किसान आंदोलन और हिन्दी अखबारों का रवैया
किसानों द्वारा आंदोलन के चौथे दिन 29 नवम्बर को केन्द्र सरकार के सशर्त बातचीत के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिए जाने के बाद आंदोलन के लम्बा खींचने के आसार बन रहे हैं। किसान लगातार चौथे दिन भी सिंघू बॉर्डर पर डटे रहे और उन्होंने कहा है कि वे किसी भी स्थिति में आंदोलन से पीछे हटने वाले नहीं हैं। आंदोलन के चौथे दिन की स्थिति को अमर उजाला, हिन्दुस्तान, अृमत विचार व दैनिक जागरण ने किस तरह से अखबारों में जगह दी है? इसी का विश्लेषण आंदोलन के चौथे दिन के समाचारों का करने की कोशिश की है। अमर उजाला, अमृत विचार ने जहां दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को चौथे दिन मुख्य खबर बनाया है, वहीं हिन्दुस्तान से इसे मुख्य खबर तो नहीं बनाया, लेकिन पहले पेज पर जगह अवश्य दी है। दैनिक जागरण ने आंदोलन की खबर को पहले पन्ने में तो जगह नहीं दी, लेकिन इस बारे में “मन की बात” के अन्तर्गत प्रधानमन्त्री के बयान को मुख्य खबर अवश्य बनाया है।
अमर उजाला (नैनीताल) चौथे दिन के आंदोलन की खबरों के लिहाज से बेहतरीन करता दिखाई दिया। उसने पहले पेज पर “किसान वार्ता को तैयार … शर्त नहीं मानेंगे, पांच तरफ से दिल्ली की घेराबंदी करेंगे” शीर्षक से प्रमुख खबर प्रकाशित की है। पांच कॉलम में प्रकाशित खबर में उसने लिखा है कि किसान लम्बे प्रदर्शन की तैयारी में हैं और उन्होंने बुराड़ी मैदान में एकत्र होने की केन्द्र सरकार की मांग को ठुकराते हुए उसे खुली जेल करार दिया है। साथ ही किसानों ने केन्द्र सरकार द्वारा बातचीत की पेशकश के लिए शर्तें रखे जाने को उनका अपमान करार दिया है। चार दिन से सिंघू व टिकरी बॉर्डर पर डटे किसानों ने कहा कि केन्द्र सरकार ने अगर बिना शर्त बातचीत नहीं की तो वे दिल्ली की पांच मुख्य सड़कों को जाम कर देंगे।
समाचार में कहा गया है कि 30 किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने कहा कि गृह मन्त्री अमित शाह ने जो बुराड़ी मैदान जाने के बाद बातचीत की जो शर्त रखी है वह उन्हें मंजूर नहीं है। भारतीय किसान यूनियन के हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी ने कहा कि केन्द्र सरकार को बातचीत का माहौल बनाना चाहिए। अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नेताओं ने कहा कि अगर सरकार किसानों की मांगों के प्रति गम्भीर है तो उसे बात करनी चाहिए। भारतीय किसान यूनियन एकता (उगराहा) के अध्यक्ष जोगिन्दर सिंह ने कहा कि सरकार कृषि कानूनों को वापस ले इससे कम कुछ भी मंजूर नहीं। भाकियू (क्रान्तिकारी) के पंजाब अध्यक्ष सुरजीत सिंह फूल ने कि प्रतिनिधियों की समिति आगे का निर्णय करेगी। हम अपने मंच पर किसी भी राजनैतिक दल के नेता को जगह नहीं देंगे।
