बागी गांव: हरियाणा का वह गांव जिसने अंग्रेज़ों को तीन बार हराया

 

यह साल 1857 का मई महीना था, जब हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेज़ों के बेलगाम शासन के खिलाफ पूरे उत्तर भारत में हथियार उठा लिए और बहादुरशाह जफर को दिल्ली का सम्राट मान लिया. हरियाणा की रियासतों ने अपने निजी स्वार्थों के हिसाब से अपने फैसले लिए. अपने इन्हीं स्वार्थों के चलते कुछ रियासतों ने अंग्रेज़ो से बगावत की तो कुछ ने अंग्रेजों का साथ दिया. लेकिन जनता के हित सीधे अंग्रेज़ों के खिलाफ थे, खासकर देहातियों के. उस समय गाँव की 90% आबादी खेती बाड़ी पर निर्भर थी. किसानों की यह बड़ी आबादी अंग्रेजों के बेहिसाब लगान की दरों से बहुत ज्यादा परेशान थी. अच्छी फसल होने पर भी किसान लगान नहीं दे पा रहे थे. जिसकी वजह से किसान या तो कर्जदार हो जा रहे थे या फिर डिफ़ाल्टर. डिफ़ाल्टर किसान को जेल में डाल दिया जाता था और चौपालों में भरे गांव के बीच कान पकड़वाकर उन्हें जलील किया जाता था. अंग्रेज़ों की इस लगान नीति ने किसानों का जीना मुहाल कर दिया था. उनका देश में बने रहने का मतलब था लगान के रूप में आर्थिक शोषण का जारी रहना. 1840 के बाद फसलों के दामों में 50% तक आई गिरावट ने इस आग में घी का काम किया था. इस शोषण से मुक्ति पाने के लिए हरियाणा के गांव वालों ने हर जगह विद्रोह में भाग लिया. हजारों की संख्या में शहादतें दी, जख्मी हुए, तोपों से उड़ाए गए, जिंदा दफनाए गए, फांसी चढाए गए, हाथों में कील गाड़कर पेड़ों पर टांग दिए गए.

यह कहानी भी एक ऐसे ही गांव की ही है, जिसने लगान को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल छेड़ दिया था. हरियाणा के पानीपत जिले के करनाल परगने में एक गांव पड़ता है बल्ला. जिसकी बसावट आज के करनाल शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिम में है. 1857 में ही इस गांव ने चौधरी रामलाल मान, भूप सिंह मान, सुल्तान सिंह मान, लाल सिंह मान, फतेह सिंह मान और पंडित रामलाल के नेतृत्व में अंग्रेजों को लगान देने से इनकार कर दिया था. देहातियों के लिए लगान की दरें न केवल ज्यादा थीं, बल्कि आसपास के गांवों की तुलना में दोगुनी थीं. जब लगान नहीं मिला तो, अंग्रेज अधिकारियों ने गांव पर हमला करने की योजना बनाई और अलग-अलग राजाओं से इस हमले के लिए मदद भी मांगी.

साल 1857. जुलाई आते-आते ब्रिटिश हुकूमत दिल्ली पर एक बार फिर से काबिज हो चुकी थी. जुलाई महीने की 14 तारीख को तड़के की पोह फटने से पहले ही अंग्रेजी फौज की एक पलटन ने करनाल के गांव बल्ला के बाहर डेरा डाल लिया था. कैप्टन विलियम टैम्पलर ह्यूज, इस पल्टन की कमान संभाल रहे थे. वह अपने फौजी कैंप से प्रोविंसियल कमांडर-इन-चीफ को भेजी अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, “13 जुलाई की शाम को मुझे करनाल के कलेक्टर मिस्टर ले बास से एक चिट्ठी प्राप्त हुई, जिसमें उन्होंने मुझसे बल्ला गांव से लगान इकट्ठा करने के लिए सैनिकों की टुकड़ी लेकर आने की मांग की थी. इस चिट्ठी के मिलते ही मैं 14 जुलाई को सुबह 1 बजे, अपने साथ सेना की टुकड़ी नंबर 244 लेकर, करनाल से 29 मील दूरी स्थित बल्ला गांव में जा पहुंचा. इस टुकड़ी की कमान मेरे हाथ में थी.”

