चौधरी चरण सिंह – असली भारत की सबसे बुलंद आवाज

 

भारत के महान नायक पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की आज पुण्यतिथि है। उनके जन्मदिवस 23 दिसंबर को हर साल किसान दिवस के रूप में किसान भी मनाते हैं और सरकार भी।
यह सिलसिला 1978 में चौधरी साहब के जन्म दिन पर बोट क्लब पर हुए किसानों के विशाल जमावड़े से आरंभ हुआ। उस दिन को भारत के किसान जागरण के इतिहास में काफी अहम माना जाता है। वैसे तो किसानों के हक में कई नेताओं ने कई अहम फैसले किए लेकिन चौधरी साहब इन सबसे अलग रहे क्योंकि जीवन भर किसानों का कल्याण उनके एजेंडे में रहा। ग्रामीण भारत के कायाकल्प में उनकी ओर से की गयी कोशिशें आज के भारत को खड़ा करने में काफी अहम और कारगर रही हैं।

चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर, 1902 को गाजियाबाद के नूरपुर गांव में एक छोटे शील किसान परिवार में हुआ। यह गांव आज के हापुड़ जिला मुख्यालय के पास बाबूगढ़ छावनी के समीप है। जब उनकी उम्र महज छह साल की थी तो पिता चौधरी मीर सिंह मेरठ के पास जानीखुर्द गांव में बस गए। वहीं बालक चरण सिंह ने प्राइमरी की पढ़ाई की। फिर मेरठ जाकर हाईस्कूल की परीक्षा दी। इस बीच पिता अपने चार भाइयों के साथ हापुड़ के पास भदौला गांव में आ बसे। चौधरी साहब का परिवार क्रांतिकारी पृष्ठभूमि का था और उनके पितामह बादाम सिंह 1857 की क्रांति के महान नायक बल्लभगढ़ के राजा नाहर सिंह के काफी करीबी सहयोगी थे। जब बल्लभगढ़ अंग्रेजों के कब्जे में आ गया तो उनका परिवार पहले बुलंदशहर, फिर नूरपुर गांव पहुंचा था। काफी कष्टों में जीवन बिताया।

चौधरी साहब मेरठ में स्कूली शिक्षा हासिल करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए आगरा कालेज, आगरा गए और 1923 में स्नातक बनने के बाद 1925 में इतिहास में एमए किया और उसी साल विवाह बंधन में भी बंध गए। 1927 में मेरठ कालेज से कानून की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की 1928 में गाजियाबाद में वकालत शुरू कर दी। उनकी वकालत चल निकली। लेकिन उस दौरान वे आजादी के आंदोलन में कूद गए और राजनीतिक और सामाजिक जीवन में ऐसी व्यस्तता बढ़ी कि वकालत छोड़ने का फैसला कर लिया। 1929 में ही कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में हुए पूर्ण स्वराज्य के उद्घोष से प्रभावित युवा चरण सिंह ने गाजियाबाद में कांग्रेस कमेटी का गठन किया। 1930 में महात्मा गाँधी के आह्वान पर हिंडन नदी पर नमक बना कर कानून तोड़ा और छह माह की सजा हुई। 1940 के व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी वे गिरफ्तार हुए तो अक्तूबर 1941 में मुक्त हो सके। 1942 में चरण सिंह ने भूमिगत रह कर गाजियाहाद, मेरठ, सरधना और बुलंदशहर के गांवों में गुप्त क्रांतिकारी संगठन तैयार किया। उनके नाम का अंग्रेजों में इतना आतंक हो गया था कि मेरठ प्रशासन ने उनको देखते ही गोली मारने का आदेश दे रखा था।