बॉक्स की खबर में कहा गया है कि हरियाणा की खाप पंचायतों ने किसान आंदोलन को समर्थन देने की घोषणा की है और कहा कि सोमवार 30 नवम्बर को किसान दिल्ली कूच करेंगे। एक अन्य बॉक्स में गृहमन्त्री अमित शाह का बयान प्रकाशित किया गया है कि उन्होंने कभी भी किसान आंदोलन को राजनीति से प्रेरित नहीं कहा। लोकतंत्र के तहत सभी को अपने मत रखने का अधिकार है। साथ ही उन्होंने विपक्ष पर निशाना साधा कि वह राजनीति के तहत कृषि कानूनों का विरोध कर रहा है। लगातार तीसरे दिन अमर उजाला ने “अन्नदाता आक्रोश में” शीर्षक से एक पूरा पेज आंदोलन की खबरों को समर्पित किया है। जो अखबार के पेज नम्बर-6 में प्रकाशित है। इसी पेज की प्रमुख खबर में कहा गया है कि किसानों के तेवर देख दिल्ली में हाई अलर्ट घोषित किया गया है। एक खबर में हरियाणा के सांगवान खाप के प्रधान व दादरी के निर्दलीय विधायक सोमबीर सांगवान का बयान प्रकाशित किया गया है कि पहले मैं सांगवान खाप का प्रधान हूं। म्हारे लिए आपसी भाई चारा पहले है, राजनीति बाद में। हरियाणा की 30 खापों ने एकत्र होकर निर्णय किया है कि वे आंदोलन के समर्थन में दिल्ली कूच करेंगे।
इसी पेज पर करनाल से एक अन्य खबर में कहा गया है कि किसानों के दबाव में हरियाणा सरकार ने कैथल, अम्बाला और कुरुक्षेत्र जिलों की पंजाब से लगती सीमा पर लगाए गए नाकों को किसानों के दबाव में हटा लिया है। सोनीपत से भेजे गए एक समाचार में कहा गया है कि दिल्ली के सिंघू बार्डर से हरियाणा की ओर पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड से आने वाले किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। रविवार ( 29 नवम्बर ) की शाम तक यहां राष्ट्रीय राजमार्ग-44 पर 7 किलोमीटर तक 40,000 से अधिक किसान एकत्र हो चुके थे। इसी खबर में कहा गया कि किसानों के संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा कि किसान कृषि कानूनों को रद्द करने के साथ ही पराली व बिजली से जुड़े विधेयकों को वापस लेने की मांग सरकार से बातचीत के दौरान करेंगे। अगर सरकार बिना बातचीत भी किसानों की मॉग मान लेती है तो वह लोग वापस लौट जायेंगे। एक अन्य खबर में प्रसिद्ध पहलवान योगेश्वर दत्त व उनके शिष्य बजरंग पूनिया व महिला पहलवान विनेश फोगाट के किसान आंदोलन के समर्थन में ट्वीट करने की बात कही गई है।
इसी पेज में अब तक भाजपा की नीतियों का समर्थन करती रही बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती का बयान भी प्रकाशित किया गया है। जिसमें उसने केन्द्र सरकार से कृषि कानूनों पर पुनर्विचार की अपील की है। उन्होंने अपने ट्वीट में कहा कि केन्द्र के नए कृषि कानूनों के खिलाफ पूरे देश के किसानों में आक्रोश व असहमति है। ऐसे में किसानों की सहमति के बिना बनाए गए इन कानूनों पर सरकार को पुनर्विचार करना चाहिए। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष व उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमन्त्री अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ पर हमला करते हुए कहा कि प्रदेश में विकास कार्य ठप हैं, किसान आंदोलन की राह पकड़े हुए हैं, अपराधियों के हौंसले बुलन्द है, पर मुख्यमन्त्री इन पर ध्यान देने की बजाय देशाटन पर निकले हैं। उन मन स्टार प्रचारक बनकर दूसरे राज्यों में घूमने का है। उन्हें अन्नदाता की कोई चिंता नहीं है।
