1.15 लाख ब्रिटिश नागरिकों के समर्थन से कैसे इंटरनेशनल बना किसान आंदोलन का मुद्दा

 

नये कृषि कानूनों के खिलाफ कई महीनों से जारी किसान आंदोलन पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींच रहा है। पिछले सप्ताह ‘टाइम’ मैग्जीन ने किसान आंदोलन को कवर स्टोरी बनाया तो सोमवार को ब्रिटिश संसद ने भारत में प्रदर्शनकारियों की सुरक्षा और प्रेस की आजादी पर चर्चा कर इस मामले को अंतरराष्ट्रीय फलक पर ला दिया। भारत सरकार ने इस पर कड़ी नाराजगी जाहिर करते हुए नई दिल्ली में ब्रिटिश उच्चायुक्त एलेक्स एलिस को तलब किया है। लंदन में भारतीय उच्चायोग ने भी इस चर्चा को तथ्यहीन और पक्षपातपूर्ण करार दिया।

किसान आंदोलन की शुरुआत से ही कनाडा और ब्रिटेन में भारतीय मूल के कई नेता किसानों का समर्थन कर रहे हैं। भारत सरकार इसे देश के अंदरुनी मसले में दखल बताते हुए खारिज करती रही है जबकि भाजपा के समर्थन इसे खालिस्तानी अभियान का हिस्सा बताकर अटैक करते हैं। ये दोनों ही प्रतिक्रियाएं अपनी-अपनी जगह नाकाम रही हैं क्योंकि किसान आंदोलन लगातार अंतरराष्ट्रीय चर्चाओं में बना हुआ है।

जिस तरह यह मुद्दा ब्रिटिश संसद तक पहुंचा, वह अपने आप में अभूतपूर्व है। भारत के किसान आंदोलन पर चर्चा के लिए शुरू हुई ऑनलाइन पिटीशन को 115,867 ब्रिटिश नागरिकों का समर्थन मिला तो ब्रिटिश संसद में इस पर चर्चा करानी पड़ी। ब्रिटेन के लिहाज से यह अच्छी खासी संख्या है। गुरचरण सिंह उर्फ गुर्च सिंह नाम के जिस लिबरल डेमोक्रेट पार्षद ने यह पिटीशन लगाई उनका प्रभाव इतना ज्यादा नहीं है कि एक लाख से ज्यादा लोगों का समर्थन मिल जाये। जाहिर है इस पिटीशन के पक्ष में मजबूत अभियान चलाया गया।

ब्रिटेन के नागरिक किसी मुद्दे पर संसद में चर्चा के लिए पिटीशन लगा सकते हैं। किसी पिटीशन को एक लाख लोगों का समर्थन मिलता है तो उस पर संसद में चर्चा होती है। इस प्रक्रिया का इस्तेमाल मेडनहेड के पार्षद गुरचरण सिंह ने किसान आंदोलन का मुद्दा उठाने के लिए किया। चूंकि भारत के कृषि कानूनों को लेकर ब्रिटिश संसद में सीधे तौर पर चर्चा नहीं हो सकती है, इसलिए पिटीशन में ब्रिटेन सरकार से मांग की गई है कि वह भारत सरकार से प्रेस की आजादी और प्रदर्शनकारी किसानों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की अपील करे। मानवाधिकार से जुड़े मुद्दों पर ऐसी अपील देश करते रहते हैं। फिर भी किसी देश के लिए यह असहज स्थिति है कि उससे जुड़े मुद्दे पर किसी दूसरे देश की संसद में चर्चा हो।

सोमवार को हाउस ऑफ कॉमन्स में डेढ़ घंटे चली चर्चा में ब्रिटिश सांसदों ने माना कि कृषि सुधार भारत का आंतरिक मामला है, लेकिन साथ ही उन्होंने किसान आंदोलन के प्रति सरकार के रवैये, इस दौरान किसानों की मौतों, दिशा रवि और नौदीप कौर जैसी युवा कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी, पत्रकारों पर मुकदमें और इंटरनेट व मीडिया की आजादी पर अंकुश को लेकर अपनी चिंताएं जाहिर की।

ये सब वो मुद्दे हैं जो अंतरराष्ट्रीय मीडिया कवरेज के जरिये ब्रिटिश सांसदों तक पहुंचे। अगर 18 वर्षीय पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को देश-विरोधी साजिश में शामिल बताकर केस दर्ज करेंगे तो इससे भारत की वैसी ही छवि बनेगी जो बन रही है।  

ब्रिटेन में किसान आंदोलन कैसे बना मुद्दा?

