गुलाबी सुंडी के कारण आत्महत्या के कगार पर पहुंचे किसान, बीटी कपास को भी भारी नुकसान!
राजस्थान में श्री गंगानगर जिले के 23 एमएल गांव के 40 वर्षीय शमशेर सिंह की दिनचर्या 25 सितंबर 2023 को आम दिनों की तरह ही थी। उन्होंने दोपहर 3.30 बजे सब्जी रोटी खाई, फिर एक झपकी ली। उसके बाद उठकर चाय पी। इस वक्त तक उनकी पत्नी जसविंदर कौर, उनके 17 वर्षीय बेटा जसविंदर और 11 व 14 साल की बेटियों जसप्रीत और पुष्पा कौर ने उनके व्यवहार में कोई बदलाव नहीं देखा। शमशेर शाम करीब साढ़े चार बजे अपनी मोटरसाइकिल से खेत के लिए निकले और ट्यूबवेल की कोठरी में जाकर फांसी लगा ली। उनके बेटे जसविंदर ने बताया, “शुरुआत में हमने सोचा कि वह अपने किसी दोस्त से मिलने या खेत पर गए हैं। लेकिन वह हमेशा की तरह शाम 5.30 से छह बजे तक घर नहीं पहुंचे तो हमें चिंता होने लगी।” जसविंदर ने अपने पिता को फोन करना शुरू किया, लेकिन जब कोई जवाब नहीं मिला तो अपने पड़ोसियों से मोटरसाइकिल मांगकर खेत पर पहुंचे। वहां उनके पिता का निर्जीव शरीर पंपसेट की रस्सी के सहारे लटक रहा था। शमशेर का परिवार कर्ज में डूबा था। इलाके के लोगों के मुताबिक, उनकी मौत करीब एक दशक से अधिक समय में जिले में किसान आत्महत्या की पहली घटना है।
उनके बड़े भाई बलविंदर सिंह ने बताया कि शमशेर की समस्याएं तब शुरू हुईं जब 15 सितंबर, 2023 को भारी बारिश के कारण उनके 16.24 एकड़ कपास के खेत बाढ़ में डूब गए। इससे उनकी जिंदगी में उथल-पुथल मच गई। आधी खेती पट्टे की जमीन पर थी और बाकी उनकी अपनी थी। बलविंदर कहते हैं कि बाढ़ के बाद शमशेर चिंतित लग रहे थे। लेकिन उन्हें फिर भी कुछ उम्मीद थी। जसविंदर के अनुसार, 24 सितंबर को उनके पिता ने खेतों को गुलाबी सुंडी से बुरी तरह प्रभावित देखा तो उन्हें एहसास हो गया कि फसल पूरी तरह बर्बाद हो गई है और इससे जो नुकसान हुआ है, उससे पिछले तीन वर्षों से लगातार बढ़ रहे कर्ज में इजाफा ही होगा। गुलाबी सुंडी के संक्रमण के चलते जसविंदर ने 2021 में भी नुकसान उठाया था। 2022 में कपास के खेतों पर सफेद मक्खी (वाइट फ्लाई) के हमलों के चलते एक बार फिर फसल खराब हो गई। दुर्भाग्य से 2023 में एक बार फिर गुलाबी सुंडी के कारण उनकी फसल एक बार फिर बर्बाद हो गई। शमशेर की पत्नी जसविंदर कौर का कहना है कि तीन साल में उन पर करीब आठ लाख रुपए का कर्ज हो गया था। वह कहती हैं, “हम पर किराना दुकानदार, साहूकार, बैंक और कई अन्य लोगों का पैसा बकाया है।”
ग्रामीण किसान मजदूर समिति के जिला अध्यक्ष हरजिंदर मान ने बताया कि चिंता की बात यह है कि इलाके के कई अन्य किसान भी इसी तरह के संकट में हैं, लेकिन इस क्षेत्र में कर्ज के कारण शायद ही कोई आत्महत्या होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यहां के किसान परंपरागत रूप से घाटे का सामना करने और कुछ वर्षों के भीतर उससे उबरने में सक्षम हैं, लेकिन बार-बार होने वाले नुकसान ने पूरी कहानी बदल दी है।
गुलाबी सुंडी का प्रकोप
हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में किसानों को इस साल गुलाबी सुड़ी की वजह से भारी नुकसान झेलना पड़ा है। सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च (सीआईसीआर) के निदेशक वाईजी प्रसाद के मुताबिक, हरियाणा और पंजाब में यह नुकसान करीब 65 फीसदी होने का अनुमान है, जबकि राजस्थान में स्थिति और भी ज्यादा खराब है। राजस्थान सरकार का दावा है कि नुकसान 90 फीसदी तक हो सकता है और 8 अक्टूबर 2023 को राहत कोष के रूप में 1,125 करोड़ रुपए देने की घोषणा की गई है।