तीस के दशक में उनका राजनीतिक जीवन मेरठ जिला परिषद की सदस्यता से आरंभ हुआ। 1937 में वे विधान सभा के सदस्य बने और उसके बाद पीछे मुड़ कर नहीं देखा। विधायक बनने के बाद से चौधरी साहब के एजेंडे पर किसानों का कल्याण रहा। किसानों के हित में उन्होंने लगातार काम किया। 1939 में ऋण निर्मोचन विधेयक पास करा कर चौधरी साहब ने लाखों गरीब किसानों को कर्जे से मुक्ति दिलायी। इसी साल निजी सदस्यों के संकल्प के तहत उन्होंने कृषि उत्पादन मंडी विधेयक पेश किया, जिसमें किसानों को बिचौलियों के मुक्त करा कर वाजिब दाम दिलाने का प्रावधान था। इसी मसले पर उन्होंने 31 मार्च और 1 अप्रैल, 1932 को हिंदुस्तान टाइम्स में एग्रीकल्चर मार्केटिंग पर अनूठा लेख लिखा, जिसकी देश भर में चर्चा हुई। उनके सुझावों को कई सरकारों ने क्रियान्वित किया। इसमें पहला राज्य पंजाब था उत्तर प्रदेश सरकार ने भी इसे स्वीकारा लेकिन देर से। अपने राजनीति के आरंभ से ही चौधरी साहब सरदार वल्लभ भाई पटेल और गोविदं वल्लभ पंत के काफी प्रिय रहे।

यह श्रेय चौधरी साहब को ही जाता है कि उन्होंने देश में सबसे बेहतरीन जमींदारी उन्मूलन कानून पारित कराया। 1952 में भूमि सुधार और जमींदारी उन्मूलन कानून पारित होने के बाद चकबंदी कानून और 1954 में भूमि संरक्षण कानून बनवाया जिससे वैज्ञानिक खेती और भूमि संरक्षण को मदद मिली। चौधरी साहब की कई मसलों पर अलग सोच थी और वे अपने विचारों के प्रति अडिग रहे। वे जातिवाद के कट्टर विरोधी थे और उनके प्रयासों का असर था कि 1948 में उत्तर प्रदेश में राजस्व विभाग ने सरकारी कागजों में जोत मालिकों की जाति नहीं लिखने का फैसला लिया। उन्होंने गोविंद बल्लभ पंत को पत्र लिख 1948 में मांग की थी कि अगर शैक्षिक संस्थाओं के नाम से जातिसूचक शब्द नहीं हटाए जाते तो उऩका अनुदान बंद कर दिया जाये। हालांकि यह मसला टलता रहा लेकिन जब वे 1967 में खुद मुख्यमंत्री बने सरकारी अनुदान लेने वाली शिक्षा और सामाजिक संस्थाओं को अपने नामों के आगे से जातिसूचक शब्द हटाने पड़े। इसकी चपेट में सबसे अधिक जाटों और राजपूतों की संस्थाएं आयीं, फिर भी उन्होंने ऐसा किया।

चौधरी साहब का पूरा जीवन पारदर्शी रहा और उनके व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन में कोई अंतर नही था। वे जिस पद पर वे रहे एक मानक स्थापित किया। वे साहसी इस कदर थे उस दौर में पंडित जवाहर लाल नेहरू का विरोध किया जब उनकी तूती बोलती थी। चौधरी साहब सहकारी खेती के रूसी माडल के सख्त खिलाफ थे। 1959 में नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में चौधरी साहब ने उनके सहकारी खेती के प्रस्ताव का खुला विरोध कर भारत के संदर्भ में इसे एकदम अव्यावहारिक करार दिया। हालांकि यह प्रस्ताव पास हो गया था लेकिन पंडित नेहरू ने समझ लिया कि इसे आगे बढ़ाना नए विवादों का जन्म देना होगा, लिहाजा आगे उन्होंने इसमें रुचि नहीं ली।

राष्ट्रीय नेता तो चौधरी साहब उत्तर प्रदेश में ही बन गए थे लेकिन केंद्रीय राजनीति में वे पहली बार 1977 में आए। जनता पार्टी को बनाने में उनका ही आधार और किसान शक्ति सबसे अधिक काम आयी। जनता पार्टी के नेताओं, जिसमें आज की भाजपा और तबका जनसंघ भी शामिल था उसने चौधरी चरण सिंह की पार्टी के चुनाव चिह्न पर ही लोकसभा चुनाव लड़ा था। लेकिन बड़े आधार के बावजूद चौधरी साहब की जगह मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। चौधरी साहब इस सरकार में केंद्रीय गृह मंत्री बने। लेकिन उनकी मोरारजी से नहीं पटी क्योंकि उनका किसान एजेंडा मोरारजी को नापसंद था। फिर भी चौधरी साहब के कारण जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में कृषि को सबसे अधिक प्राथमिकता और किसानों को उपज के वाजिब दाम का भी वायदा किया गया। गांव के लोहार और बुनकर से लेकर कुम्हारों औऱ अन्य कारीगरों को उत्थान का खाका भी बुना गया। 1979 में वित्त मंत्री और उप प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना करायी और किसानों के हित में कई कदम उठाए। कृषि जिंसों की अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी रोक हटा दी। वे प्रधानमंत्री बने तो ग्रामीण पुनरूत्थान मंत्रालय की स्थापना भी की।

