहिए.
इसके अलावा न्यूज मीडिया में न सिर्फ बड़ी पूंजी के प्रवेश को सीमित और नियंत्रित करने की जरूरत है बल्कि मुख्यधारा के मीडिया में क्रास मीडिया प्रतिबंधों को भी लागू करने की जरूरत है. इस संबंध में टेलीकाम नियामक- ट्राई और एएससीआई प्रस्ताव सरकार के पास है. उनपर सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए. नागरिक समाज को और कार्पोरेट न्यूज मीडिया की मौजूदा स्थिति से चिंतित हर नागरिक (पाठक-दर्शक-श्रोता) को भी राजनीतिक दलों पर इस बारे में अपना स्टैंड स्पष्ट करने के लिए दबाव बनाना चाहिए.
5. इसमें कोई दो राय नहीं है कि कार्पोरेट न्यूज मीडिया के कंटेंट के स्व-नियमन की मौजूदा व्यवस्था नैतिक विचलनों, कंटेंट में तोड़मरोड़ और जहरीले-सांप्रदायिक प्रोपेगंडा को नियंत्रित करने में काफी हद तक नाकाम साबित हुई है. लेकिन इसका विकल्प सरकारी नियमन कतई नहीं है. सरकारी नियमन मर्ज को और बदतर बना देगा. इसलिए आज जरूरत है कि कंटेंट संबंधी शिकायतों को रिपोर्ट करने-सुनने और उसकी जांच-पड़ताल करने के लिए संसद में पारित कानून के जरिये एक स्वतंत्र नियामक का गठन हो. यह नियामक सरकार और कार्पोरेट न्यूज मीडिया उद्योग दोनों से स्वतंत्र होना चाहिए. उसकी स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए संसद में विधेयक लाने से पहले उसके मसौदे पर व्यापक चर्चा और सभी भागीदारों से सलाह-मशविरा होना चाहिए. लेकिन उसे आर्थिक जुर्माना लगाने से लेकर गंभीर मामलों में लाइसेंस निलंबित करने तक का अधिकार होना चाहिए.
नागरिक समाज को इसकी मांग को लोकप्रिय बनाने और इसे स्वीकार करने के लिए राजनीतिक दलों पर दबाव बनाना चाहिए. आखिर खुद को लोकतंत्र का पहरेदार बतानेवाले न्यूज मीडिया अपने कामकाज और कंटेंट की निगरानी और जवाबदेही से कब तक बचता रहेगा.
6. कार्पोरेट न्यूज मीडिया कंपनियों और उनके न्यूजरूम के जनतान्त्रिकीकरण को प्राथमिकता देने की जरूरत है. इसके लिए कई स्तरों पर पहल होनी चाहिए. सबसे पहले पत्रकारों/संपादकों की सेवा-शर्तों को बेहतर बनाने और उनकी नौकरी की सुरक्षा के लिए श्रमजीवी पत्रकार कानून, 1955 को संशोधित करके अखबारों के साथ-साथ टीवी न्यूज चैनलों और डिजिटल प्लेटफार्मों पर भी लागू करने की व्यवस्था करनी होगी. अस्थाई ठेके या सालाना कान्ट्रेक्ट पर या बिना किसी नियुक्ति पत्र के नौकरी कराने की व्यवस्था पर रोक लगनी चाहिए. इस कानून के तहत गठित होनेवाले पत्रकारों के वेतन आयोग की सिफारिशों को कड़ाई से लागू कराया जाना चाहिए. इसमें केंद्र और राज्य सरकारों की भूमिका सबसे अहम है और उसपर निगरानी रखी जानी चाहिए.
इस कानून को पिछले कुछ दशकों में ताकतवर न्यूज मीडिया कंपनियों और सरकारों के गठजोड़ ने कमजोर और बेमानी बना दिया है. लेकिन आज इस कानून को और प्रभावी और सशक्त बनाने की जरूरत है. इसके साथ ही पत्रकारों को अपने संस्थानों में यूनियन बनाने का अधिकार होना चाहिए. इसके लिए न्यूज मीडिया कंपनियों में यूनियन बनाना अनिवार्य होना चाहिए. यूनियन को कानूनी संरक्षण मिलनी चाहिए और उसके नेतृत्व में शामिल पत्रकारों/संपादकों को कंपनियों की बदले की कार्रवाई से सुरक्षा देने का उपाय किया जाना चाहिए.