जिन किसानों से डाउन टू अर्थ ने बात की और उनके खेतों का दौरा भी किया तो उन्होंने बताया कि कम से कम 90 फीसदी नुकसान हुआ है। हालात यह हैं कि कई किसानों ने तो खराब पैदावार के कारण कपास की पहली कटाई भी नहीं की। ऐसे में गंभीर संक्रमण के चलते किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। उन पर कर्ज का बोझ कहीं ज्यादा बढ़ गया है। पंजाब में मौजागढ़ के एक अन्य किसान अश्विनी कुमार का कहना है कि वह बहुत दुखी और निराश महसूस कर रहे हैं। उन्होंने बताया, “मैंने स्थानीय पंचायत से 50,000 रुपए प्रति एकड़ पर आठ एकड़ जमीन पट्टे पर ली थी। इस पूरी जमीन पर कपास बोया था लेकिन अब सब खत्म हो गया।”
अश्विनी ने बताया कि यह लगातार दूसरा साल है जब उन्हें भारी नुकसान झेलना पड़ा है। उनके पास अब दूसरी फसल बोने के लिए भी पैसा नहीं बचा है। उन्हें उपज बेचकर 80,000 रुपए कमाने की उम्मीद थी, लेकिन अब उन पर छह लाख रुपए का कर्ज हो गया है। राजस्थान के हनुमानगढ़ में ग्रामीण किसान मजदूर समिति (जीकेएस) के ब्लॉक अध्यक्ष गगनदीप सिद्धू के अनुसार, क्षेत्र के किसान 2017 से लगातार गुलाबी सुंडी और सफेद मक्खी के संक्रमण से होने वाले नुकसान से जूझ रहे हैं। सिद्धू का कहना है कि लगातार होते नुकसान ने किसानों को आर्थिक और मानसिक रूप से तोड़ दिया है।
प्रतिरोध का विकास
गुलाबी सुंडी के हमलों के चलते 2000 के दशक से भारतीय किसानों को अपनी कपास की फसल से लगातार नुकसान झेलना पड़ रहा है। इस साल का हमला सबसे भीषण है। वैज्ञानिकों को पता चला है कि इस कीट ने आनुवांशिक रूप से संशोधित बीटी कपास के प्रति भी प्रतिरोध विकसित कर लिया है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) में कीट विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख और कीट विज्ञानी गोविंद गुजर कहते हैं कि 1996 में अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में सफलता के बाद बीटी कपास को 2002 में भारत में पेश किया गया था।
इससे पहले अमेरिकन बॉलवर्म (अमेरिकी सुंडी) कपास के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुका था, क्योंकि इसने कीटनाशक सिंथेटिक पाइरेथ्रोइड्स, ऑर्गेनोफॉस्फोरस और कार्बामेट्स के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लिया था। इसकी वजह से 1985 से 2002 के बीच भारत के सभी 11 कपास उत्पादक राज्यों में किसानों को भारी नुकसान भी झेलना पड़ा था। डाउन टू अर्थ से बात करते हुए गुजर ने बताया, “बीटी कपास या बोल्गार्ड-I को बॉलवर्म की सभी तीनों प्रजातियों (अमेरिकी, चित्तीदार और गुलाबी सुंडियों) से बचाने के लिए पेश किया गया था। इसके लिए इसमें क्राय1एसी टॉक्सिन को भी शामिल किया गया है।” उन्होंने आगे बताया कि 2005 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने यह देखना शुरू किया कि क्या यह कीट बीटी कपास के प्रति प्रतिरोध विकसित कर रहे हैं।