चौधरी चरण सिंह ने खुद अपना मतदाता वर्ग खुद तैयार किया। उत्तर भारत में किसान जागरण किया और उनको अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना सिखाया। किसानों के चंदे से ही उनकी राजनीति चलती थी। बैल से खेती करने वाले किसान के लिए चंदे की दर एक रुपया और ट्रैक्टर वाले किसान से 11 रुपए उऩ्होंने तय की थी। कभी बड़े उद्योगपतियों से पैसा नहीं लेने का उनका संक्ल्प था और उन्होंने दिशानिर्देश बना रखा था कि अगर यह साबित हुआ कि उनके किसी सांसद-विधायक ने पूंजीपतियों से चंदा लिया है तो उसे दल छोड़ना पड़ेगा। वे जीवन भर ईमानदारी और सादगी से रहे। मंत्री रहे तो बच्चे पैदल या साइकिल से स्कूल जाते थे।

चौधरी चरण सिंह समाज सुधारक, अर्थशास्त्री, यथार्थवादी दृष्टा और विचारक होने के साथ स्वाधीनता सेनानी थे। व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों के धनी चौधरी साहब की कथनी और करनी में भेद नही था। उन्होंने गांधीजी के ग्राम स्वराज्य के स्वप्न को मूर्तरूप देने के लिए रोजी-रोटी, कपड़ा, शिक्षा और मकान के साथ स्वास्थ्य जैसी जरूरतों को हमेशा प्रमुखता दी। गांव और गरीब के भूगोल को बखूबी जानने के नाते वे आजीवन उसके प्रवक्ता बने रहे और उनके उत्थान के लिए जीवन भर लड़ते रहे।

अगर बारीकी से देखें तो पता चलता है कि उनकी सर्वोच्च सत्ताओं की उम्र बहुत कम रही है। पहली बार वे मुख्यमंत्री बने तो महज 11 महीने की सत्ता थी, जबकि दूसरी बार आठ महीने की। प्रधानमंत्री के रूप में उनको केवल 170 दिन मिले। फिर भी इन सीमित समयों में भी उन्होंने यथासंभव बेहतर काम करने की कोशिश की। चौधरी साहब ने हमेशा धारा के खिलाफ एक अनूठी और जनहितैषी राजनीति की। खास तौर पर ग्रामीण भारत पर जो ठोस और मौलिक सोच दी, इस नाते वे कभी भी राजनीतिक धारा से अप्रासंगिक नहीं हो सके।

चौधरी साहब के भीतर गांव और किसान हमेशा बसा रहा। वे कहते थे कि मेरे संस्कार उस गरीब किसान के संस्कार हैं, जो धूल, कीचड़ और छप्परनुमा झोपड़ी में रहता है। वे हमेशा इस बात को सगर्व कहते थे कि उनका संबंध एक छोटे किसान परिवार से है। चौधरी साहब कई पुस्तकों के लेखक हैं जिनको पढ़े बिना ग्रामीण भारत को समझा नहीं जा सकता। किसान जागरण के लिए ही उन्होंने 13 अक्तूबर 1979 से असली भारत साप्ताहिक अखबार शुरू किया था। कई बार उनसे मिलने गांवों के लोग आते तो वे उनसे कहते थे कि किराये पर इतना पैसा खर्च करने की जगह यही बात एक पोस्टकार्ड पर लिख देते तो तुम्हारा काम हो जाता। आज जो जागृत किसान खड़ा है, उसका आधार चौधरी चरण चरण सिंह ने ही तैयार किया था।