ब्रिटेन में कई सांसद किसान आंदोलन का मुद्दा जोरशोर से उठा रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा नाम हैं लेबर पार्टी के सांसद तनमनजीत सिंह धेसी। जब दिल्ली कूच कर रहे आंदोलनकारी किसानों पर वाटर कैनन और आंसू गैस का इस्तेमाल हुआ तो 3 दिसंबर को धेसी समेत 36 सांसदों ने ब्रिटेन के विदेश मंत्री डॉमिनिक राब को एक पत्र लिखा था। इस पत्र में “पंजाब की बिगड़ती स्थिति” पर भारत के विदेश मंत्री से बात करने की गुजारिश करते हुए कहा था कि ब्रिटेन में सिखों के लिए यह बेहद अहम मुद्दा है। भारत में उनके परिजन और पुश्तैनी जमीनें हैं, जिन पर कृषि कानूनों के खिलाफ हो रहे विरोध-प्रदर्शनों का असर पड़ सकता है।   

इसके बाद 9 दिसंबर को तनमनजीत सिंह धेसी ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के सामने आंदोलनकारी किसानों पर आंसू गैस, वाटर कैनन और बल प्रयोग का मुद्दा उठाया, लेकिन जॉनसन मामले को समझ ही नहीं पाये। उन्होंने जवाब भारत-पाकिस्तान पर दिया तो उसकी काफी आलोचना हुई थी।

ऑनलाइन पिटीशन के अलावा ब्रिटेन के 100 से ज्यादा सांसदों ने प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को पत्रकर लिखकर किसान आंदोलन के मुद्दे पर भारत सरकार से बात करने का आग्रह किया था। इसलिए ब्रिटिश संसद में चर्चा कराने का काफी दबाव था।

सोमवार को जब ब्रिटिश संसद के वेस्टमिंस्टर कमिटी रूम में भारत में प्रदर्शनकारियों की सुरक्षा और प्रेस की आजादी को लेकर चर्चा हुई तो स्कॉटिशन नेशनल पार्टी के मार्टिन डे ने कहा कि यह चर्चा भारत के कृषि कानूनों के बारे में नहीं है। लेकिन भारत से आ रही तस्वीरें चिंताजनक हैं। प्रदर्शनकारियों के खिलाफ वाटर कैनन, आंसू गैस के इस्तेमाल, इंटरनेट पर आंशिक रोक और किसानों की आत्महत्याओं का जिक्र करते हुए उन्होंंने कहा कि सोशल मीडिया और प्रेस की आजादी पर हमलों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

चर्चा के दौरान लेबर पार्टी की सांसद नाडिया वेट्टम ने किसान आंदोलन को विश्व इतिहास का सबसे बड़ा आंदोलन करार देते हुए दिशा रवि और नौदीप कौर की गिरफ्तारी का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि हमारी सरकार को तय करना होगा कि वह किसानों के साथ है या फिर फासिस्टों के साथ।

हालांकि, कई ब्रिटिश सांसदों ने भारत सरकार के रुख का समर्थन भी किया। कंजर्वेटिव पार्टी की सांसद थेरेसा विलियर्स ने कहा कि ब्रिटेन में भी विरोध-प्रदर्शनों के दौरान पुलिस की कार्रवाई पर सवाल उठते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि देश में लोकतंत्र खतरे में है। भारत में कानून-व्यवस्था और मानवाधिकारों को समाज और संविधान का संरक्षण प्राप्त है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रखने का भरोसा दिला चुके हैं।

लेबर पार्टी के सांसद जर्मी कोर्बिन ने भारत में इंटरनेट और मीडिया पर अंकुश का मुद्दा उठाया तो सांसद सीमा मल्होत्रा ने लोकतांत्रिक तरीके से मसले के समाधान पर जोर देते हुए प्रेस की आजादी और प्रदर्शनकारियों की सुरक्षा को जरूरी बताया। सीमा मल्होत्रा ने कहा कि दो पीढ़ी पहले उनका परिवार भी पंजाब में खेती करता था। हम सब भारत के मित्र हैं इसलिए इतने चिंतित हैं।

किसान आंदोलन को भारत का आंतरिक मामला बताये जाने के जवाब में सांसद तनमनजीत सिंह धेसी ने कहा कि मानवाधिकार सार्वभौमिक हैं और उनका पालन सबसे हित में है। कड़ाके की ठंड में आंदोलन करते हुए सैकड़ों किसानों की मौत हो गई। उन लोगों के दर्द को महसूस कीजिये जिनके माता-पिता पंजाब में खेती करते थे। जिनका पंजाब की सरजमीं से गहरा नाता है। जिनके परिजन या दोस्त आंदोलन में शामिल हैं, जिन्हें रोकने के लिए सड़कों पर कटीलें तार और कीलें लगाई गई। बिजली-पानी और इंटरनेट बंद कर दिया गया। सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया। हिरासत में उनके उत्पीड़न की खबरें आई हैं। धेसी ने इस बात पर भी आपत्ति जताई कि सिखों की तादाद ज्यादा होने की वजह से आंदोलनकारी किसानों को मुख्यधारा का भारतीय मीडिया आतंकवादी और अलगाववादी बता रहा है।