विशेषज्ञ का कहना है कि 2008 में हमारी टीम को पहली बार गुजरात के अमरेली में गुलाबी सुंडी के असामान्य व्यवहार का पता चला। यह कीट बीटी कपास को खाने के बाद भी जीवित था। इसका मतलब था कि इसने बीटी कपास के प्रति भी प्रतिरोध विकसित कर लिया था। 2009-10 में वैज्ञानिक अध्ययन ने भी इस बात की पुष्टि की थी कि गुलाबी सुंडी ने गुजरात के चार जिलों में क्राय1एसी जीन के खिलाफ भी प्रतिरोध विकसित कर लिया था।
नागपुर स्थित सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च (सीआईसीआर) के निदेशक वाईजी प्रसाद का कहना है कि 2014 में वैज्ञानिकों ने पाया कि गुलाबी सुंडी ने क्राय2एबी जीन के प्रति भी प्रतिरोध विकसित कर लिया था। प्रसाद के अनुसार, एक साल बाद गुजरात ने पहली बार गुलाबी सुंडी के प्रकोप की सूचना दी, जबकि पंजाब से वाइट फ्लाई के प्रकोप के खबरें सामने आई थीं। उनके मुताबिक, उस समय तक गुलाबी सुंडी उत्तरी क्षेत्रों तक नहीं पहुंची थी। उन्होंने आगे बताया कि 2017-18 में महाराष्ट्र और दक्षिणी राज्यों में बड़े पैमाने पर गुलाबी सुंडी के संक्रमण की सूचना मिली। 2018-19 में सिरसा के केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान के क्षेत्रीय स्टेशन से कीट के बोलार्ड-II के प्रति प्रतिरोधी होने की जानकारी मिली। उसके बाद 2021-22 में पंजाब और हरियाणा में गुलाबी सुंडी का प्रकोप दर्ज किया गया।
2023 तक बीटी कपास के प्रति प्रतिरोधी यह गुलाबी सुंडी उत्तरी राजस्थान के कुछ जिलों सहित उत्तरी क्षेत्रों में भी फैल गई। पंजाब में मलोट के छापियांवाली गांव के किसान शीशपाल के मुताबिक, उन्हें 2021 से गुलाबी सुंडी की समस्या के बारे में पता है। उनके कहना है कि यह अमेरिकन सुंडी से भी ज्यादा खतरनाक है। अमेरिकन सुंडी फसलों को बाहर से खाती है, जबकि गुलाबी सुंडी फसलों पर बीज के अंदर से हमला करती है। उनका कहना है कि शुरुआत में इसका पता लगाना मुश्किल है और हमें नुकसान तभी दिखता है जब कटाई का समय होता है। चूंकि यह बीज को अंदर से खाता है, इसलिए कोई भी कीटनाशक इन्हें नियंत्रित करने में मदद नहीं करता।
विकल्पों की तलाश
डाउन टू अर्थ द्वारा पंजाब और हरियाणा में इसकी जमीनी हकीकत को समझने के लिए की गई पड़ताल से पता चला है कि नुकसान के चलते कई किसान कपास के विकल्प के रूप में बागवानी और धान की फसलों की ओर रुख कर रहे हैं। हरियाणा में सिरसा के खारिया गांव में किसान राजेश नैन डेढ़ एकड़ जमीन पर धान की खेती शुरू की है। उनका कहना है, “मैंने करीब 20 एकड़ में कपास लगाया था, लेकिन उसका 90 फीसदी हिस्सा गुलाबी सुंडी की भेंट चढ़ गया। धान को कपास से ज्यादा पानी की जरूरत होती है जिससे भूजल पर दबाव बढ़ सकता है, लेकिन अगर सफल रहा तो मैं पूरी तरह से धान की खेती शुरू कर दूंगा।” उसी गांव के एक दूसरे किसान नवीन सुरेंद्र कुमार ने समझाया कि धान की खेती में कम मेहनत लगती है और संक्रमण का खतरा भी कम रहता है। उनके मुताबिक कपास का एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) अधिक है, वहीं धान की कीमत करीब 3,200 रुपए प्रति क्विंटल है। उनके मुताबिक बाजार में कम कीमत के बावजूद धान के लिए कीटनाशकों और मजदूरी के रूप में लगने वाली लागत बहुत कम होती है, जिससे वो फायदे का सौदा बन जाता है।