बल्ला मुख्य रुप से मान गोत के जाटों का गांव था. साल 1857 के दौरान गांव के रहवासी मुनक उर्फ ​​होलीवाला गेट, पाढ़ा गेट, गोली गेट और मठ गेट नाम के चार गेटों के भीतर रहते थे. पक्के घर इन गेटों के भीतर थे, जबकि गांव की फिरनी पर कच्ची झोंपड़ियां, तूड़ी के कूप, बिटोड़े, सूखा ईंधन और कुरड़ियां थी. गांव 5 फुट चौड़ी माटी की एक ऐसी दीवार के अंदर बसा हुआ था, जिसके नीचे खाई खुदी हुई थी. गांव के बगल में उत्तर से दक्षिण की ओर एक कच्ची नहर बहती थी जिसे पुरानी नदी कहा जाता था. यह पुरानी नदी आज अभी भी मौजूद है, लेकिन अब लोग इसे “गंदा नाला” कहते हैं.

जब कैप्टन ह्यूज बल्ला गांव पहुँचा, तो उसने देखा कि चारदीवारी से घिरे हुए गांव के अंदर जाने के लिए बनाए गए चार बड़े दरवाजों के फाटक बंद हैं. काफी हद तक पक्की ईंटों से बना यह गांव जमीन से कुछ उंचाई पर बसा हुआ था, और चारों तरफ से एक चौड़ी दीवार और खाई से घिरा हुआ था. फिरनी से गांव की और जाने वाली हरेक गली के मुहाने पर जोरदार तरीके से नाकेबंदी की गई थी.

लेकिन गांव वालों के इन सारे इंतजामात का लेफ्टिडेन्ट ह्यूज को तब पता चला, जब उन्होंने गांव के अन्दर घुसने का प्रयास किया. लेफ्टिडेन्ट ह्यूज कमांडर-इन-चीफ को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं, “मैं अपनी पलटन के साथ मुनक की तरफ से आया था, और सामने पड़ने वाले ​​होलीवाला गेट के सामने रुक गया. यह एक गांव नहीं था, ब्लकि दो जुड़वां गांव थे, एक बल्ला और दूसरा बासा.”

ह्यूज गांव के जिस मुख्य दरवाजे के सामने जाकर रुके थे, उस दरवाजे की नाकेबंदी के पीछे सैंकड़ों किसान तोड़ेदार बंदूकें और खेतीबाड़ी के औजार लिए छुपे हुए थे. कैप्टन ह्यूज आगे बढ़े और उन्होंने एक ऊंची आवाज में गांव वालों को बांग देकर कहा, “मैं सरकार की तरफ से लगान लेने आया हूं.”

ह्यूज अपनी बात खत्म करते, उससे पहले ही गांव वालों ने रौला डालना शुरू कर दिया और किसानों की तोड़ेदार बंदूकों से एक बारूद का गोला ह्यूज की पलटन पर आन गिरा. उस गोले की चपेट में आकर तीन घोड़े घायल हो गए और अंग्रेजी फौज का एक तुरहेदार मारा गया.

गांव वालों की और से हुए इस हमले को देखकर कैप्टन हक्का-बक्का रह गया. उन्हें अपनी अंग्रेजी फौज के साथ पीछे हटना पड़ा. उनकी पलटन के साथ आए पुलिस के एक जमादार ने उन्हें बताया कि इस मेन दरवाजे से कुछ 200 गज दूरी पर एक और दरवाजा है, जिसको तोड़कर गांव के अंदर जाया जा सकता है. कैप्टन ह्यूज ने उस जमादार की बात बड़ी ध्यान से सुनी और वही किया जो उस जमादार ने कहा.

