उत्तर प्रदेश : जहाँ स्वतंत्र पत्रकारिता करना अपराध है

 

ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर को 27 जून के दिन एक ट्वीट के लिए गिरफ्तार किया गया। पुलिस का आरोप था कि इस ट्वीट से कथित तौर पर धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 20 जुलाई को मामले की सुनवाई करते हुए 39 वर्षीय पत्रकार को सभी छह मामलों में जमानत दे दी। ये सभी मामले उत्तर प्रदेश पुलिस ने उनके खिलाफ दायर किये थे। कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जुबैर के खिलाफ ऐसा कोई सबूत नहीं है जिसके आधार पर उन्हें उनकी “स्वतंत्रता से वंचित” रखा जाए। एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया, कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स, इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट जैसे सिविल सोसाइटी ग्रुप्स और कई अन्य लोगों ने ज़ुबैर की गिरफ्तारी को प्रेस की स्वतंत्रता दबाने के नज़रिए से देखा।

2014 के आम चुनावों के बाद, भारत में दक्षिणपंथी हिंदू राष्ट्रवादी भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष और निरंकुश तरीकों से विपक्ष को दबाने का प्रयास किया है। जिस तरीके से पत्रकारों को रेड, प्रतिबंधित कानूनों और उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें मनमाने ढंग से गिरफ्तार किया जा रहा है। इससे उनमें भय और सेल्फ सेंसरशिप का पैटर्न फैल रहा है।

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा जारी विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत का स्थान 180 देशों में से 150वां  है। सूचकांक की रैंकिग को मोदी सरकार ने “पश्चिमी पूर्वाग्रह” का आरोप लगाते हुए खारिज कर दिया। सरकार ने घटती प्रेस स्वतंत्रता की जांच के लिए एक सूचकांक निगरानी प्रकोष्ठ की भी स्थापना की। इस समिति ने प्रेस की स्वतंत्रता के गिरते स्तर पर ध्यान देने के बजाय आरोपों का प्रतिकार करने में जुटी रही। मंत्रालय ने रिपोर्ट की कार्यप्रणाली को “संदिग्ध और गैर-पारदर्शी” बताया। यह दावा भी किया कि भारत सरकार नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की पूरी गारंटी देती है। मंत्रालय ने कहा, “सरकार प्रेस के कामकाज में हस्तक्षेप नहीं करती है।” हालांकि स्वतंत्र संगठनों ने मंत्रालय द्वारा किए इन बचावों का खंडन किया और सूचकांक निगरानी प्रकोष्ठ के एक सदस्य ने सूचकांक की प्रकिया और निष्कर्षों पर तीखा प्रहार करते हुए लेख भी लिखा।

उत्तर प्रदेश सरकार बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा और मीडिया को निशाने पर लेने की अपनी आदतों के कारण चर्चा में रही  है। हिंदू राष्ट्रवादी सरकार के सत्ता में आने के बाद से मुस्लिम समुदाय को हाशिए पर रखा गया है और समुदाय विशेष हमलों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। मोदी सरकार ने प्रेस को चुप कराने के लिए जिन तरीकों का इस्तेमाल किया, उनमें से एक गैरकानूनी अत्याचार (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) भी है। इस कानून को 1967 में पेश किया गया था। इस अधिनियम में कई बार कड़े नियमों के साथ बदलाव किए जा चुके है। साल 2019 में किए गए संशोधन ने अधिकारियों को यह अधिकार दे दिया कि वह किसी व्यक्ति को बिना सबूत के आतंकवादी मानने और आरोपी को सात साल तक की जेल की सजा दे सकते हैं। इस कानून को कई अधिवक्ताओं और अंतर्राष्ट्रीय अधिकार समूहों ने “कठोर” बताया है। भारत सरकार के अनुसार, 2020 में यूपी में यूएपीए के तहत 361 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इनमें से 54 आरोपियों को दोषी ठहराया गया। उदाहरण के तौर पर,  इसी साल 42 वर्षीय मुस्लिम पत्रकार कप्पन सिद्दकी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। वे हाथरस के एक दलित समुदाय की 19 वर्षीय लड़की के कथित सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले को कवर करने गये थे। आरोप था कि उस लड़की के साथ  उच्च जाति के युवकों ने दुष्कर्म किया था। कप्पन आज भी जेल में बंद हैं।