पंजाब में मौजागढ़ के किसान रणवीर कुमार ने अपने 20 एकड़ के कपास के खेत को संतरे के बगीचे में बदल दिया है। गुलाबी सुंडी और सफेद मक्खी के आक्रमण के चलते 2021 में उनकी कपास की फसल को अच्छा खासा नुकसान हुआ था। 32 वर्षीय इस किसान के मुताबिक संतरे का बाग कम रखरखाव वाला है। इसलिए, इस फसल में निवेश करना अधिक भरोसेमंद लगता है, जबकि कपास में जोखिम बहुत है। पंजाब के पारंपरिक कपास क्षेत्र में किसान तेजी से बागवानी या धान की ओर रुख कर रहे हैं। राज्य कृषि विभाग के अनुसार, 2014-15 कपास की खेती का कुल क्षेत्रफल 4.21 लाख हेक्टेयर था जो 2022-23 में घटकर 2.49 लाख हेक्टेयर रह गया है। इसका कपास उत्पादन पर भी असर पड़ा है। इस दौरान कपास उत्पादन 1,347 से आधा होकर 444 गांठ ही रह गया है। वहीं दूसरी तरफ इस दौरान धान की खेती 28.95 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 31.68 लाख हेक्टेयर में फैल गई है।
बठिंडा के तेओना पुजारियन गांव के 72 वर्षीय किसान राजविंदर सिंह ने बताया कि इस क्षेत्र के अधिकांश कपास किसान, धान की ओर मुड़ गए हैं। उनका आगे कहना है, “यहां की जमीन और पानी में पीएच का स्तर धान के लिए सही नहीं है। मैंने आठ एकड़ में धान के साथ प्रयोग किया था , जिसमें से तीन एकड़ खो दिया है। लेकिन अभी भी घाटा कपास से कम है।” नाम उजागर न करने की शर्त पर एक कृषि अधिकारी ने बताया कि धान की ओर रुख करने वाले किसान इसके पड़ने वाले प्रभावों पर विचार नहीं कर रहे हैं। धान को बहुत ज्यादा पानी की जरूरत पड़ती है। उनका कहना है कि भूजल के अत्यधिक दोहन से पर्यावरण को नुकसान हो सकता है। हालांकि भविष्य के परिणामों के बारे में सोचने की जगह अस्तित्व को बनाए रखने के लिए तत्काल फायदा और आर्थिक नफा अधिक जरूरी है।
वहीं राजस्थान में किसानों के पास यह विकल्प भी नहीं है। हनुमानगढ़ में बम्बूवाली ढाणी के राम प्रताप ने बताया कि यहां की मिट्टी धान के लिए उपयुक्त नहीं है। साथ ही पानी भी खारा है। हमारे पास कपास के अलावा कोई विकल्प ही नहीं है, भले ही इससे नुकसान हो। उनके मुताबिक, हमारी भौगोलिक स्थिति कपास से जुड़े रहने को मजबूर करती है। ऐसे में सरकार को बाजार में बेहतर बीज लाकर हमारी मदद करनी चाहिए।
केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआईसीआर), सिरसा के कीट विज्ञानी ऋषि कुमार ने बताया कि यह समस्या तब शुरू हुई जब उत्तर भारत में समय से पहले इसकी बुआई की गई, वहीं मध्य एवं दक्षिणी भारत में किसानों ने देर से उगाई जाने वाली किस्मों को चुना। उन्होंने समझाया “कपास की बुआई का सबसे अच्छा समय 15 अप्रैल से 15 मई के बीच होता है। लेकिन उत्तरी हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में कई किसान मार्च के अंत में या अप्रैल की शुरुआत में कपास की बुआई शुरू करते हैं, जो जून के अंत तक जारी रहती है। इसका मतलब है कि वो 45 से 80 दिन पहले इसकी बुआई करते हैं। बुआई का यह शुरुआती सीजन उस अवधि के साथ मेल खाता है, जब सर्दियों के दौरान गुलाबी सुंडी हाइबरनेशन या डायपॉज से बाहर आती है। इस अवस्था में कीट कपास के दो बीजों या फसल के अवशेषों के बीच जीवित बचा रहता है।”
इस अवधि के दौरान कपास में कली या फूल आने लगते हैं। उसी दौरान गुलाबी सुंडी भोजन की तलाश में होती है और उसके लार्वा कपास के बीजकोषों को खाना शुरू कर देते हैं। यह सिलसिला 14 से 17 दिनों तक जारी रहता है। इसके बाद यह कीट दोबारा अंडे देना शुरू कर देता है। जो किसान देर से आने वाली किस्मों को बोते हैं, उनके लिए समस्या और गंभीर हो जाती है। इससे कीड़ों को लंबे समय तक भोजन मिलता रहता है, जो उनकी अगली पीढ़ियों के विकास में मददगार होता है।