7. न्यूज मीडिया संस्थानों के जनतान्त्रिकीकरण के लिए उनके न्यूजरूम की सामाजिक-आर्थिक प्रोफाइल को ज्यादा समावेशी और भागीदारीपूर्ण बनाने की जरूरत है. यह सचमुच अफ़सोस और चिंता की बात है कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा होने का दावा करनेवाले न्यूज मीडिया संस्थान खुद बहुत अलोकतांत्रिक हैं. उनके न्यूजरूम में सवर्ण-पुरुष-शहरी और अभिजात्य/मध्यवर्गीय परिवारों से आनेवाले पत्रकारों/संपादकों का दबदबा है. उसमें दलितों-आदिवासियों-पिछड़े वर्गों-अल्पसंख्यकों-महिलाओं और गरीब/ग्रामीण पृष्ठभूमि के परिवारों से आनेवाले पत्रकारों की संख्या न के बराबर है. इसे बदले बिना न्यूज मीडिया खुद को लोकतान्त्रिक संस्था नहीं कह सकता.
नागरिक समाज से जुड़े संगठनों, पत्रकार यूनियनों और एडिटर्स गिल्ड जैसी संस्थाओं को न्यूज मीडिया कंपनियों और उनके न्यूजरूम को ज्यादा समावेशी और भागीदारीपूर्ण बनाने के लिए न सिर्फ इसे मुद्दा बनाना चाहिए बल्कि उनपर दबाव डालकर इस स्थिति को बदलने के लिए प्रेरित करना चाहिए. यहाँ आरक्षण की मांग नहीं की जा रही है लेकिन यह कानूनी प्रावधान किया जा सकता है कि न्यूज मीडिया कम्पनियाँ अपने सामाजिक प्रोफाइल की सालाना रिपोर्ट जारी करें. यही नहीं, उन न्यूज मीडिया कंपनियों को टैक्स में छूट और अन्य आर्थिक प्रोत्साहन (जैसे अन्य के मुकाबले 10 फीसदी ऊँचा एड रेट) देने चाहिए जो अपने न्यूजरूम में कम से कम 40 से 50 फीसदी समाचारकर्मी दलित-आदिवासी-पिछड़े-अल्पसंख्यक और महिला तबकों से भर्ती करें.
8. इन उपायों के बावजूद कार्पोरेट न्यूज मीडिया के उस हिस्से में सुधार की गुंजाइश कम दिखती है जो खुले तौर पर दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक राजनीति खेमे में सम्बद्ध है और उसके एजेंडे के मुताबिक जहरीले-सांप्रदायिक प्रोपेगंडा में जुटा हुआ है. इससे निपटने के लिए सत्याग्रह और शांतिपूर्ण असहयोग के अलावा कोई रास्ता नहीं है. ऐसे समाचारपत्रों/पत्रिकाओं के साथ न्यूज चैनलों को चिन्हित करना चाहिए. उनके कामकाज के तरीकों और कंटेंट पर बारीक निगाह रखी जानी चाहिए. उनके गंभीर विचलनों को अनदेखा करने के बजाय उसे सोशल मीडिया पर “नाम लो, शर्मिंदा करो” के तहत चर्चा करनी चाहिए.
इसके साथ ही उनके आर्थिक बहिष्कार जैसे सब्सक्रिप्शन रद्द करने पर भी विचार करना चाहिए. उन कार्पोरेट्स पर भी निगाह रखनी चाहिए जो ऐसे जहरीले प्रोपेगंडा को स्पांसर कर रहे हैं. आखिर जहरीले प्रोपेगंडा को सबस्क्राइब करना या उसके स्पांसर्स की वस्तुएं/सेवाएँ खरीदना क्या उन्हें परोक्ष प्रोत्साहन देना नहीं है?
लोक प्रसारण के लिए प्रस्ताव
9. भारत में जब भी न्यूज मीडिया में सुधार और बदलाव और पत्रकारिता की साख को बहाल करने की बात होती है, उसमें आमतौर पर लोक प्रसारणकर्ता (पब्लिक ब्राडकास्टर) यानी दूरदर्शन और आकाशवाणी की चर्चा नहीं होती है. हालाँकि 80 के दशक तक दूरदर्शन/आकाशवाणी की स्वायत्तता और आज़ादी का मुद्दा सार्वजनिक बहसों और राजनीतिक दलों के एजेंडे पर रहता था लेकिन 90 के दशक के उत्तरार्ध से यह मुद्दा सार्वजनिक बहसों से गायब हो गया है. जैसे यह मान लिया गया हो कि दूरदर्शन/आकाशवाणी सरकारी चैनल हैं और उनका काम सरकारी प्रचार करना है.
मजे की बात यह है कि दूरदर्शन/आकाशवाणी आज कानूनी रूप से एक स्वायत्त निगम- प्रसार भारती के तहत काम कर रहे हैं जो संसद को जवाबदेह है लेकिन इसके बावजूद उनके कामकाज की वैसी सार्वजनिक पड़ताल या संसदीय छानबीन नहीं होती दिखती है, जैसी दुनिया के बहुतेरे देशों में लोक प्रसारकों की होती है. उदाहरण के लिए बीबीसी के कामकाज की संसदीय और सार्वजनिक पड़ताल होती रहती है और वह अक्सर सार्वजनिक आलोचनाओं के केंद्र में रहती है.