उत्तर प्रदेश को पत्रकारों के लिए देश में दूसरा सबसे खतरनाक राज्य बताया गया है। पहले स्थान पर जम्मू और कश्मीर क्षेत्र है। यह इलाका दशकों से संघर्ष का क्षेत्र रहा है। कमिटी अगेंस्ट असॉल्ट्स ऑन जर्नलिस्टस की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2017 के बाद से यूपी में पत्रकारों के उत्पीड़न के कुल 138 मामले आए हैं। इनमें 48 पत्रकारों पर शारीरिक हमला किया गया, 66 पत्रकारों पर मामला दर्ज किया गया या गिरफ्तार किया गया और 12 पत्रकार मारे गए।

मीडिया काअपराधीकरण

साल 2020 में उत्तर प्रदेश के मेरठ में सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार जाकिर अली त्यागी को दर्जनों पुलिसकर्मियों ने आधी रात को उनके घर से उठा लिया। उन्हें बिना वारंट के कथित गोहत्या मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। यह मामला उत्तर प्रदेश गोहत्या रोकथाम अधिनियम, 1955 के तहत दर्ज किया गया। इसमें 10 साल जेल की सजा का प्रावधान है। जाकिर का कहना था कि उन पर लगे आरोप मनमाने थे। बीते महीने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “मुझे एक मुस्लिम पत्रकार होने और सत्ताधीन भाजपा सरकार की आलोचना करने के लिए निशाना बनाया गया है।”

यह पहली बार नहीं था जब जाकिर को धमकाया गया था। उन्हें 2019 में नागरिकता संशोधन अधिनियम और अन्य अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन में भाग लेने पर उत्पीड़न का सामना करना पड़ा। यूपी पुलिस ने उन्हें 2021 में उत्तर प्रदेश गुंडा नियंत्रण अधिनियम, 1970 के तहत गिरफ्तार किया। इस कानून के अनुसार, किसी व्यक्ति को आतंकवादी माना जाता है और कानून उस व्यक्ति को एक साल तक के लिए हिरासत में रखने की अनुमति भी देता है।

23 वर्षीय जाकिर अली त्यागी ने कहा, “पत्रकारों को सलाखों के पीछे रखने के लिए प्रशासन किसी भी हद तक जा सकता है, यहां तक कि झूठी एफआईआर तक दर्ज की जा सकती है।” जाकिर आगे कहते हैं, “सभी उत्पीड़न के बावजूद, मैं यहां (यूपी में) काम कर रहा हूं, लेकिन हो सकता कि आने वाले नए पत्रकार इसे न चुनें। वे पहले से ही दहशत में जी रहे हैं। यूपी में पत्रकार के तौर पर काम करना बर्फ पर चलने जैसा है, अगर आप पत्रकारिता करेंगे तो आप मारे जाएंगे।”

एक अन्य उदाहरण “पेपर लीक मामला” है। मार्च के अंत में अजीत ओझा, दिग्विजय सिंह और मनोज गुप्ता नाम के तीन पत्रकारों को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में हुए 12वीं कक्षा के परीक्षा पेपर लीक घोटाले का पर्दाफाश करने के बाद गिरफ्तार कर लिया गया।

अजीत ओझा एक स्थानीय माध्यमिक विद्यालय में प्रोफेसर हैं और हिंदी भाषा के दैनिक अमर उजाला के संवाददाता हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि पुलिसकर्मियों ने उन्हें एक अपराधी की तरह पकड़ लिया और एक एफआईआर दर्ज की, जिसमें उन्हें मामले का आरोपी घोषित किया गया। अजीत ओझा ने द वायर को बताया, “मुझे अपने कार्यालय से दोपहर 12 बजे गिरफ्तार किया गया था, लेकिन एफआईआर शाम 4:30 बजे दर्ज की गई थी। गिरफ्तारी की जगह को शहर का चौराहा और समय शाम 6:30 बताया गया। एफआईआर में ये भी कहा कि जब मुझे पकड़ा गया तो मैं भाग रहा था”। उन्होंने आगे कहा “मुझे फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने का डर है।” इसके अगले ही दिन दिग्विजय सिंह और मनोज गुप्ता को जेल में डाल दिया गया। सिंह ने कहा कि उनके खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं थी, लेकिन “कुछ अज्ञात अराजक तत्वों और शिक्षा माफिया” में उन्होंने अपना नाम शामिल पाया। हिरासत में लिए गए पत्रकारों के सहयोगियों ने कई दिनों तक विरोध किया। आखिरकार पुलिस को उन्हें रिहा करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

