भारत के इन करोड़ों लोगों के लिए 31 अगस्त है आजादी का दिन!
देश 15 अगस्त को आजादी का जश्न मना चुका है वहीं देश की करीबन 15 करोड़ की आबादी आज दूसरा आजादी दिवस मना रही है. भारत की आजादी की तारीख 15 अगस्त आपके लिए उत्साहवर्धक हो सकती है लेकिन हमारे बीच कुछ ऐसी जनजातियां भी हैं जिनके लिये 31 अगस्त असली आजादी का दिन है, क्योंकि जब पूरा देश आजादी के जश्न में डूबा हुआ था तो ये लोग उस दौर में भी गुलामी का दंश झेल रहे थे.
पहले करीबन 82 साल तक अंग्रेजी हुकूमत ने क्रिमिनल ट्राइब एक्ट लगाकर विमुक्त घुमंतू जनजातियों की कमर तोड़ी इसके बाद ये जनजातियां आजाद भारत में 5 साल 16 दिनों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी रही. विमुक्त घुमंतू जनजातियों को 31 अगस्त 1952 को इस कानून से विमुक्त किया गया तब से लेकर आज तक ये जनजातियां 31 अगस्त को ‘विमुक्ति दिवस’ के तौर पर मनाती हैं.
कौन हैं विमुक्त घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियां
2011 की जनगणना के अनुसार डीएनटी समुदाय की जनसंख्या 15 करोड़ के करीब थी. यूपीए सरकार में गठित ‘रेनके कमीशन 2008’ की रिपोर्ट के अनुसार देशभर में विमुक्त घुमंतू जनजाति के 98 फीसदी लोग बिना मकान के रहते हैं वहीं इनमें से 70 फीसदी से ज्यादा लोगों के पास अपने पहचान पत्र तक नहीं हैं. इनमें ज्यादातर पशुपालक, शिकारी, खेल दिखाने वाले और मनोरंजन करने वाले समुदाय हैं. जैसे
बंजारे, जो पशुओं पर माल ढोने का काम करते हैं. गाड़िया-लोहार, जो जगह-जगह जाकर लोहे के औजार बनाकर बेचने का काम करते हैं. बावारिया, जो जानवरों का शिकार करने का काम करते थे. नट, नृत्य और करतब दिखाने का काम करने वाली जनजाति. कालबेलिया सांपों का खेल दिखाने वाली, शर्प दंश का इलाज करने वाली तथा जड़ी-बुटियां तैयार करने वाली जनजाति.
इसी तरह, भोपा– स्थानीय देवताओं के गीत गाने वाले. सिकलीगर– हथियारों में धार लगाने वाले. कलंदर– जानवरों से करतब दिखाने वाले. ओढ- नहर बनाने तथा जमीन की खुदाई करने वाले. बहरूपिये– लोगों का मनोरंजन करने वाले. सरकार के विकास के बड़े-बड़े दावों के बावजूद ये जनजातियों विकास की मुख्यधारा से गायब हैं.
विमुक्त घुमंतू जनजातियों ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया. लेकिन 1857 की क्रांति की हार के बाद इन जनजातियों को अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए अभियान का खामियाजा भुगतना पड़ा. जिसके चलते अंग्रेजी हुकूमत ने इन जनजातियों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत को खतरा था कि ये लोग आगे चलकर उनके लिए फिर से चुनौती बन सकते हैं. एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहने की वजह से ये लोग अपनी और अपने पशुओं की सुरक्षा के लिए हथियार भी रखते थे. जंगलों में रहने के कारण ये जनजातियां जंगल बीहड़ों के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थीं. ये लोग गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे. इन लोगों ने असंख्य अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतारा जिसकी वजह से अंग्रेजी हुकूमत इन जनजातियों से भयभीत और परेशान थी.
विमुक्त घुमंतू जनजातियों पर लगाम लगाने के लिए सरकार 1871 में क्रिमिनल ट्राईब एक्ट अर्थात आपराधिक जनजाति अधिनियम लेकर आई सबसे पहले इस एक्ट को उत्तर भारत में लागू किया गया. उसके बाद 1876 में इस कानून को बंगाल प्रांत पर भी लागू किया गया और 1924 तक आते-आते क्रिमिनल ट्राईब एक्ट को पूरे भारत में रहने वाली इन सभी जनजातियों पर थोप दिया गया. 1500 घुमंतू-अर्धघुमंतू और 191 विमुक्त जातियों पर इस कानून का सीधा असर पड़ा
इस एक्ट को लागू करने का मुख्य उद्देश्य इन जनजातियों पर पाबंदी लगाना था. कानून के तहत इन लोगों को गाँव व शहर से बाहर जाने के लिए स्थानीय मजिस्ट्रेट के यहां अपना नाम दर्ज करवाना यह अनिवार्य कर दिया गया ताकि पता रहे कि ये लोग कहाँ, क्यों और कितने दिनों के लिए जा रहे हैं. नाम दर्ज करवाकर जाने का यह सिलसिला 31 अगस्त 1952 तक जारी रहा.
ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि कोई आपराधिक घटना होने पर जांच करने में आसानी रहे और साथ ही इन लोगों पर निगरानी भी रखी जा सके. इस तरह इन समुदायों पर अपराधी होने का तमगा चस्पा दिया गया. इस कानून ने इन जनजातियों की समाज में ऐसा छवी गढ़ दी कि जो भी बच्चा इन जनजातियों में जन्म लेता उसको जन्मजात अपराधी मान लिया गया यानी इन लोगों ने जन्मजात अपराधी होने का अमानवीय दंश झेला है और कुछ हद तक आज भी झेल रहे हैं.
आजादी के बाद 1949 में अय्यंगर कमेटी का गठन किया गया. केंद्र सरकार ने अय्यंगर कमेटी के कुछ सुझावों को मानते हुए कईं सफारिशें लागू की. अय्यंगर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 31 अगस्त 1952 को इन जनजातियों को डिनोटिफाई किया गया तब से इन जनजातियों को डीएनटी (डिनोटिफाइड ट्राइब्स) के नाम से जाना जाता है.
इन जनजातियों को डिनोटिफाई तो किया गया लेकिन साथ ही 1959 में इनपर हेब्चुएल ऑफेंडर एक्ट यानी आदतन अपराधी एक्ट थोप दिया गया यानी इन समुदायों से अपराधी होने का दंश पूर्णरूप से नहीं हटा है अब तक भी इन जनजातियों से जुड़े लोगों को शक की निगाह से देखा जाता है. कोई भी अपराध होने पर पुलिस का संदेह आस-पास मौजूद इन डीएनटी समुदाय के लोगों पर ही जाता है. पुलिस और समाज के साथ मीडिया भी विमुक्त-घुमंतू जनजातियों को इसी दृष्टि से देखता है. आपराधिक मामलों में मीडिया इन जनजातियों को सीधा निशाना बनाता है.
सबसे दुखद यह है कि देश आजाद होने के पांच साल बाद तक भी यही सिलसिला जारी रहा और इन लोगों को समाज द्वारा गढ़ी छवि के साथ रहना पड़ा. अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी ये लोग गाँव में नम्बरदार या प्रशासन के रजिस्टर में नाम दर्ज करवा कर जाते थे ताकि इन लोगों पर नजर रखी जा सके.
अधिनियम खत्म होने के बावजूद आज भी हमारा समाज इन जनजातियों को अपराधी मानता है. 2007 में मध्य प्रदेश के बैतूल जिला के चौथिया गांव में पारधी जनजाति के घर इसी सोच की भेंट चढ़ गए. चौथिया गांव में पारधी जनजाति के 350 परिवारों के घर जला दिए गए. समाज के साथ-साथ सरकारी व्यवस्था ने भी विमुक्त घुमंतू जनजातियों के साथ बुरा व्यवहार किया. पुलिस इन जनजातियों को जन्मजात अपराधी मानती है.
आज भी इन जनजातियों के लोग समाज और पुलिस के सबसे आसान शिकार होते हैं. लिहाजा इन्हें किसी भी मामले में गिरफ्तार कर लिया जाता है. जिनके पूर्वजों ने 1857 की क्रांति में इस उम्मीद के साथ अंग्रेजों से लोहा लिया था कि उनकी आने वाली पीढ़ियां खुली हवा में सांस ले सकेंगी लेकिन ऐसा नहीं हो सका.
2018 की भीखूराम इदाते कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में 500 से ज्यादा जनजातियां हैं, जिनमें 313 नोमेडिक ट्राईब यानी घुमंतू और 198 विमुक्त (डिनोटिफाइड) जनजातियां हैं. आजादी के 74 साल बाद भी ये लोग बेघर है, शिक्षा का स्तर शून्य है, सात दशक बीत जाने के बाद भी देश की सरकारों ने इन जनजातियों के उत्थान को लेकर ठोस कदम नहीं उठाए. ये जनजातियां शिक्षा से कोसों दूर हैं. इन लोगों के पास घर नहीं है, राशन कार्ड नहीं है, इनकी अपनी कोई कागजी पहचान नहीं है. सरकार ने इन समुदायों के लिए बहुत बार आयोग बनाए पर किसी भी आयोग की रिपोर्ट पर कर्रवाई नहीं हुई.
इन जनजातियों को घर, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी आधारभूत सुविधाएं भी नहीं मिली हैं. रेनके कमीशन-2008 और इदाते कमीशन-2018 की रिपोर्ट आज तक चर्चा के लिए सदन के पटल पर भी नहीं रखी गई है. 15 करोड़ की आबादी वाली डीएनटी जनजातियों के पास संगठन की ताकत नहीं है ये लोग बिखरे हुए हैं. इसलिए राजनीतिक पार्टियों के पैमाने पर ये एक संयुक्त वोट बैंक के तौर पर नहीं बैठते हैं. यही वजह है कि देश की कुल आबादी का करीबन 10 फीसदी होते हुए भी पिछले सात दशक से इन लोगों की अनदेखी होती रही है.