चार दिन के किसान आंदोलन के बाद भी अमर उजाला ने इस पर अभी तक सम्पादकीय नहीं लिखा है। जिससे पता चलता है कि अखबार भले ही खबरों में सीधे केन्द्र सरकार का पक्ष भले ही न ले रहा हो, लेकिन आंदोलन को लेकर एक तटस्थ सम्पादकीय लिखने की “हिम्मत” वह चार दिन बाद भी नहीं जुटा पा रहा है। हां, सम्पादकीय पेज में उसने कृषि मामलों के विशेषज्ञ देविन्दर शर्मा का लेख “क्यों नाराज हैं अन्नदाता” अवश्य प्रकाशित किया है। शर्मा कृषि नीति को लेकर सरकारों पर अपने लेख, इंटरव्यू में हमेशा तीखे हमले व सवाल करते रहे हैं। अपने इस लेख में भी उन्होंने कृषि कानूनों को लेकर किसानों की चिंता को सही बताते हुए लिखते हैं कि किसानों का यह आंदोलन अनूठा और ऐतिहासिक है। पहली बार देखने में आ रहा है कि पंजाब के किसानों के नेतृत्व में चल रहा यह आंदोलन किसी राजनैतिक दल या धार्मिक संगठन से प्रेरित नहीं है, बल्कि किसानों ने राजनीति और धर्म, दोनों को ही इस आंदोलन का समर्थन करने को बाध्य कर दिया है। वह लिखते हैं कि इस आंदोलन ने राजनीति को एक नई दिशा दे दी है।
देविन्दर शर्मा अपने लेख में कहते हैं कि जिस अमेरिका और यूरोप की तर्ज पर नए कृषि कानून बनाए गए हैं, वहां खेती इस समय सबसे गहरे संकट में है। तो फिर उस विफल मॉडल को भारत में जबरन क्यों लादा जा रहा है ? आज भी अमेरिका के किसानों पर 425 अरब डालर का कर्ज है और वहां के 87 प्रतिशत किसान आज खेती छोड़ने को तैयार हैं। यूरोपीय देशों में भी भारी सब्सिडी मिलने के बावजूद किसान लगातार खेती छोड़ रहे हैं। देविन्दर शर्मा लिखते हैं कि आंदोलन कर रहे किसानों की मांग कृषि के तीन नए कानूनों को हटाने की है, लेकिन मेरा मानना है कि एक चौथा कानून लाया जाय, जिसमें यह अनिवार्य हो कि देश में कहीं भी किसानों की फसल एमएसपी से कम कीमत पर नहीं खरीदी जाएगी।
अमृत विचार (बरेली – कुमाऊँ संस्करण) ने लगातार चौथे दिन किसान आंदोलन को न केवल पहले पेज पर जगह दी है, बल्कि उसे “किसानों ने ठुकराया केन्द्र का प्रस्ताव, कहा – बुराड़ी मैदान नहीं, खुली जेल” शीर्षक के तहत मुख्य खबर भी बनाया है। इस खबर के एक बॉक्स में किसानों के हवाले से कहा है कि वे लोग बुराड़ी मैदान में पहुंच चुके किसानों को वहां से वापस बुलायेंगे। वे लोग दिल्ली को घेरने के लिए आए हैं, न कि दिल्ली में घिर जाने के लिए। किसान के इस बयान से लगता है कि वे बेहद सतर्क हैं और सरकार के किसी झांसे में फंसने वाले नहीं है। वे सरकार को कोई ऐसा मौका नहीं देना चाहते हैं, जिससे कि सरकार को उनके ऊपर दबाव डालने का मौका मिल सके और आंदोलन बिना किसी परिणति के खत्म हो जाय। अखबार ने “मन की बात” के तहत प्रधानमन्त्री मोदी के किसान आंदोलन के सन्दर्भ में नए कृषि कानूनों के समर्थन में कही गई बात को पहले पेज पर “कृषि कानूनों से किसानों को मिले अधिकार” शीर्षक के तहत जगह दी है।
अमृत विचार ने आंदोलन के चार दिन के अन्दर ही दूसरी बार सम्पादकीय “भड़कते किसान” लिखा है। अखबार लिखता है कि कोरोना काल में देशव्यापी लॉकडाउन के बीच जब कृषि अध्यादेश को संसद ने पास किया था तो तब से किसान इसका विरोध कर रहे हैं। कृषि कानूनों को लेकर पिछले माह से पंजाब के मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह अपने विधायकों के साथ राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द से मिलने का समय मांग रहे हैं, पर उन्हें समय नहीं दिया जा रहा है।