65 वर्षीय दिग्विजय सिंह ने द वायर से कहा, “योगी सरकार सच्चाई से नफरत करती है। जब पेपर लीक की खबर फैली, तो पत्रकारों को वास्तविक कहानी के कवर-अप के लिए बलि का बकरा बनाया गया। जब उत्तर प्रदेश पुलिस पत्रकारों के खिलाफ सबूत पेश करने में विफल रही तब उन्हें लगभग चार सप्ताह बाद रिहा कर दिया ।

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने पत्रकारों की गिरफ्तारी की निंदा की और कहा, “हाल ही में यह देखा गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार उन मीडियाकर्मियों को धमकाने और गिरफ्तार करने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है जो नीतिगत उपायों पर सरकार की सोच का समर्थन नहीं करते हैं। चापलूस और अति-उत्सुक उत्तर प्रदेश पुलिस और नौकरशाह मीडियाकर्मियों को गिरफ्तार करने में बिल्कुल भी हर्ज नहीं करते ताकि वे सत्ता को खुश कर सकें।

लगातार हो रहा उत्पीड़न 

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार की आलोचना करने वाले और राज्य में हाशिए पर पड़े लोगों की पीड़ा को उजागर करने वाले कई पत्रकारों को लगातार उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत बताते हैं कि कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान, प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में मुसहर समुदाय के बच्चे जीवित रहने के लिए घास खा रहे थे।उन्होंने निराशा से भरी ये तस्वीरें साझा कीं, जो पूरे सोशल मीडिया पर फैली हुई हैं।

एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, “सरकार की ओर से बहुत दबाव था। जैसे ही मेरा लेख प्रकाशित हुआ, दर्जनों पुलिसकर्मी मेरे कार्यालय में आ धमके। वे स्थानीय प्रशासन से नोटिस लाए थे।उनका दावा था कि रिपोर्ट मनगढ़ंत है और बच्चे घास नहीं बल्कि दाल खा रहे हैं।” स्थानीय प्रशासन ने हमारे संगठन को लेख में बदलाव करने के लिए कहा लेकिन मैंने मना कर दिया। उन्होंने ऐसा करने पर मेरे खिलाफ मामला दर्ज करने की धमकी दी। चूंकि मेरे पास एक मंच था इसलिए मैं लड़ता रहा। बाद में जिला मजिस्ट्रेट ने यह साबित करने के लिए एक जांच दल का गठन किया कि घास वास्तव में दाल थी और लेख ने कथित तौर पर “एक तुच्छ मुद्दे को सनसनीखेज बना दिया है।”

इन सबके बावजूद विनीत विजय अपनी बात पर अड़े रहे। फिर उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कृषि विभाग के कई विशेषज्ञों का साक्षात्कार लिया और घास के पोषण मूल्य और इसे खाने से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों बताते हुए एक लेख प्रकाशित किया। विजय उस समय एक स्थानीय हिंदी समाचार पत्र जनसंदेश टाइम्स के संपादक के रूप में काम कर रहे थे। वे अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक आरोपों और हमलों के बारे में बोलने के लिए पत्रकार संगठनों के पास पहुँचे। 

विजय कहते हैं,“कई बार हम अत्यधिक दबाव की वजह से सुन्न हो जाते हैं। यहां (यूपी में) स्थिति अघोषित आपातकाल जैसी है।” जनवरी 2021 में, विजय को नौकरी से इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा और कई महीनों तक उन्हें दूसरी नौकरी नहीं मिली। इसे लेकर उन्होंने कहा, “राज्य में मुख्यधारा का कोई भी मीडिया संस्थान मुझे नौकरी देने के लिए तैयार नहीं था क्योंकि मैंने सच लिखा था।” 