1857 की क्रांति पर शोध करने वाले सीबी श्योराण अपनी किताब गैलेंट हरियाणा में लिखते हैं, “कैप्टन मुनक गेट से पीछे हटकर मठ दरवाजे को तोड़ने के लिए तैयार था, लेकिन अपनी सारी पलटन के साथ नहीं. उसने अपनी पलटन की एक बड़ी टुकड़ी को मठ दरवाजा तोड़ने के लिए तैयार किया. इस टुकड़ी की कमान खुद उसी के हाथों में थी. और एक छोटी टुकड़ी को गोली दरवाजे की और जाने का आदेश दिया. जिस टुकड़ी की कमान उसके हाथ में थी, उसने पूरी ताकत के साथ मठ दरवाजे पर हमला बोल दिया. इस बार दरवाजा टूट गया. लेकिन उस दरवाजे पर भारी लक्कड़ों से की नाकेबंदी में उसकी पलटन उलझ गई, जिसका फायदा उठाकर गांव वालों ने अंग्रेजी फौज पर ऐसा हमला किया की उन्हें गांव छोड़ काफी दूर तक भागना पड़ा.”

इस बार अंग्रेजी फौज के एक घुड़सवार सैनिक, एक घोड़े और एक पुलिस के जमादार को गांव वालों ने मौत के घाट उतार दिया. इतना ही नहीं, अंग्रेजी फौज के 2 बड़े अधिकारी, 9 घुड़सवार सैनिक और 12 घोड़े बुरी तरह घायल हो गए. खुद कैप्टन ह्यूज का घोड़ा भी बुरी तरह चोटिल हो गया था.

दो बार हारने के बाद अंग्रेजी सेना निराश हो चली थी, लेकिन कैप्टन अपने सैनिकों की वीरता पर गर्व कर रहा था. उसने सैनिकों और अपने खुद के मन को संतुष्ट करने के लिए यह दावा किया कि उसके घुड़सवार सैनिक बड़ी बहादुरी से लड़े, जिन्होंने गांव के दरवाजों की नाकेबंदी को धवस्त कर दिया और बागी गांव वालों को खूब नुकसान पहुंचाया. उसने अपने कमांडर को लिखी चिट्ठी में लिखा कि उसे गांव वालों के मुंह से यह सुनकर बहुत संतोष हुआ कि अंग्रेजी फौज ने 20 बागी मारे गिराए और 22 घायल हो गए.

खुद के मन को दिलासा देने के लिए कैप्टन का यह ख्याल अच्छा था, लेकिन सच्चाई यह थी कि शाम ढलते-ढलते वह दो बार मुंह की खा चुका था और उन्हें पीछे हटना पड़ा था. दो बार हार चुकी अंग्रेजी फौज उस शुष्क शाम को गाँव के पूर्व में उस खुले मैदान में सुस्ता रही थी, जिसे अब टीप ज़मीन कहते हैं. वे ढंग से सुस्ता भी नहीं पा रहे थे, क्योंकि उन्हें रात को बागी गांव वालों के हमले का डर था, इसलिए उन्होंने गांव से काफी दूर खुले मैदान में यह पड़ाव डाला था.

अपने घायल घोड़े के साथ सुस्ता रहे ह्यूज के पास अपने सहयोगियों से मदद मांगने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था. उसने करनाल के नवाब, पटियाला के राजा और करनाल के कमीश्नर मिस्टर ले बास से तुरंत फौजी पलटनें भेजने की अपील की.

ह्यूज अपनी तैयारी में जुटे थे, तो गांव वाले भी अलग किस्म की तैयारियों में जुटे थे. बल्ला गांव के बागियों को आसपास के बागियों की मदद के लिए अधिक समय की जरूरत थी, जिसके लिए उन्होंने ह्यूज के पास सुलह करने का स्वांग रचा. उन्होंने रिश्वत के नाम पर कुछ पैसों के साथ एक बिचौलिया ह्यूज के पास भेजा, लेकिन ह्यूज अपनी हुकूमत के प्रति वफादार था, उसने रिश्वत लेने से मना कर दिया.