सम्पादकीय में लिखा गया है कि किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार के धुर विरोधी व्यक्ति को भी अपनी बात कहने, विरोध प्रदर्शन करने और सत्ता केन्द्रों के बाहर एकत्र होकर सामुहिक दबाव बनाने का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। यही अधिकार किसानों को भी है। इसी पेज में वरिष्ठ पत्रकार नवेद शिकोह का लेख “…. तुम तो नेतृत्व विहीन किसान हो” प्रकाशित किया गया है। जिसमें वे लिखते हैं कि शायद ही कोई आंदोलन ऐसा हो, जिस पर हिंसक होने के आरोप नहीं लगे हो। यहॉ तक कि देश की आजादी के लिए महात्मा गॉधी के “भारत छोड़ो आंदोलन” को भी अंग्रेजी हुकूमत ने हिंसा फैलाने वाला आंदोलन बताया था। लेख में आगे लिखा गया है कि किसान आंदोलन का कोई एक मजबूत नेता नहीं है। जो चिंताजनक है। बिना मजबूत नेतृत्व वाला कोई भी आंदोलन सरकार के लिए मुसीबत बनता है। उसमें संवादहीनता की सम्भावनाएँ अधिक होती हैं। इस दौर में महेन्द्र सिंह टिकैत जैसा मजबूत किसान नेता देश में कोई नहीं है। इसके अलावा किसान से सम्बंधित स्थानीय समाचारों को अखबार ने पेज नम्बर – 4 व 6 में महतवपूर्ण जगह दी है।
हिन्दुस्तान (हल्द्वानी) ने आंदोलन की खबर को पहले पेज पर दो कॉलम “किसान अड़े, अब रास्ते जाम करेंगे” शीर्षक के तहत जगह दी है। इसके अलावा पेज नम्बर -10 में “सड़कों पर किसान” के तहत लगभग पूरे पेज में आंदोलन की खबरें हैं। जिसमें बॉलीवुड के मशहूर गायक गुरु रंधावा, दिलजीत दोसांझ, अभिनेत्री-पायलट गुल पनाग और स्वरा भाष्कर के किसान आंदोलन के सम्बंध में ट्वीट किए जाने की खबर भी है। इस पेज में राहुल गॉधी का बयान कि कानून को सही बताने वाले क्या हल निकालेंगे? भी है। अखबार ने भाजपा के राष्ट्रीय महामन्त्री व उत्तराखण्ड के प्रभारी दुष्यन्त कुमार गौतम का बयान पेज नम्बर दो में “कांग्रेस की मानसिकता दंगा भड़काना: गौतम” प्रकाशित किया है। जिसमें वह देहरादून में गम्भीर आरोप लगाते हुए कह रहे हैं कि पंजाब के किसान आंदोलन को उग्रवादियों ने हाईजैक कर लिया है। बिना किसी ठोस तथ्यों के उन्होंने कह कि आंदोलन में खालिस्तान व पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए जा रहे हैं। भाजपा के राष्ट्रीय महामन्त्री द्वारा इस तरह के गैर जिम्मेदार बयान से पता चलता है कि भाजपा नेताओं को उनकी सरकार के खिलाफ किसी भी तरह का लोकतांत्रिक आंदोलन पसन्द नहीं है। वे हर उस आंदोलन को जो उनकी सरकार के खिलाफ चलाया जाता है उसे देशद्रोही आंदोलन बताते में पूरी निर्लज्जता के साथ जुट जाते हैं।
दैनिक जागरण (हल्द्वानी) लगातार चौथे दिन भी सरकार का भौंपू बना नजर आया। किसानों को आंदोलन को राजनीति से प्रेरित व बेवजह का बताने वाले अखबार ने प्रधानमन्त्री मोदी के मन की बात के तहत नए कृषि कानूनों की हिमायत में कही गई बात को “कृषि सुधारों ने खोले नए रास्ते: मोदी” के तहत न केवल पहले पेज पर जगह दी है, बल्कि पांच कॉलम में पहली खबर बनाया है। आखिर, प्रधानमन्त्री ने अपने इस बयान में ऐसा क्या महत्वपूर्ण व नया कह दिया है कि अखबार को उसे मुख्य खबर बनानी पड़ी ? यह बात तो सरकार पिछले चार-पांच महीने से लगातार व हर रोज कह रही है, जब से नए कृषि कानूनों को जल्दबाजी में कोरोना की आड़ लेकर बिना किसी व्यापक बहस के संसद के संक्षिप्त मानसून सत्र में पारित करवा लिया था। अब बात हर रोज सरकार द्वारा कही जा रही हो, वह फिर से इतनी महत्वपूर्ण कैसे हो गई ?