भारत में भी प्रसार भारती के कामकाज पर निगरानी रखने की जरूरत है. यह हमारे-आपके टैक्स के पैसे से चलता है. लोक प्रसारक को आम लोगों लोगों की सूचना-समाचार की जरूरतों को पूरा करनेवाला होना चाहिए. वह सरकार का भोंपू कतई नहीं है और न होना चाहिए. नागरिक समाज के संगठनों को उसके कामकाज और कंटेंट पर सार्वजनिक चर्चा करनी चाहिए और राजनीतिक दलों को संसद में उसकी निगरानी और जवाबदेही तय करनी चाहिए ताकि वह वास्तव में लोक प्रसारक की तरह काम करे.
वैकल्पिक मीडिया के लिए प्रस्ताव
10. इसमें कोई शक नहीं है कि मौजूदा दौर में जब दुनिया के कई देशों की तरह भारत में भी “मीडिया कैप्चर” एक सार्वजनिक सच्चाई है, वैकल्पिक न्यूज मीडिया को मजबूत बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. वैकल्पिक न्यूज मीडिया को मजबूत और प्रभावी बनाने की यह जिम्मेदारी हर उस आम नागरिक की है जो लोकतंत्र में सच्ची, स्वतंत्र, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और संतुलित सूचनाओं/समाचारों के अबाध प्रवाह को बुनियादी जरूरत समझता है और जो खोजी-आलोचनात्मक-प्रतिपक्षी न्यूज मीडिया को अपनी आज़ादी और अधिकारों की गारंटी और पहरेदार मानता है.
वैकल्पिक न्यूज मीडिया को मजबूत बनाने के लिए यह जरूरी है कि ऐसे सभी स्वतंत्र-आलोचनात्मक मीडिया उपक्रमों की आर्थिक मदद की जाए जिन्होंने सरोकारी पत्रकारिता की है, सत्ता-कार्पोरेट से सवाल पूछने का साहस दिखाया है और सार्वजनिक विमर्श में आमलोगों के मुद्दों को उठाने की कोशिश की है. सभी सचेत नागरिकों को जो कार्पोरेट न्यूज मीडिया के अखबारों/न्यूज चैनलों के लिए हर महीने आठ सौ से हजार रूपये खर्च करते हैं, उन्हें इन वैकल्पिक न्यूज मीडिया उपक्रमों पर भी हर महीने 200-500 रूपये खर्च करने पर जरूर विचार करना चाहिए. हमारे-आपके पैसे पर चलनेवाला न्यूज मीडिया ही हमारे हितों की रखवाली कर सकता है, सत्ता-कार्पोरेट के दबावों को झेल सकता है और अपनी स्वतंत्रता सुरक्षित रख सकता है.
असल में, आज दुनिया भर में खासकर विकसित और उदार पूंजीवादी लोकतान्त्रिक पश्चिमी देशों में कार्पोरेट न्यूज मीडिया का मौजूदा विज्ञापन और बड़ी पूंजी आधारित बिजनेस माडल साख के संकट का सामना कर रहा है. ज्यादातर मीडिया विश्लेषक मान रहे हैं कि यह बिजनेस माडल संकट में है और टिकाऊ नहीं है, इसमें पत्रकारीय स्वतंत्रता संभव नहीं है, नैतिक विचलनों और समझौतों को रोकना मुश्किल है और इसलिए इसका विकल्प खोजना जरूरी है. इसका विकल्प पत्रकारों के कोआपरेटिव/ट्रस्ट पर आधारित स्वामित्ववाली कंपनियों और आम पाठकों/दर्शकों के सब्सक्रिप्शन पर जोर देने में देखा जा रहा है. कहने का आशय यह है कि आम पाठकों/दर्शकों की मदद के बिना वैकल्पिक पत्रकारिता का खड़ा होना न सिर्फ मुश्किल है बल्कि उसकी स्वतंत्रता की गारंटी के लिए भी जरूरी है.
11. वैकल्पिक न्यूज मीडिया के सहयोग/समर्थन के लिए उनके कंटेंट को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी आम नागरिकों और नागरिक समाज के संगठनों को उठानी पड़ेगी. इसके लिए प्रस्ताव है कि देश के जिलों/कस्बों और यहाँ तक कि गांवों में भी वैकल्पिक मीडिया को लेकर चिंतित सचेत, सक्रिय और उदार नागरिकों के समूह बनें जिनका नाम “वैकल्पिक मीडिया मित्र मंडली” जैसा हो सकता है. ये समूह समय-समय पर न सिर्फ इन वैकल्पिक न्यूज मीडिया प्लेटफार्मों के लेखों/रिपोर्टों पर चर्चा आयोजित करें, उसे अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाने के लिए अपने सोशल मीडिया पर शेयर करने से लेकर व्हाट्सएप्प समूहों के जरिये और लोगों तक पहुंचाएं बल्कि उनकी आर्थिक मदद के लिए अभियान भी चलायें.