टॉक्सिन का सामना
बठिंडा में कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के कीट विज्ञानी विनय पठानिया का कहना है, “हाल के वर्षों में यह कीट ऑफ-सीजन के दौरान भी कपास के पौधों के अवशेष, बीज और गोलों पर जीवित रहकर भारत के उत्तरी हिस्सों में अपना रास्ता खोजने में कामयाब रहा है।” पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, भटिंडा की कीटविज्ञानी जसरीत कौर का कहना है कि गुलाबी सुंडी आनुवांशिक रूप से विकसित हो गई है और बीटी टॉक्सिन का सामना कर सकती है। उनके मुताबिक दक्षिण और मध्य भारत में कपास की किस्मों की लंबी अवधि, जो 150 से 160 दिनों तक चलती है, उसने कीटों को आनुवांशिक रूप से संशोधित किस्म के प्रति प्रतिरोध विकसित करने में मदद की है। कौर ने कहा कि क्राई टॉक्सिन (वह रसायन जो गुलाबी सुंडी को कपास के बीजों पर हमला करने से रोकता है) अंततः कपास के पौधों के अंतिम दिनों में खत्म हो जाता है। यदि कीट इन विषाक्त पदार्थों की थोड़ी मात्रा से बचे रहते हैं, तो वे इस रसायन के प्रति प्रतिरोध विकसित करने और अगली पीढ़ी में ऐसी संतान पैदा करने में कामयाब होते हैं, जो इसके प्रति अधिक प्रतिरोधी होती हैं।
पठानिया का कहना है कि किसानों को प्रतिरोध विकसित होने से रोकने के लिए बीटी के साथ-साथ कपास की स्वदेशी या संकर किस्मों को लगाने की बार-बार सलाह दी गई थी। कपास की विभिन्न किस्मों की यदि क्रॉसब्रीडिंग की गई होती, तो यह कीटों को लंबे समय तक प्रतिरोध विकसित करने से रोकता। हालांकि कई किसानों ने इस सलाह पर ध्यान नहीं दिया। कौर के मुताबिक, गुलाबी सुंडी केवल कपास की फसलों को खाता है। ऐसे में यदि इसके चक्र को तोड़ दिया जाए और सरकारी सलाह के अनुसार समय पर कीटनाशकों का छिड़काव किया जाए तो गुलाबी सुंडी को नियंत्रित किया जा सकता है।
नई तकनीक पर काम
आईसीएआर-सेंट्रल इंस्टीट्यूट फॉर कॉटन रिसर्च, नागपुर के निदेशक वाईजी प्रसाद ने डाउन टू अर्थ को बताया कि वैज्ञानिक गुलाबी सुंडी के खिलाफ प्रभावी नई जीन की खोज का प्रयास कर रहे हैं। प्रसाद का कहना है कि, “इसके लिए पौधों के 8,000 नमूनों की जांच की है, ताकि ऐसे पौधों का पता लगाया जा सके जो प्राकृतिक रूप से गुलाबी सुंडी के खिलाफ प्रभावी हैं।” उन्होंने माना कि कपास को अधिक प्रतिरोधी बनाने के लिए उन्हें ट्रांसजीन या जीन एडिटिंग जैसी तकनीकों की आवश्यकता पड़ सकती है। जीन की पहचान होने और नई किस्म विकसित होने के बाद भी विभिन्न परीक्षणों से गुजरने में वक्त लगेगा। साथ ही इसके लिए जेनेटिक मैनिपुलेशन और जेनेटिक इंजीनियरिंग के मूल्यांकन के लिए बनाई समीक्षा समिति से मंजूरी हासिल करने और सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के बीच साझेदारी विकसित करने में समय लगेगा। प्रसाद ने तत्काल समाधान के रूप में यह सुझाव दिया कि हमें फसलों पर बारीकी से नजर रखने और फसलें कब बढ़ रही हैं, उस समय के आधार पर कीट प्रबंधन योजना का उपयोग करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। वैज्ञानिकों का एक दल एक ऐसी तकनीक पर परीक्षण कर रहा है जो अमेरिका में सफल साबित हुई है।