एक अन्य उदाहरण, 4PM समाचार पत्र के प्रधान संपादक और सह-संस्थापक संजय शर्मा का है। 4PM यूपी की राजधानी लखनऊ में स्थित एकमात्र स्वतंत्र दैनिक मीडिया है। अखबार राज्य सरकार की तीखी आलोचना के लिए जाना जाता है। संजय शर्मा ने मीडिया के खिलाफ बढ़ते दबाव की ओर इशारा किया। अखबार हमेशा  से ही सत्तारूढ़ सरकार की ओर आलोचनात्मक दृष्टिकोण पेश करता रहा है। वे कहते हैं कि पिछली सपा सरकार ने कभी काम में हस्तक्षेप नहीं किया।

राज्य में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से पत्रकारों को डराने-धमकाने की घटनाएं बढ़ गई हैं। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स और कई अन्य अधिकार समूहों का कहना है,”अधिकारी कार्रवाई करने की धमकी देकर पत्रकारों को निशाना बना रहे हैं। इतना ही नहीं, भारत सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को कई हिंदू राष्ट्रवादी ऑनलाइन और ऑफलाइन, दोनों तरह से धमका रहे हैं। वे उन्हें परेशान कर रहे हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार  कर रहे हैं।”

संजय शर्मा कहते हैं, “भाजपा सरकार बनने के तीन महीनों के भीतर मेरे कार्यालय में तोड़फोड़ की गई। मुझे एक अधिकारी का फोन आया कि अगर अखबार के लिए सालभर सरकारी विज्ञापन पाने हैं तो सरकार विरोधी सामग्री को सेंसर करें। मैंने इनकार किया तो मेरे खिलाफ आर्थिक अपराध शाखा ने जांच की। उन्होंने मेरे परिवार के बैंक खातों की जांच की और कई बार कार्यालय पर छापा मारा।”

उत्पीड़न के बावजूद संजय शर्मा ने उन आलोचनात्मक कहानियों पर काम करना जारी रखा जो उनका अखबार प्रकाशित करता है। उन्होंने कहा, “मुझे अक्सर जान से मारने की धमकी मिलती है क्योंकि मैं सत्ता विरोधी खबरें लिखता हूं।”राज्य में चुनाव के दौरान उनके यूट्यूब चैनल 4PM न्यूज नेटवर्क को रातों-रात हटा दिया गया। यूट्यूब को कई ईमेल लिखने के बाद उन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसके बाद चैनल को तीन दिनों के बाद फिर से शुरू किया गया था। कमिटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्टस, रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स, एमनेस्टी इंटरनेशनल, ह्यूमन राइट्स वॉच सहित कई अधिकार समूहों ने पत्रकारों को उनके काम के लिए लगातार उत्पीड़न का सामना करने की निष्पक्ष जांच के लिए कहा है। संजय कहते हैं, “उत्तर प्रदेश के नौकरशाहों ने राज्य को आतंकित किया है।”

खत्म हुई लोकतांत्रिक स्वतंत्रता

मार्च 2017 में राज्य में भाजपा की जीत के बाद मुख्यमंत्री योगी ने एक भाषण में सभी अपराधियों को उत्तर प्रदेश छोड़ने के लिए कहा था। इस भाषण के जवाब में जाकिर ने योगी के आपराधिक रिकॉर्ड का मजाक उड़ाते हुए फेसबुक पर पोस्ट किया। उन्होंने लिखा, “योगी ने (एक भाषण में) गोरखपुर में कहा कि सभी अपराधी यूपी छोड़ दें। मेरे पास योगी को उनके खिलाफ दर्ज कुल 28 मामलों की याद दिलाने का दुस्साहस नहीं है, जिनमें से 22 गंभीर प्रकृति के हैं।