12. इसके साथ ही सचेत और सक्रिय नागरिकों और उनके समूहों को वैकल्पिक न्यूज मीडिया प्लेटफार्मों की निरंतर निगरानी भी करनी चाहिए. उनके सहयोग और समर्थन का मतलब यह कतई नहीं है कि वे आलोचना से परे हैं या गलतियाँ नहीं कर सकते हैं. दूसरी ओर, उन्हें भी ऐसी आलोचनाओं को न सिर्फ धैर्य से सुनना चाहिए बल्कि गंभीर आलोचनाओं को अपने मंचों पर जगह देनी चाहिए. उन आलोचनाओं पर बहस और चर्चा को प्रोत्साहित करना चाहिए. कहने की जरूरत नहीं है कि वैकल्पिक न्यूज मीडिया प्लेटफार्मों को न सिर्फ अधिक लोकतान्त्रिक और उदार होना चाहिए बल्कि नैतिक मानदंडों के मामले में कार्पोरेट न्यूज मीडिया के बरक्स आदर्श पेश करना चाहिए. उन्हें अपने न्यूजरूम में अधिक समावेशी और सामाजिक विविधता और भागीदारी को प्रोत्साहित करनेवाला होना चाहिए. उन्हें अपने व्यावसायिक लेनदेन और आय-व्यय का लेखा-जोखा पेश करने में पारदर्शी और जिम्मेदार होना चाहिए. उन्हें अपने कामकाज की नागरिक समाज से निगरानी के लिए तैयार रहना चाहिए.
नागरिकों यानी पाठकों/दर्शकों के लिए कुछ प्रस्ताव
13. पत्रकारिता की साख को बहाल करने और उसे उसकी भूमिका में वापस लाने की कोई पहल तब तक कामयाब नहीं हो सकती है जब तक आम नागरिक में सचेत, सतर्क और आलोचनात्मक समझ से लैस न हों. यह आसान प्रोजेक्ट नहीं है. लेकिन इसके बिना कोई विकल्प भी नहीं है. असल में, आज जिस नियोजित तरीके से औद्योगिक स्तर पर झूठ, प्रोपेगंडा और जहरीला-सांप्रदायिक प्रचार चल रहा है, उसका मुकाबला नागरिकों को ही करना पड़ेगा. इसके लिए जरूरी है कि नागरिकों का सचेत हिस्सा और नागरिक समाज के संगठन यह जिम्मेदारी लें कि वे अपने परिवारों से लेकर कार्यस्थलों और दूसरी सार्वजनिक जगहों पर अपने परिवारजनों, सहकर्मियों और मित्रों में आलोचनात्मक सोच-समझ विकसित करने के लिए काम करेंगे.
यह सच है कि एक सचेत और आलोचनात्मक नागरिक तैयार करने में क्रिटिकल न्यूज मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका होती है लेकिन आज एक क्रिटिकल और सचेत न्यूज मीडिया खड़ा करने की जिम्मेदारी सचेत और क्रिटिकल नागरिकों को उठानी पड़ेगी.
यहाँ एक बार फिर से दोहराना जरूरी है कि ये सिर्फ कुछ प्रस्ताव हैं जिनपर चर्चा की जरूरत है. यह कोई न्यूज मीडिया में सुधार, पत्रकारिता की साख बहाली और झूठ-प्रोपेगंडा से लड़ने की मुकम्मल योजना या घोषणापत्र नहीं है. इसमें कई मुद्दे छूट गए या छोड़ दिए गए हैं. वजह चर्चा और बहस के लिए गुंजाइश छोड़ना और इसे व्यापक और समावेशी बनाना है. लेकिन इतना तय है कि कार्पोरेट न्यूज मीडिया में सुधार से लेकर वैकल्पिक न्यूज मीडिया को मजबूत बनाने के एजेंडे को नागरिक समाज और राजनीतिक दलों की प्राथमिकताओं में लाया जाना जरूरी हो गया है. यह देश में लोकतंत्र की सेहत और नागरिकों के अधिकारों से अभिन्न रूप से जुड़ा मुद्दा है. न्यूज मीडिया और पत्रकारिता से जुड़े इन सवालों और मुद्दों को उठाये बिना लोकतंत्र बचाने की कोई मुहिम सफल नहीं हो सकती है. इसे और अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए.
लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली में पत्रकारिता के प्रोफ़ेसर हैं. उनका ट्विटर हैंडल है: @apradhan1968
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