जोधपुर स्थित दक्षिण एशिया जैव प्रौद्योगिकी केंद्र के संस्थापक-निदेशक भागीरथ चौधरी का कहना है कि इस तकनीक को पीबीकेनॉट या पीबी रोप एल कहा जाता है। इस तकनीक ने अमेरिकी किसानों की उस कीट से निपटने में मदद की थी, जो पिछले 100 वर्षों से किसानों को प्रभावित कर रहा था। अमेरिकी किसान 2008 में इस तकनीक का उपयोग करने के बाद 2018 में इस कीट से छुटकारा पाने में कामयाब रहे थे। चौधरी के मुताबिक, गुलाबी सुंडी दुनिया भर में करीब 1.2 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर उगाई कपास की पैदावार को प्रभावित कर रही है। इतना ही नहीं इसकी वजह से कपास की गुणवत्ता में भी गिरावट आ रही है। उनका कहना है कि केंद्र 2022 से भारत में एक नई तकनीक पर काम कर रहा है, जो बहुत सफल रहा है। इसकी वजह से घाटे में 90 फीसदी की गिरावट आई है। यह तकनीक गुलाबी सुंडी की आबादी को नियंत्रित करने की रणनीतियों का एक हिस्सा है। इसे भारत में 2019-20 के दौरान पहली बार केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड और पंजीकरण समिति से आधिकारिक मंजूरी मिली थी।
उनका कहना है कि प्रोजेक्ट बंधन के तहत इस तकनीक पर प्रयोग किए जा रहे हैं और इसके लिए कृषि विज्ञान केंद्र, कृषि विश्वविद्यालयों और स्थानीय संस्थानों के साथ मिलकर काम किया जा रहा है। इस तकनीक में नर कीट को आकर्षित करने के लिए 20 सेंटीमीटर की प्लास्टिक की बनी रस्सी का उपयोग किया जाता है, जिसमें छोटे-छोटे छिद्र होते हैं। इसमें फेरोमोन गॉसीप्लर नामक एक रसायन होता है जिसे मादा पतंगें नरों को आकर्षित करने के लिए छोड़ती हैं। चौधरी का कहना है कि “प्राकृतिक तापमान में यह रस्सी फैलती है और इसमें मौजूद छोटे छिद्र रसायन को हवा में छोड़ देते हैं। यह रसायन नर पतंगों को भ्रमित करता है और उन्हें असली मादा पतंगों को ढूंढने से रोकता है। इस तरह यह तकनीक उनकी मेटिंग प्रक्रिया और प्रजनन चक्र को बाधित करती है। इसके कारण पतंगों की आबादी में गिरावट आ जाती है और फसलों को होने वाला नुकसान घट जाता है।”
उनका आगे कहना है कि इन रस्सियों को तब लगाया जाता है जब फसल 45 दिनों की हो जाती है। इन्हें खेतों के किनारों और अंदर पौधों से बांध दिया जाता है। आमतौर पर, प्रति एकड़ में करीब 160 रस्सियों का उपयोग किया जाता है। उन्हें करीब 25 वर्गमीटर की दूरी पर लगाया जाता है। यह तकनीक कपास के बड़े खेतों में सबसे अच्छा काम करती है, जो कम से कम 40-50 एकड़ के होते हैं। उन्होंने कहा है कि 2022 में इस पद्धति ने भारत में 18 अलग-अलग स्थानों पर 1,100 एकड़ भूमि पर कीटों की गतिविधियों को 90 फीसदी तक सफलतापूर्वक कम कर दिया था। इसकी वजह से कपास की गुणवत्ता में सुधार के साथ-साथ उपज में प्रति एकड़ डेढ़ क्विंटल का सुधार आया था। उन्होंने बताया कि “इस साल, गुजरात, महाराष्ट्र, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में 11 स्थानों पर 710 एकड़ जमीन पर इसका परीक्षण किया जा रहा है।” चौधरी के मुताबिक, भारत सरकार को इस जैव प्रौद्योगिकी उपकरण को अपनाने के साथ-साथ इसे व्यापक पैमाने पर सफल बनाने के लिए भारत के सभी कपास उत्पादक क्षेत्रों में उपयोग करने की आवश्यकता है।
साभार – डाउन टू अर्थ