चर्चा का जवाब देते हुए ब्रिटेन सरकार में एशिया मामलों के मंत्री नाइजल एडम्स ने कहा कि कृषि सुधार भारत का आंतरिक मामला है, इसका सम्मान करते हुए हम अपनी चिंताओं से भारत सरकार को अवगत कराते रहेंगे। भारत के साथ घनिष्ठ संबंध ब्रिटेन को जटिल मसले उठाने से नहीं रोकते हैं। ब्रिटेन सरकार आंदोलन पर करीब से नजर रखे हुए हैं।

भारत सरकार ने जताया कड़ा ऐतराज  

ब्रिटिश संसद में किसान आंदोलन पर चर्चा को भारत सरकार ने गैर-जरूरी और पक्षपातपूर्ण करार दिया है। भारत सरकार के विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने ब्रिटिश सांसदों को किसी दूसरे देश की घटना को गलत तरीके से पेश कर वोट बैंक की राजनीति से परहेज करने को कहा है। लंदन में भारतीय उच्चायोग ने भी ब्रिटिश संसद में हुई चर्चा को एकतरफा और तथ्यहीन बताया। उच्चायोग का कहना है कि ब्रिटिश मीडिया समेत विदेशी मीडिया भारत में मौजूद है और यहां मीडिया की आजादी में कमी का सवाल ही पैदा नहीं होता है।

ब्रिटिश संसद में भारत से जुड़े मामले की चर्चा को लेकर भारत में बहुत लोग नाराज हैं। भारत के पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल ने ब्रिटिश संसद में कृषि कानूनों की चर्चा पर आपत्ति व्यक्त करते हुए भारत की प्रतिक्रिया को कमजोर करार दिया है। कई लोग तो ब्रिटेन से जुड़े किसी मामले की चर्चा भारतीय संसद में कर बदला लेने का सुझाव दे रहे हैं।

ब्रिटिश संसद में हुई चर्चा पर गौर करें तो पता चलता है कि इस मामले को अंतरराष्ट्रीय चर्चा में लाने में दिशा रवि, नौदीप कौर और मनदीप पूनिया की गिरफ्तारी, कई पत्रकारों पर केस, धरनास्थलों पर बिजली-पानी और कई जिलों में इंटरनेट बंद किये जाने, कटीलें तारों और कीलों से घेराबंदी जैसी कार्रवाइयों की बड़ी भूमिका है। ज्यादातर सांसदों ने अंतरराष्ट्रीय मीडिया की कवरेज का हवाला देते हुए ही भारत में प्रदर्शनकारियों की सुरक्षा और प्रेस की आजादी पर चिंता जतायी।

आंदोलनकारी किसानों और उनके समर्थकों को देशद्रोही, आतंकवादी बताने वाले दुष्प्रचार ने भी इस मामले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने में मदद की है। ऐसा संदेश गया कि किसान आंदोलन को बदनाम कर उन्हें शांतिपूर्ण प्रदर्शन के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। पॉप स्टार रिहाना के ट्वीट के बाद जिस तरह विदेश मंत्रालय ने प्रतिक्रिया दी, उससे चर्चाओं पर विराम लगने की बजाय मामले ने और तूल पकड़ा। फिर तमाम क्रिकेट खिलाड़ियों और बॉलीवुड हस्तियों ने एक साथ, एक-ही जैसे ट्वीट किये, तो वह भी एक सुनियोजित कैंपन नजर आया। सरकार की छवि सुधरने की बजाय और किरकिरी हुई।

किसान आंदोलन को दुनिया भर में समर्थन मिलने के पीछे कई कारण हैं। बहुत तरह के लोग और संगठन इसका समर्थन कर रहे हैं। उन सबकी अपनी-अपनी राजनीति हो सकती है। लेकिन इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि ऐसा आंदोलन पिछले कई दशकों में दुनिया में कहीं नहीं हुआ। सवाल यह भी है कि जब हम विदेश में बसे भारतीय मूल के लोगों की उपलब्धियों पर गर्व करते हैं तो देश के हालात पर उनकी चिंताओं से खुद को कैसे अलग कर सकते हैं।

वाकई किसान आंदोलन भारत का आंतरिक मामला है। भारत सरकार की कतई कोई जवाबदेही ब्रिटिश संसद के प्रति नहीं है। लेकिन दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते मानवाधिकारों और प्रेस की आजादी को लेकर भारत को अपनी छवि की फिक्र जरूर होनी चाहिए। ब्रिटिश संसद में हुई बहस इस छवि पर सवालिया निशान लगाती है।