अंग्रेजी फौज हार जाएगी, यह किसी ने सोचा भी नहीं था, इसलिए यह खबर जंगल की आग की तरह फैल गई, जिसके कारण बागियों में गजब का उत्साह पनपा. रात के अंधेरे में बल्ला गांव के आसपास के बागी भी वहां इकट्ठा होने लगे. कैप्टन ने अपनी विभागीय चिट्ठी में लिखा कि उस रात सभी पड़ोसी गांवों के विद्रोही बल्ला गांव में आन पहुंचे थे और अगली सवेर, यानी 15 जुलाई को बल्ला गांव में उन विद्रोहियों की संख्या 2,000 से कम नहीं थी. उनके पास तोड़ेदार बंदूके थीं.

लेकिन पासा एकदम उस समय पलट गया, जब बल्ला गांव के बागी एक ऐसी गलती कर बैठे, जो उस साल अनेकों हिंदुस्तानी विद्रोहियों ने की थी. वे भोले-भाले गांव वाले उन नए तरह की बम-बंदूकों के बारे में कम समझ रखते थे, जिनसे अंग्रेजी फौज लैस थी. इसी नासमझी में वे गांव की किलेनुमा सुरक्षा को छोड़कर, खुले मैदान में अंग्रेजों से आन भीड़े.

कैप्टन ह्यूज अपनी एक विभागीय चिट्ठी में लिखते हैं, “15 तारीख को सुबह 8 बजे के करीब बागी हम पर हमला करने के लिए गांव से बाहर चले आए. उन्होंने हमारे सामने पड़ने वाली बणी और पुरानी नदी के किनारे-किनारे डेरा डाल लिया. मैं उन्हें खुले मैदान में खींचने की उम्मीद में बैठा रहा, लेकिन वे बणी और पुरानी नदी में छुपे रहे, जिससे वे हमारा कोई नुकसान नहीं कर सके. उस समय तक हमारे पास मेरे सहायक कैप्टन ह्यूग ले मिलेट, और डॉ. जॉन एडवर्ड ट्यूसन के अलावा केवल मेरी घुड़सवार सेना थी, लेकिन जल्द ही एडवर्ड एम. मार्टिनो, 10th नेटिव इनफेंट्री लेकर हमारी मदद में आन पहुंचे थे.”

भारत के प्रमुख इतिहासकार केसी यादव अपनी किताब ‘1857, द रोल ऑफ हरियाणा, पंजाब एंड हिमाचल’ में लिखते हैं, “जब गाँव वाले अपने मजबूत गढ़ से बाहर आकर कैप्टन ह्यूज का मुकाबला करने लगे तो ह्यूज इस हमले को नहीं झेल पाया. इस बार उसके कुछ अंग्रेज़ अफसर भी मारे गये. जब उसे लगा कि वह गाँव वालों का सामना नहीं कर पाएगा, तो वह फिर से भाग खड़ा हुआ.”

लेकिन उस दिन का सूरज ह्यूज के लिए ही चढ़ा था. जल्द ही अंबाला से अंग्रेजी फौज, करनाल नवाब की फौज और पटियाला के राजा की फौज उसके बचाव में तोपों के साथ आन पहुंची थी. तीन नई पलटनों ने कैप्टन को नया जीवनदान दिया था. तीन बार बुरी तरह से हारने के बाद कैप्टन ने अबके बड़े शातिराना ढंग से मोर्चा संभाला. उसने अपनी सेना को तीन हिस्सों में बाँट दिया, एक तरफ पटियाला के राजा की सेना, दूसरी तरफ करनाल के नवाब की सेना और तीसरी उसकी खुद की सेना. उसके बाद उसने गाँव पर एक साथ तीन दिशाओं से जोरदार हमला बोल दिया.

खुद ह्यूज ने गांव के मुख्य द्वार पर हमला किया और अपने सहायक लेफ्टिनेंट एच.एल. मिलेट के नेतृत्व में एक टुकड़ी से गांव से बाहर बणी और पुरानी नदी के किनारे छुपे उन बागियों पर हमला करवाया, जिन्होंने आज तड़के ही उसे खदेड़ दिया था.

