खेती-किसानी पर चर्चा के बिना गुजरता चुनाव
Photo by ASR from Pexels
राजनैतिक दल चुनाव जीतने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों की समस्याएं उठाने के साथ-साथ सरकार बनने के बाद उन समस्याओं को दूर करने का वायदा भी करते हैं। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में हिस्सेदारी कम होने के बावजूद खेती-किसानी आज भी भारत की आबादी को प्रत्यक्ष रोजगार देती है और अप्रत्यक्ष रूप से औद्योगिक तथा सर्विस सेक्टर को कच्चा माल व बाजार उपलब्ध कराती है। रोजगार और बाजार को सर्वाधिक प्रभावित करने वाली आर्थिक गतिविधि खेती-किसानी की समस्याएं और उनके समाधान के उपाय इस बार चुनावी चर्चा से यदि गायब नही हैं तो प्रमुखता में भी नही हैं।
अगर वर्ष 2014 से तुलना करें तो तब कृषि एवं किसानों के लिए भाजपा की चिन्ता व प्रतिबद्धता आज के मुकाबले अधिक दिखाई देती थी। सार्वजनिक सभाओं में नरेंद्र मोदी यूपीए सरकार पर तंज करते हुए दोहराते थे कि कांग्रेस की नीति ‘मर जवान, मर किसान’ की हैं और यदि उनकी सरकार बनती है तो वे किसानो की बहुप्रतिक्षित मांग ‘स्वामीनाथन आयोग’ की संस्तुतियों को लागू कर किसानों को उनकी लागत पर 50% लाभ देंगे, कृषि बाजार में आमूल-चूल परिवर्तन कर बिचौलियों को कृषि बाजार से बाहर करेंगे, कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाएंगे, मध्यम एवं दीर्घकालिक सिंचाई योजनाओं को समयबद्ध तरीके से पूरा कर ‘पर ड्राप-मोर क्राप’ की व्यवस्था करेंगे।
2014 के चुनावों में किसानों ने भाजपा के वायदों पर भरोसा वोट दिए और केंद्र में भाजपा की सरकार बनी। लेकिन खेती और किसान सरकार की प्राथमिकता में नहीं आ पाए। मोदी सरकार ने मध्यप्रदेश सरकार को गेहूं पर दिए जा रहे बोनस को समाप्त करने के लिए लिखा तथा सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से बताया गया कि किसानों को लागत पर 50% लाभ देने वाली स्वामीनाथन कमेंटी की रिपोर्ट लागू करना संभव नहीं है।
सरकार के पहले दो वर्षों 2014-15 और 2015-16 में किसानों को सूखे का भी सामना करना पड़ा जिससे उसकी आमदनी प्रभावित हुई। लेकिन बाद के तीन वर्षों में रिकार्ड उत्पादन तथा सरकार की महंगाई नियन्त्रण की नीतियों के कारण किसानों की आमदनी में कमी आई। चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार ने स्वामीनाथन की रिपोर्ट के अनुसार न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का दावा तो किया लेकिन उससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ा क्योंकि उसकी गणना में भूमि का किराया सम्मिलित नही किया गया था।
मोदी सरकार की बड़ी-बड़ी घोषणाओं जैसे प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, प्रधानमंत्री किसान सिंचाई योजना, मृदा स्वास्थ्य योजना, गन्ने का 14 दिनों में भुगतान आदि जमीन पर असफल होने के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में चुनाव जीतने के लिए कृषि ऋण माफी का वायदा करना पड़ा। विभिन्न राज्यों में आधे-अधूरे तरीके से कृषि ऋण माफी योजना लागू भी की गई।
आखिरकार तमाम संरचनात्मक सुधारों को भूलकर भाजपा ने तेलंगाना और उड़ीसा सरकार के 2 हेक्टेयर तक जोत वाले किसानों के लिए 6000 रुपये/वार्षिक की प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना लागू कर चुनाव से पहले किसानों के खाते में 2000 रुपये हस्तांतरित करने का दांव चला। जो खेती-किसानी के मोर्चे पर सरकार की नाकामी को साबित करता है।
विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा सपा-बसपा-रालोद गठबंधन ने भी किसानों से कर्ज माफी का वायदा तो किया है लेकिन यह चुनाव भी खेती-किसानी पर बिना किसी गंभीर विमर्श और कार्य योजना के बिना गुजर रहा है।
(लेखक उत्तर प्रदेश योजना के पूर्व सदस्य और कृषि से जुड़े मामलों के जानकार हैं)