इसी अवधि के दौरान, उत्तराखंड सरकार ने गंगा और यमुना नदियों को “जीवित संस्थाओं” के रूप में मान्यता दी और उन्हें मानव समान कानूनी दर्जा दिया। हालांकि बाद में इस फैसले पर रोक लगा दी गई। खबर फैलने के बाद जाकिर ने फेसबुक पर एक स्टेटस पोस्ट किया, जिसमें लिखा था, “गंगा को एक जीवित इकाई घोषित कर दिया गया है, क्या इसमें किसी के डूबने पर भी आपराधिक मुकदमे लगाए जाएंगे?” इसके कुछ दिनों के बाद उन्हें पुलिसकर्मियों ने उनके घर से जबरदस्ती उठा लिया और दोनों फेसबुक पोस्ट के लिए उसके खिलाफ सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और राजद्रोह कानून के तहत मुकदमा चलाया गया।

सूचना प्रौद्योगिकी नियम भी एक तरीका है जिसका उपयोग सरकार प्रेस को दबाने के लिए करती है। उन्हें साल 2021 में अप्रत्यक्ष रूप से डिजिटल समाचार मीडिया को विनियमित करने के लिए पेश किया गया था। जाकिर पर लगे आरोपों  के आधार पर उन्हें तीन साल की जेल हो सकती थी, लेकिन 42 दिन जेल में बिताने के बाद वे जमानत पर बाहर आ गये। जाकिर ने एक साक्षात्कार में कहा, “जेल से लौटने के बाद से मैंने और अधिक मुखर होने की कोशिश की है, यही वजह है कि प्रशासन ने कई बार अवैध रूप से मेरे घर की तलाशी ली और मेरा लैपटॉप भी जब्त कर लिया।”

एक अन्य मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस ने पत्रकार प्रशांत कनौजिया को दो साल में दो बार सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के लिए गिरफ्तार किया है। ये पोस्ट कथित तौर पर “सांप्रदायिक सद्भाव” को बाधित करते थे। इन गिरफ्तारियों ने सामूहिक रूप से नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर गंभीरता से सवाल उठाया है। जानकारों और पत्रकारों द्वारा कई विरोध प्रदर्शनों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कनौजिया को यह कहते हुए जमानत दिया कि “एक नागरिक के स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन किया गया है।” 

सुप्रीम कोर्ट पत्रकारों की रक्षा करती रही है लेकिन यह भी खतरे में है। नौ वर्षों से सत्ता में रहने वाली भाजपा सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के कई तबादले किए। न्यायिक मामलों को “राजनीतिक रूप से पक्षपाती” पीठों को आवंटित किया और सरकार की नीतियों का समर्थन करने वाले कई अधिकारियों को निर्णायक पदों पर रखा। भले ही सुप्रीम कोर्ट स्वतंत्र रूप से काम करता हुआ प्रतीत होता है, लेकिन जिस राजनीतिक प्रभाव के तहत वह संचालित होता है, उसे बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले के फैसले, जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने, पूर्वोत्तर राज्य असम में एनआरसी के कार्यान्वयन सहित फैसलों में देखा जा चुका है।

उत्तर प्रदेश स्थित एक अधिकार समूह, रिहाई मंच के महासचिव राजीव यादव बताते हैं, “यूपी में पत्रकारों पर पहले भी हमले हुए थे, लेकिन आज ऐसी मानसिकता बन गई है कि भाजपा सरकार का विरोध करने का मतलब देश का विरोध करना और  उस व्यक्ति को आतंकवादी माना जाएगा।

पत्रकारिता के लिए मारे गए पत्रकार

कुछ पत्रकारों पर दुश्मनी के भाव से कार्रवाई की गई, जिससे उनकी मौत हुई। कमिटी टु प्रोटेक्ट जर्नलिस्टस के अनुसार, पत्रकारों के खिलाफ हत्या के 20 मामले अभी भी अनसुलझे हैं। इसकी वजह से भारत को ऑर्गनाइजेशन ग्लोबल इम्प्यूनिटी इंडेक्स में 12वें स्थान पर रखा गया है।

