भाजपा से जाटों की नाराजगी कराएगी किसान राजनीति की घर वापसी

 

उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में अभी तक एक ही चीज स्पष्ट है कि कोई लहर नहीं है। फरवरी की उतरती ठंड में राजनैतिक तापमान ज़रूर बढ़ा है, लेकिन सांप्रदायिकता के शोले नहीं भड़के। सूबे में अमन-चैन के लिहाज से यह बात सुकून देती है। यह भी सच है कि यूपी की राजनीति ज़मीनी मुद्दों और जन समस्याओं के बजाय घूम-फिरकर धर्म और जाति पर ही आ जाती है। तभी तो सारे चुनावी पूर्वानुमान सिर्फ एक सवाल पर टिके हैं – क्या मुसलमान बटेगा?

2014 के लोकसभा चुनाव की तरह इस बार न तो मोदी लहर है और न ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की आंंधी। इन दोनों फैक्‍टरों की गैर-मौजूदगी उत्तर प्रदेश खासकर पश्चिमी यूपी में किसान राजनीति को जिंदा कर सकती है। जिंदा नहीं भी किया तो धार्मिक उन्माद में पूरी तरह गुम होने तो बचा ही सकती है।

पिछले कई सालों से कृषि की बदहाली और अब नोटबंदी की मार ने कृषक जातियों खासकर जाट समुदाय को बुरी तरह प्रभावित किया है। ऊपर से मुजफ्फनगर दंगों को जिस तरह जाट-मुस्लिम का रूप देकर जाटों के परंपरागत सियासी गठजोड़ को खत्म किया गया, उसने जाटों को राजनीतिक रूप से ठगे जाने के अहसास करा दिया है। यह जाट-मुस्लिम और पिछड़ी जातियों का गठजोड़ ही था, जो एक किसान नेता को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने का माद्दा रखता था। इस गठजोड़ के दम पर ही उत्तर भारत में किसान राजनीति आगे बढ़ी थी।

लेकिन मुजफ्फरनगर दंगों ने जाट राजनीति के साथ-साथ किसान राजनीति को निपटाने का काम किया। यह बात जाट समझ चुके हैं। अपनी सियासी जमीन खो देने का अहसास जाटों को तब हुआ जब हरियाणा में पहले उनकी अनदेखी कर गैर-जाट को मुख्‍यमंत्री बनाया गया और फिर उनके आरक्षण आंदोलन को बुरी तरह कुचला गया।

विधानसभा चुनावों से पहले सपा और भाजपा ने जिस तरह अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल से किनारा किया, यह बात भी जाटों को चुभ रही है। वजूद खोने और सियासी तौर पर अछूत हो जाने का अहसास दिला रही है। जाटों के इस गुस्से को अजित सिंह और जयंत चौधरी की सभाओं में जुट रही भीड़ से समझा जा सकता है। ये वही जाट हैं जिनके मोदी मोह के चलते 2014 में अजित सिंह और उनके पुत्र को बुरी तरह हार का मुंह देखना पड़ा था। इस बार ये भाजपा को सबक सिखाने के मूड में हैं। दंगों को लेकर पछता रहे हैं। दंगों की सियायत में इस्‍तेमाल हो जाने के मलाल से भरे बैठे हैं।

अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अध्‍यक्ष यशपाल मलिक जगह-जगह सभाएं कर भाजपा के खिलाफ वोट डालने की अपील कर रहे हैं। मलिक कहते हैं कि कश्‍मीर में भी पैलेट गन का इस्‍तेमाल होता है, लेकिन हरियाणा के आंदोलनकारियों पर सीधे बंदूक की गोलियां दागी गईंं थीं। मलिक के मुताबिक, केंद्र और हरियाणा की भाजपा सरकारों ने आरक्षण के मुद्दे पर जाटों को धोखा दिया है। जाटों की तमाम खाप भाजपा के खिलाफ लामबंद हो चुकी हैं। राजस्‍थान और हरियाणा से कई जाट नेता पश्चिमी यूपी पहुंचकर भाजपा के खिलाफ माहौल बना रहे हैं। किसान और जाट राजनीति बचाए रखने के लिए सामाजकि सद्भाव बेहद जरूरी है, इसलिए अजित सिंह भी आपसी भाईचारा बनाए रखने पर खूब जोर दे रहे हैं।

उत्‍तर भारत में जाट राजनीति कभी किसान राजनीति का पर्याय हुआ करती थी। चौधरी चरण सिंह, चौधरी देवीलाल जैसे नेताओं ने भारतीय राजनीति को गांव-देहात का रास्‍ता दिखाया। लेकिन वीपी सिंह ने जाटों को आरक्षण से वंचित रख उनसे पिछड़ों की नुमाइंदगी का हक छीन लिया तो राम मंदिर आंदोलन ने इन्‍हें भगवा राजनीति का लठैत बना दिया। कहना मुश्किल है कि भाजपा से जाटों का मोहभंग राष्‍ट्रीय लोकदल और अजित सिंह को कितना फायदा पहुंचाएगा। लेकिन एक बात तय है, इन चुनावों के परिणाम जाटों और किसानों के प्रति सरकारों और राजनैतिक दलों को अपना नजरिया बदलने पर मजबूर करेंगे।

इन चुनावों में सांप्रदायिक लहर का न होना किसान राजनीति के ल‍िए एक शुभ संकेत है। हम नौजवान किसानों की उस नई पीढ़ी को नजरअंदाज नहीं कर सकते, जो खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों को लेकर बेहद जागरूक है। जिन्‍हें पता है कि कौड़ि‍यों के भाव बिकते आलू और महंगे चिप्‍स के बीच का अंतर क्‍यों और किसने पैदा किया है। इस बार अपने राजनैतिक वजूद को बचाने के लिए ही सही अगर जाट राजनीति प्रभावी होती है तो इसे किसान राजनीति के लिए भी शुभ संकेत माना जाना चाहिए।