फासीवादियों की देशभक्ति नहीं, उनकी दूसरों से घृणा उन्हें परिभाषित करती है!
अमेरिका के न्यूयॉर्क शहर में होने वाले जयपुर लिटरेचर फ़ेस्टिवल से कुछ लेखकों, बुद्धिजीवियों ने अपना नाम वापस ले लिया है. ऐसा उन्होंने एक सत्र में भारतीय जनता पार्टी की एक नेता को आमंत्रित किए जाने पर अपना ऐतराज़ जताने के लिए किया है.
यह स्वाभाविक ही है कि भाजपा नेता ने उनके इस कदम को उदारवादियों की असहिष्णुता का एक उदाहरण बतलाया है और कहा है कि इससे मालूम होता है कि ख़ुद से भिन्न विचारों के लिए उनके मन में कितनी घृणा है. उत्सव में आमंत्रित युगांडा के अध्यापक और लेखक महमूद ममदानी ने कहा है कि वे इसमें ज़रूर शामिल होंगे. किसी के विचार से सख़्त असहमति के बावजूद उसकी उपस्थिति के कारण किसी कार्यक्रम का बहिष्कार उनकी दृष्टि में ग़लत है.
लेखक सुचित्रा विजयन ने याद दिलाया कि इस्राइल के संदर्भ में ऐसा नहीं सोचते. वहां वे बहिष्कार की नीति का समर्थन करते हैं. ममदानी का तर्क होगा कि इस्राइल तक़रीबन नस्लभेदी नीति पर आधारित राष्ट्र बन गया है. क्या भारत की तुलना इस्राइल से की जा सकती है? क्या भारत की संघीय सरकार का नेतृत्व जो राजनीतिक दल कर रहा है, उसकी राजनीतिक विचारधारा इस्राइल से तुलनीय है?
भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा है. आरएसएस तक़रीबन 100 साल पुराना फ़ासिस्ट संगठन है. इसका मक़सद भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का है. हिंदू राष्ट्र का अर्थ है या तो मुसलमानों और ईसाइयों का पूरी तरह सफ़ाया या वह मुमकिन न होने पर उन्हें स्थायी तौर पर दूसरे दरजे के शहरियों में में तब्दील कर देना.
ऐसा कई प्रकार से किया जाता है. यह तो कहा ही जाता है कि भारत पर पहला अधिकार हिंदुओं का है. इसलिए उनकी जीवन पद्धति ही भारतीय जीवन पद्धति होगी. जो हिंदू नहीं हैं, उन्हें यह जीवन पद्धति अपना लेने में क्यों ऐतराज़ होना चाहिए?
इससे आगे जाकर ऐसे क़ानून बनाए जाते हैं जिनसे मुसलमानों और ईसाइयों के जीवन के अलग-अलग पक्षों को नियंत्रित किया जा सके. ऐसे क़ानून जो गोमांस पर प्रतिबंध लगाते हैं. मुसलमान पुरुषों के हिंदू स्त्रियों से संबंध बनाने या विवाह करने को जुर्म ठहराते हैं. मुसलमानों के जन्म को ही भारत और हिंदुओं के ख़िलाफ़ साज़िश माना जाता है. इसलिए उनके जनसंख्या नियंत्रण के उपाय सुझाए जाते हैं.
ऐसे प्रशासनिक आदेश देश के अनेक हिस्सों में जारी किए गए हैं जो मुसलमानों के ज़मीन ख़रीदने या मकान बनाने पर प्रतिबंध लगाते हैं. सार्वजनिक जगहों में वे चाहे स्कूल हों या मॉल, मुसलमान पहचान के चिह्नों पर ऐतराज़ किया जाने लगा है. कश्मीर में मुसलमान कर्मचारियों को सरकार बिना कारण बताए बर्खास्त कर सकती है. सिर्फ़ राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर.
क़ानूनों के अलावा मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ सरकारी और सड़क की हिंसा रोज़ाना की बात है. उनकी नमाज़, मस्जिदों पर हमले अब आम हो चुके हैं. यह सरकार तो करती ही है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से संगठन और लोग हिंदू त्योहारों में और यूं भी मस्जिदों पर, मुसलमान मोहल्लों पर हमले कर सकते हैं. अब सरकार खुले आम उनके घर, दुकान बुलडोज़र से ढहा दे सकती है. असम, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात, दिल्ली में ऐसी घटनाएं अब लगातार हो रही हैं.
मुसलमान किसी विरोध-प्रदर्शन में काफ़ी ख़तरा उठाकर ही शामिल हो सकते हैं. मुसलमान पत्रकार का जीवन जोखिम से भरा है. कश्मीर के पत्रकारों, सिद्दीक़ कप्पन या मोहम्मद ज़ुबैर के साथ जो हुआ, वह सबके सामने है.
क़ानूनी तौर पर मुसलमानों के जीवन को अवैध ठहराने और उन पर रोज़ाना हिंसा के अलावा एक तीसरा तरीक़ा है उन्हें हिंदुओं के बीच लगातार बदनाम करना. भारत का मीडिया इस काम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन की तरह ही काम कर रहा है. मुसलमान बच्चे पैदा करके अपनी आबादी बढ़ाने का षड्यंत्र कर रहे है, वे सरकारी नौकरियों में घुसने की साज़िश कर रहे हैं, वे ज़मीन ख़रीदने की साज़िश कर रहे हैं, वे हिंदू लड़कियों को भरमाकर उनसे रिश्ता बनाने की साज़िश कर रहे हैं. ऐसी साज़िशों का अंत नहीं है.
