एक करोड़ के जुर्माने वाला प्रदूषण अध्यादेश कितना किसान विरोधी?
आजकल रेडियो पर एक विज्ञापन बहुत सुनने को मिलता है। किसानों को पराली नहीं जलानी चाहिए। बिल्कुल सही बात है! लेकिन यह वैसा ही है जैसे कोई आपसे कहे कि कार नहीं चलानी चाहिए। क्या आप कार चलाना छोड़ देंगे? नहीं! आप चालान से बचने के लिए पॉल्यूशन कंट्रोल का स्टीकर कार पर लगवाएंगे और बेफ्रिक हो जाएंगे। हमारे देश में पॉल्यूशन कंट्रोल ऐसे ही होता है।
अब दिल्ली-एनसीआर और आसपास के इलाकों को वायु प्रदूषण से बचाने के लिए केंद्र सरकार एक अध्यादेश लेकर आई है। अध्यादेश, यानी ऐसा कानून जिसे संसद से पास कराए बिना लाया जाता है। क्योंकि संसद में बहस होती है। हालांकि, संसद में ध्वनिमत भी होता है। लेकिन वो बाद की बात है।
यह अध्यादेश लाना इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि दिल्ली में प्रदूषण के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही है। सरकार के पास कहने को कुछ खास नहीं था, इसलिए आनन-फानन में यह अध्यादेश लाया गया, जिसका नाम है राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिए आयोग अध्यादेश, 2020
इस अध्यादेश ने दिल्ली से सटे राज्यों के किसानों की बेचैनी बढ़ा दी है। क्योंकि इस अध्यादेश या इसके जरिये बनने वाले आयोग के आदेशों का उल्लंघन करने पर 5 साल तक की जेल हो सकती है और 1 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लग सकता है। अब बताइये, देश में कितने किसान एक करोड़ रुपये का जुर्माना भर सकते हैं। कई किसान तो जमीन-जायदाद बेचकर भी यह जुर्माना नहीं चुका पाएंगे। देश में 86 फीसदी किसानों के पास ढाई एकड़ से कम जमीन है।
केंद्र सरकार के प्रदूषण आयोग के निशाने पर किसानों के आने की आशंका इसलिए भी ज्यादा है, क्योंकि दिल्ली में प्रदूषण के लिए हरियाणा-पंजाब के किसानों को पहले ही विलेन बना दिया गया है। खासतौर पर, दिल्ली सरकार अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए दिल्ली के प्रदूषण का ठीकरा हरियाणा-पंजाब में पराली की आग पर फोड़ती है। जबकि खुद सरकार के आंकड़े बताते हैं कि करीब 70-80 फीसदी धुआं दिल्ली का अपना है। पराली के अलावा वाहन और फैक्ट्रियों के धुएं, सड़क और कंस्ट्रक्शन की धूल से भी खूब प्रदूषण फैलता है। लेकिन दोष ज्यादा किसानों पर जाता है, क्योंकि वो दूर हैं। उसकी आवाज दिल्ली तक नहीं पहुंचती।
हालांकि, सजा और जुर्माने के प्रावधान इस अध्यादेश का उल्लंघन करने वाली फैक्ट्रियों, कंपनियों और सरकारी विभागों पर भी लागू होते हैं। लेकिन प्रदूषण फैलानी वाली किसी फैक्ट्री के मालिक और किसान की जुर्माना भरने और कानूनी लड़ाई लड़ने की क्षमता में जमीन-आसमान का फर्क है। फिर इस आयोग के फैसलों को किसी सिविल कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। इसके लिए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी का दरवाजा खटखटाना पड़ेगा। कितने किसान ऐसे हैं जो वकील लेकर एनजीटी में मुकदमा लड़ सकते हैं?
दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण की रोकथाम के लिए जो आयोग बनेगा, वो पराली के इंतजाम के लिए किसानों को आदेश तो दे सकता है, लेकिन इस आयोग में किसानों का कोई प्रतिनिधि नहीं होगा। 18 सदस्यों वाले इस आयोग में ज्यादातर केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकारी होंगे। तीन टेक्नीकल मेंबर और तीन एनजीओ के प्रतिनिधि होंगे। सरकार कह सकती है कि एनजीओ वालों को ही किसानों का प्रतिनिधि मान लेंगे।
ताज्जुब की बात है कि एक ऐसा अध्यदेश जो पराली जलाने वाले किसानों को जेल भिजवा सकता है, उन पर भारी-भरकम जुर्माना लगावा सकता है, उसे लागू करने से पहले केंद्र सरकार ने किसानों के साथ विचार-विमर्श करना भी जरूरी नहीं समझा। दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण कोई रातोंरात पैदा हुई समस्या तो नहीं है, जिसके लिए अध्यादेश जैसे पिछले दरवाजे का इस्तेमाल किया गया।
कृषि से जुड़े तीन अध्यादेशों के मामले में भी ऐसा ही हुआ था। किसानों और राज्य सरकार को भरोसे में लिये बगैर केंद्र सरकार तीन अध्यादेश लेकर आई जो अब कानून बन चुके हैं। इनका खूब विरोध हो रहा है। अब ये चौथा अध्यादेश आ गया है जो किसानों की नाराजगी बढ़ा सकता है।
दरअसल, किसान मजबूरी में पराली जलाता है। पराली नहीं जलाना, उस पर एक आर्थिक बोझ है। अगर राज्य सरकारें किसानों को आर्थिक सहायता और विकल्प मुहैया कराएं तो किसान पराली जलाना बंद कर देंगे। बहुत से किसानों ने बंद कर भी दिया है। लेकिन राज्य सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के कहने बावजूद किसानों को पराली के इंतजाम के लिए 100 रुपये प्रति कुंतल की मदद नहीं दी। क्या इसके लिए किसी पर जुर्माना लगेगा?
इस मुद्दे पर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच टकराव बढ़ने के भी पूरे आसार हैं, क्योंकि यह अध्यादेश राज्यों के अधिकार और क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप करता है।
अध्यादेश का दायरा दिल्ली-एनसीआर और आसपास के उन इलाकों तक होगा, जहां का प्रदूषण एनसीआर तक पहुंचता है। यह परिभाषा काफी अस्पष्ट है। हरियाणा के 13, यूपी के 8 और राजस्थान के 2 जिले पहले ही एनसीआर में हैं। अगर आसपास के इलाकों को भी जोड लिया जाएगा तो प्रदूषण आयोग का दायरा पंजाब, राजस्थान और यूपी के कई जिलों तक पहुंच जाएगा। हरियाणा तो तकरीबन पूरा ही आयोग के दायरे में होगा। राज्य सरकारें इसे अपने क्षेत्राधिकार में दखल मान सकती हैं, क्योंकि राज्यों में भी प्रदूषण नियंत्रण का पूरा सिस्टम है। अध्यादेश में साफ लिखा है कि राज्यों के साथ टकराव की स्थिति में आयोग के आदेश ही मान्य होंगे।
सच तो यह है कि प्रदूषण सब फैलाते हैं और प्रदूषण रोकना हम सबकी जिम्मेदारी हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं है। कुछ लोगों पर प्रदूषण का इल्जाम ज्यादा जाता है, जैसे पराली जलाने वाले किसान। और कुछ लोग अपनी जिम्मेदारी से बच जाते हैं। रोडवेज की कई बसें कितना ज्यादा धुआं छोड़ती हैं! कई जगह नगर निगम के कूड़े में धुआं उठता रहता है। कंस्ट्रक्शन और सड़कों की धूल का इल्जाम किस पर डालेंगे? दरअसल, दिल्ली ही नहीं पूरे देश में प्रदूषण नियंत्रण की व्यवस्था सवालों के घेरे में है।
देश में वायु प्रदूषण रोकने का कानून 1981 में बन गया था। पर्यावरण संरक्षण का कानून भी 1986 से लागू हैं। लेकिन सवाल यह है कि जिस प्रदूषण को केंद्र का पर्यावरण मंत्रालय, केंद्र का पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड, राज्यों के पर्यावरण विभाग और राज्यों के पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड नहीं रोक पाये, उन्हें ये आयोग कैसे रोकेगा? क्योंकि जमीनी स्तर पर तो वही पुरानी व्यवस्था कायम रहेगी।
नया अध्यादेश लाकर सरकार ने खुद अपनी नाकामी स्वीकार कर ली है कि पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड पॉल्यूशन को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं। सबसे पहले तो इस सिस्टम को सुधारने की जरूरत है। क्योंकि सिर्फ दिल्ली-एनसीआर ही क्यों? साफ हवा का हक तो पूरे देश के लोगों का है।