पर्यावरण विनाश और कृषि संकट, एक सिक्के के दो पहलू
भारत की 30 प्रतिशत से अधिक भूमि अवक्रमण से प्रभावित है। इसे अंग्रेजी में Land Degradation कहा जाता है। जमीन का कटाव, अम्लीकरण, बाढ़, मृदा अपरदन या मिट्टी में बढ़ता खारापन कुछ ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिनके कारण मिट्टी अपनी उर्वरता खो देती है और जमीन मरुस्थलीकरण की ओर अग्रसर होने लगती है।
पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाली मानवीय गतिविधियां इक्कीसवी सदी में अपने चरम पर हैं। आज मनुष्य प्रकृति का अधिक से अधिक दोहन करना चाहता है। इसके अलावा पृथ्वी पर आबादी का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। वैसे, यह अपने आप में ही एक वाद-विवाद का विषय है कि गरीबी से आबादी बढ़ रही है या आबादी बढ़ने से गरीबी बढ़ी है ! फिर भी आज का सबसे बड़ा सत्य यही है कि हम बेलगाम आर्थिक वृद्धि के लिए निरंकुश तंत्रों का इस्तेमाल कर रहे हैं।
अनुचित कृषि गतिविधियां, वनों की अंधाधुंध कटाई, औद्योगिक कचरे का अनुचित प्रबंधन, अत्याधिक चराई, वनों का लापरवाह प्रबंधन, सतह खनन और वाणिज्यिक/औद्योगिक विकास कुछ बुनियादी कारण हैं जिनकी वजह से पर्यावरण का प्राकृतिक संचालन अस्त-व्यस्त हो गया है। ऐसे में स्वाभाविक है कि मिट्टी, जल, वायु जैसे कुछ प्राकृतिक संसाधन अपनी उत्पादकता खोने लगे हैं। इसलिए खेती जैसा व्यवसाय जो इन्हीं संसाधनों पर टिका है, उस पर संकट आना स्वाभाविक है।
इसके अलावा 1960 के बाद आई हरित क्रान्ति के कारण कृषि क्षेत्र में ऐसी नई तकनीकें और बीज प्रौद्योगिकी आई जिनकी वजह से पानी की खपत बहुत बढ़ गई है। भारत में कुल पानी के उपयोग में से 70 प्रतिशत केवल कृषि सिंचाई में लग जाता है। तो जिस प्रकार मशीन के सतत प्रयोग से साल दर वह पुरानी पड़ती है, वैसे ही इन प्राकृतिक संसाधनों का साल दर साल ह्रास हो रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हम इन्हें इनकी धारण क्षमता से अधिक प्रयोग में ला रहे हैं।
आज कृषि विविधता भी कम होती जा रही है। पहले लोग हर तरह की साग-सब्जियां, तमाम तरह के अनाज और दालें उगाते थे जिसकी वजह से कृषि में विवधता बनी रहती थी और प्राकृतिक संतुलन भी सुरक्षित रहता था। वहीं आज की पीढ़ी के भोजन में विवधता कम हो गई है। पैकेजिंग और प्रोसेसिंग पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है जिस वजह से हम केवल कुछ ही फसलों पर जोर देते हैं। इससे कूड़ा-कचरा तो बढ़ता ही है, लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। साथ ही साथ कृषि विविधता कम होने से मिट्टी, पानी, हवा की सेहत खराब होती है जिस वजह से किसान को आर्थिक घाटा उठाना पड़ता है।
ऐसे में यह समझना आवश्यक हो जाता कि क्या सरकार की तरफ से दी गई सब्सिडी और आर्थिक मदद या फिर बाजार उदारीकरण पर्याप्त कदम हैं ? ये तो केवल आपूर्ति पक्ष को मजबूत करने के लिए कुछ कदम हैं जिनका फायदा और नुकसान अभी भी हम नहीं जानते हैं। असल में दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो खपत पक्ष की तरफ आए हुए बदलाव भी खेती के व्यवसाय के लिए उतने ही घातक हैं जितनी सरकारी नाकामयाबी। इन्हीं परिस्थितियों के चलते कृषि संकट विकराल रूप घारण कर रहा है।
अक्सर देखा जाता है कि हम कृषि क्षेत्र में आए संकट को किसानों की अज्ञानता, निरक्षरता से जोड़ने लगते हैं। हमें लगता है कि किसान प्रौद्योगिकी नहीं समझता। हमें दरअसल खुद से सवाल करना चाहिए कि क्या हम भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सही अर्थ को समझ पाएं हैं! क्यों हम विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल प्रकृति से संरक्षण, संवर्धन से ज्यादा अंधाधुंध दोहन में कर रहे हैं?
(लेखिका अर्थशास्त्र और पर्यावरण विषयों की शोधार्थी हैं)