इस बार ह्यूज का हमला सफल रहा. तोप से गोलाबारी करवा वह गांव के दरवाजों के फाटक तोड़ अंदर घुसने में कामयाब हो गया. गुस्साया ह्यूज कई देर तक बागियों पर हमले करता रहा. उसने झोपड़ियों और बिटोड़ों को पूरे गांव को जलाने के मनसूबे से आग के हवाले कर दिया, लेकिन पक्के मकान नहीं जल सके. उसने गांव के घरों में खूब लूटपाट की. किसानों के घरों से अनाज ही नहीं, बल्कि घी भी जब्त कर लिया और घरौंडा के तहसीलदार को सुपुर्द कर दिया.

गांव में अंग्रेजी फौज के घुसने से ज्यादा खतरनाक मंजर गांव के खेतों में पसरा. जो बागी गांव की बणी में और पुरानी नदी के किनारे बैठे थे, उन्हें सहायक लेफ्टिडेंड एच.एल मिलेट ने बुरी तरह खदेड़ दिया. वह बागियों को चार मील तक मारता रहा. कई बागी भागने में कामयाब रहे, लेकिन बल्ला गांव के खेत शहीद किसानों के खून से लाल हो चुके थे.  

लोककथाओं के अनुसार अंग्रेजी बंदूकधारियों में एक इस गांव का भांजा भी था, जो पंजाब का रहने वाला था और पटियाला राजा की सेना का तोपची था. वह गांव को बचाने के लिए गलत दिशा में गोलाबारी करता रहा. उसका कोई गोला बड़ के पेड़ों पर गिरा और कोई तालाब में. गांववालों के जेहन में यह इतिहास ताजा है. गांव के लोग आज भी अपना स्वर्णीम इतिहास याद कर बताते हैं कि इस युद्ध का निपटारा तब हुआ, जब पास के गांव माजरा के एक सेठ ने अंग्रेजों को लगान की रकम का एक हिस्सा लाकर दे दिया.

कैप्टन ह्यूज अपनी विभागीय चिट्ठी में लिखते हैं, “हमने गांव के चार नंबरदारों और कुछ बुजुर्गों को बंदी बना लिया था, जिन्हें एक हजार रुपए और बकाया लगान लेने के बाद छोड़ दिया गया.”

बल्ला गांव के किसानों की यह बगावत हरियाणा के इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय है. अप्रशिक्षित किसानों ने तोपखाने, घुड़सवार सेना और पैदल सेना के 300 से अधिक सैनिकों वाली शक्तिशाली ब्रिटिश सेना को चुनौती देने का साहस किया और तीन बार हराया भी. इस बगावत में 140 किसानों की शहादत हुई.

शहीद बागियों में थे,

(1) पेमा पान्ना के भूप सिंह, जो मलिकपुर गाँव से आए थे और बल्ला गांव में बस गए थे, (2) रुस्तम पान्ना के सुल्तान सिंह.

(3) सुक्खन पान्ना के हरिराम के पुत्र फतेह सिंह. (4) रामचंद पान्ना के लाल सिंह, और (5) रामचंद पान्ना के रामलाल मान (6) पंडित रामलाल (7) सुजान सिंह और उनके पिता उन शहीदों में से थे जिन्होंने इस बगावत में बढ़चढ़कर हिस्सेदारी की थी.

आज भी गांव के लोग इस बगावत और अपने उन सात योद्धाओं को बड़े चाव से याद करते हैं, जिन्होंने इस बगावत का नेतृत्व किया. अंग्रेजों ने इस गाँव को पूरी तरह से नष्ट कर दिया और विद्रोही गाँव घोषित कर दिया था. करनाल के मजिस्ट्रेट रहे ले बास और कैप्टन ह्यूज अपनी विभागीय चिट्ठियों में बल्ला गांव के बागी किसानों पर बेशक चुप्पी साधे रहे, लेकिन बल्ला गांव की धरती आज भी उन शहीद किसानों की शहादत को बड़े गर्व से याद करती है. बल्ला गांव के बाद अंग्रेजी फौज ने जलमाना गांव पर भी चढ़ाई की और वहां की बगावत को भी कुचल दिया.

reference

गैलेंट हरियाणा – सीबी श्योराण

‘1857, द रोल ऑफ हरियाणा, पंजाब एंड हिमाचल’ – केसी यादव

हरियाणा गजेटियर