मुसलमान जो कुछ भी करें उसे जिहाद कहकर हिंदुओं में उनकी एक डरावनी तस्वीर बनाई जाती है. हिंदुओं में उनके प्रति भय पैदा करके उनके ख़िलाफ़ हिंसा को जायज़ ठहराया जाता है. मुसलमान बाहरी हैं, हमलावरों की संतान हैं, दीमक की तरह देश को चाट रहे हैं, हिंदुओं के संसाधनों में हिस्सा ले रहे हैं, उनकी औरतों को छीन रहे हैं: ऐसी बातें अब खुलेआम, बिना किसी लिहाज़ के की जाती हैं.
यह सब कुछ भारतीय जनता पार्टी के छोटे-बड़े नेता करते हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से औपचारिक, अनौपचारिक तौर पर जुड़े संगठन करते हैं. मसलन विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, दुर्गा वाहिनी,आदि. उसके अलावा हिंदू मुन्नानी, राम सेने, अभिनव भारत, हिंदू युवा वाहिनी जैसे सैकड़ों संगठन पूरे भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संरक्षण या शह पर सिर्फ़ मुसलमानों ही नहीं बल्कि ईसाइयों के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार, घृणा अभियान और हिंसा करते ही रहते हैं.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए शैक्षिक संगठन, जैसे विद्या भारती, सरस्वती शिशु मंदिर, एकल विद्यालय हज़ारों स्कूल चलाते हैं जो बच्चों और किशोरों में मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ ज़हर भरते रहते हैं. इससे लगातार एक बड़ी आबादी मुसलमान और ईसाई विरोधी घृणा में दीक्षित होती रहती है. इससे मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ हिंसा की ज़मीन तैयार होती रहती है.
ये सारी बातें भारत में जानी हुई हैं. फिर भी ऐसे बुद्धिजीवी हैं जो आरएसएस को फ़ासिस्ट संगठन कहने पर नाराज़ हो उठते हैं. उनका तर्क है कि वह देशभक्त संगठन है. देशभक्ति क्या है? क्या देश में रहने वाली आबादियों के ख़िलाफ़ घृणा पैदा करते हुए, उनके ख़िलाफ़ हिंसा करते हुए की जा सकती है?
यह कहा जाता है कि आरएसएस भारत से प्रेम करने वालों का संगठन है. तो क्या इस्राइली जियानवादी उस देश से प्रेम नहीं करते? या क्या जर्मन और इतालवी फ़ासिस्ट अपने देशों से प्रेम नहीं करते थे? फ़ासिस्ट की देशभक्ति नहीं, उसकी दूसरों से घृणा उसे परिभाषित करती है.
यह आश्चर्य की बात नहीं कि गांधी की हत्या का इरादा ज़ाहिर करने और उस पर उल्लास मनाने वाले आरएसएस को लोग सभ्य संगठन मानते हैं और ऐसा न करने पर दूसरों की भर्त्सना करते हैं. यह भी कहा जाता है कि आरएसएस ने किसी भी दूसरे संगठन के मुक़ाबले देश को जोड़ने का काम कहीं अधिक किया है. क्या सचमुच? उसने भारत प्रेम को मुसलमान और ईसाई घृणा का पर्याय बना दिया है.
आरएसएस को ही आदरणीय नहीं माना जाता, लालकृष्ण आडवाणी को राष्ट्र पुरुष के रूप में प्रचारित किया जाता है. किसी भी दूसरे सभ्य देश में आडवाणी पर हिंसा का प्रचार करने और भड़काने के लिए मुक़दमा चलता और सजा होती. भारत की अदालतें भी इसे बहुत गंभीर मसला नहीं मानतीं.
दुख की बात यह है कि भारत में मुसलमानों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा को असभ्य नहीं माना जाता. ऐसा करने वाला सम्माननीय बना रहता है. उसे जनता को चुनाव में जिताती ही है, बुद्धिजीवी भी मुसलमान विरोधी घृणा के विचार को विचारणीय मानते हैं. व
ममदानी इस्राइल के मामले में दुनिया के सारे देशों से बहिष्कार की नीति की मांग करते हैं. लेकिन भारत में उसी प्रकार की राजनीति को एक और ऐसा विचार मानते हैं, जिससे मेज़ पर असहमति ज़ाहिर की जानी चाहिए. उनके मुताबिक़ असहमत होते हुए भी मुसलमान विरोधी विचार को मंच दिया जाना चाहिए.
ममदानी अकादमिक व्यक्ति हैं, शोध को महत्त्व देते होंगे. फिर वे नस्लकुशी के अध्येता ग्रेगरी डैंटन की चेतावनी को क्यों नज़रअंदाज़ करना चाहते हैं कि भारत अब नस्लकुशी के काफ़ी क़रीब पहुंच चुका है? इस नस्लकुशी की राजनीति करने वालों के साथ मंच साझा करना किस प्रकार बौद्धिकता के लिए उपयोगी और क्यों आवश्यक है?
साभार- द वायर
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