साल 2020 में 25 वर्षीय पत्रकार शुभम मणि त्रिपाठी की उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में अवैध रेत खनन का पर्दाफाश करने के बाद दिनदहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। कम्पू मेल अखबार के लिए काम करने वाले पत्रकार ने ‘रेत माफियाओं’ पर आरोप लगाया था कि उनका लेख प्रकाशित होने के बाद से माफियाओं जिलाधिकारी के पास उनके खिलाफ फर्जी मामला दर्ज किया था।

राज्य के अधिकारियों को कई ईमेल भेजने और पुलिसकर्मियों को जान से मारने की धमकियों की सूचना देने के बावजूद, कोई त्वरित कार्रवाई नहीं की गई, जिसके बाद उनकी हत्या कर दी गई। यूनेस्को के महानिदेशक ऑड्रे अज़ोले ने त्रिपाठी की हत्या की निंदा करते हुए कहा था, “मैं अधिकारियों से इस अपराध के अपराधियों को न्याय दिलाने का आह्वान करता हूं, जो अन्य अपराधियों को बंदूक की नोक पर सेंसरशिप का अभ्यास करने से रोकने के लिए आवश्यक है।”

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर ने भी मामले की जांच करने के लिए एक बयान जारी किया। जिसमें कहा, “उत्तर भारत (यूपी) के इस क्षेत्र में, रेत माफिया मालिकों और स्थानीय पुलिस प्रमुखों के बीच संबंधों का मतलब है कि जब पत्रकारों की हत्या के बाद पुलिस जांच लगभग हमेशा आगे की कार्रवाई के बिना बंद कर दी जाती है। पत्रकारों की सुरक्षा की गारंटी देने वाले कानून के माध्यम से अपराध कर सजा न पाने वाले प्रणाली के दुष्चक्र को तोड़ा जाना चाहिए।”

एक साल बाद एक 42 वर्षीय पत्रकार सुलभ श्रीवास्तव को उत्तर प्रदेश में स्थानीय शराब माफिया पर एक लेख को कवर करने के बाद पीटा गया और रहस्यमय तरीके से मृत पाया गया। वे प्रतिष्ठित समाचार चैनल एबीपी न्यूज़ के लिए काम करते थे। श्रीवास्तव ने कथित तौर पर अपनी मौत से एक दिन पहले माफियाओं से जान का खतरा महसूस करने के बाद पुलिस को एक पत्र लिखा था और सुरक्षा का अनुरोध किया था। हालांकि पुलिस ने पहले मौत की वजह मोटरसाइकिल दुर्घटना को बताया, लेकिन बाद में अधिकारियों ने मौत की आपराधिक जांच शुरू की। कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स एशिया प्रोग्राम कोऑर्डिनेटर स्टीवन बटलर ने अपने बयान में कहा, “उत्तर प्रदेश सरकार को यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि पत्रकारों के लिए सभी खतरों की पूरी तरह से जांच की जाए और पत्रकारों द्वारा रिपोर्टिंग उनकी खुद की मौत की वजह न बन जाए।”

कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट के अनुसार, पिछले 10 वर्षों में दुनिया भर में पत्रकारों के हत्यारों में से 81 प्रतिशत को सजा नहीं मिली है। कमिटी फॉर प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट ने 1992 से 2022 की अवधि के बीच भारत में 89 पत्रकारों और मीडिया कर्मियों की हत्याओं को सूची दी है। इसमें ज्यादातर हत्या महत्वपूर्ण समाचार रिपोर्ट को कवर करने के कारण की गई है। भारत का स्वतंत्र प्रेस मुखर और सक्रिय होने के लिए जाना जाता है। भारतीय मीडिया ने पहले भी कई तनावपूर्ण परिस्थितियों में काम किया है, खासकर 1970 के दशक के मध्य में ऐतिहासिक आपातकाल के दौरान, जबकि वर्तमान संकट अभूतपूर्व है। 

विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि आगामी भाजपा के फिर से चुनाव की अवधि पहले से ही भयावह स्थिति को बढ़ा सकती है। विजय विनीत समेत कई पत्रकार चिंतित हैं। उन्होंने कहा, “मैं आने वाले वर्षों में सरकार के निशाने पर हूं। यूपी में स्थिति समय के साथ और खराब हो सकती है.”

अनुवादविष्णु प्रकाश पांडेय