अखबार के इस तरह के रुख से हर रोज यह साबित हो रहा है कि इसका प्रबंधन तंत्र किसान आंदोलन को गैरजरुरी बताने के लिए कुछ भी कर सकता है। इस तरह की खबरें लिखने के साथ ही वह सम्पादकीय में भी आंदोलन के खिलाफ कुतर्क की हद तक जाने को तैयार है। चार दिन में दूसरी बार लिखे सम्पादकीय “विरोध की जिद” में लिखा गया है कि जब केन्द्र सरकार नए कृषि कानूनों को बहुत ही कल्याणकारी व क्रान्तिकारी बता रही है तो किसानों को इसमें शक क्यों है ? अखबार सम्पादकीय में यह तक लिख रहा है कि जब अनेक कृषि विशेषज्ञ व अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि नए कानून किसानों के लिए नई सम्भावनाएं खोलने का काम करेंगे तो उन पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। यह अलग बात है कि अखबार उन कृषि विशेषज्ञों व अर्थशास्त्रियों की बात का कोई जिक्र नहीं करता, जो इन कानूनों को किसानों को कारपोरेट का बंधुवा मजदूर बनाने वाला बता रही है और कह रही है कि इससे छोटी जोत के किसान हमेशा के बर्बाद हो जायेंगे।
अखबार सम्पादकीय में यह तक कुतर्क कर रहा है कि किसान बताएं कि नया कानून लागू होने के बाद अभी तक उनको क्या नुकसान हुआ है? उसका कहना है कि जब किसान को नुकसान होगा और वह आर्थिक तौर पर बर्बाद हो जाएगा तब वह कानून की खामियों पर बात करे उससे पहले उस पर बात करना और आशंका जताना बिल्कुल गलत है। इस तरह की कुतर्क भरी बातों का सम्पादकीय लिखने में अखबार की सम्पादकीय टीम को पत्रकारिता के लिहाज से जरा भी शर्म नहीं है।
दिल्ली आंदोलन की खबर को अखबार ने 13 नम्बर पेज पर “केन्द्र ने फिर दिया बुराड़ी मैदान में आने का प्रस्ताव” शीर्षक 6 कॉलम की खबर प्रकाशित की है। जो पूरी तरह से किसान आंदोलन की खबर न होकर केन्द्र सरकार का पक्ष लेने वाली खबर है। इसी पेज में दो कॉलम में नीति आयोग के सदस्य रमेश चंद का बयान “विरोध कर रहे किसानों ने नहीं समझा नए कानूनों को” प्रकाशित किया है। जिसमें वह कहते हैं कि किसानों ने बिना पढ़े व समझे ही कृषि कानूनों का विरोध प्रारम्भ किया है। वे एक बार उसे पढ़ लेंगे तो उन्हें पता चल जाएगा कि उनको भविष्य में कितना लाभ होने वाला है। रमेश चंद के इस बयान से इस बाद का पर्दाफाश होता है कि सरकार ने कानून बनाने से पहले किसान संगठनों व किसानों से न तो कोई बात की और न ही उन्हें विश्वास में लिया। और न किसानों ने सरकार से इस तरह के तथाकथित कृषि सुधार की बात कानून बनाकर करने को कहा था।
नीति आयोग के सदस्य का बयान इस बात को भी बेनकाब करता है कि संसद में कानून पारित हो जाने और किसान संगठनों द्वारा इसका विरोध किए जाने के बाद भी पिछले तीन – चार महीनों में सरकार की ओर से किसानों की आशंकाओं को दूर करने की कोई पहल नहीं की गई। उसने किसानों के विरोध को बहुत ही हल्के में लिया। मीडिया में बिना जनाधार वाले कागजी किसान संगठनों के माध्यम से कृषि कानूनों को किसान हित में बताने की चाल अब केन्द्र के गले की हड्डी बनता दिखाई दे रहा है। ■
( ● लेखक: जनसरोकारों व “युगवाणी” समाचार पत्रिका से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार हैं )