रेत खनन: 16 महीनों में 400 से अधिक मौत, पर्यावरण के साथ जान का भी नुकसान
आमतौर पर नदियों से होने वाले अवैध और अवैज्ञानिक रेत खनन को पर्यावरण और जलीय जीवों पर खतरे के रूप में देखा जाता है. लेकिन इसका एक और स्याह पक्ष भी है, जो न तो सरकारी फाइलों में दर्ज होता है और न कहीं इसकी सुनवाई होती है. ये है रेत खनन के चलते हर साल जान गंवाने वाले सैकड़ों लोग और इसके चलते बिखरने वाले उनके परिवार.
हरियाणा निवासी धर्मपाल को इस स्याह पक्ष को अब ताउम्र भोगना होगा. साल 2019 के जुलाई महीने में उनके बेटे संटी (18 साल) और भतीजे सुनील (15 साल) की सोम नदी में डूबने से मौत हो गई. यमुनानगर ज़िले के कनालसी गांव के रहने वाले धर्मपाल के भाई तेजपाल के मुताबिक दोनों भाई नदी में नहाने गए थे. नदी में खनन की वजह से कई गहरे गड्ढे बन गए थे. किसी को पता नहीं था कि यहां खनन हो रहा है.
उन्होंने मोंगाबे-हिंदी से कहा, “हमने दो महीने तक पुलिस-प्रशासन के चक्कर काटे. ज़िलाधिकारी के पास भी गए. हमारी शिकायत नहीं सुनी गई. बच्चों की मौत पर मुआवजा भी नहीं मिला. हम मज़दूर हैं. कितने दिन काम छोड़कर जाते. उस दिन के बाद से हम अपने बच्चों को नदी की तरफ जाने ही नहीं देते.” धर्मपाल के पास अब भी बेटे की मौत से जुड़े दस्तावेज़ संभाल कर रखे हुए हैं. वह अदालत में केस दाखिल करने की तैयारी में हैं. परिजनों के मुताबिक जिलाधिकारी ने कहा कि दोनों बच्चे बालिग नहीं थे. वे खुद नदी में नहाने गए थे. इसलिए गलती उनकी थी. इस मामले में कुछ नहीं किया जा सकता.
कनालसी गांव के पास यमुना, सोम और थपाना नदियों का संगम है. इसी गांव के रहने वाले और यमुना स्वच्छता समिति से जुड़े किरनपाल राणा बताते हैं कि 2014 में उनके क्षेत्र में खनन शुरू हुआ. तब से सिर्फ उनके गांव से ही पांच बच्चों की मौत नदी में डूबने से हो चुकी है. वह बताते हैं कि सोम नदी में तो खनन की अनुमति भी नहीं है. वहां चोरी-छिपे खनन होता है.
किरनपाल कहते हैं, “प्रशासन मानने को तैयार नहीं है कि खनन के लिए खोदे गए गड्ढ़ों में डूबने से बच्चों की मौत हुई है. उन बच्चों को नहीं पता था कि मशीनों से नदी में 30 फुट तक गहरे गड्ढे खोद दिए गए हैं. न ही वहां चेतावनी के लिए कोई बोर्ड था. खनन विभाग, यमुनानगर प्रशासन और हरियाणा सरकार ने उनकी कोई मदद नहीं की. उन बच्चों का पोस्टमार्टम तक नहीं कराया गया. बच्चे गांव के घाटों पर खेलने और तैरने के लिए जाते थे. अब उन बच्चों को यही नदी डराने लगी है.” हरियाणा में नदी में रेत खनन की सीमा तीन मीटर गहराई तक ही तय है.
वहीं हरियाणा हाईकोर्ट में वकील सुनील टंडन कहते हैं, “मेरे पास इस समय कनालसी गांव और इसके नजदीक के दो गांवों के तीन केस हैं जिनमें छः किशोरों की मौत हुई है. इन मौतों की सबसे बड़ी वजह खनन है. साथ ही सिंचाई विभाग की लापरवाही भी है. नदी के किनारों को भी सुरक्षित नहीं बनाया गया है. नदी कहीं 10 फुट गहरी है तो कहीं 30 फुट. खनन हो रहा है तो वहां कोई सिक्योरिटी गार्ड या नोटिस बोर्ड होना चाहिए. ताकि नदी किनारे रह रहे लोगों को सतर्क किया जा सके.”
रेत की मांग काफी अधिक है. वैश्विक स्तर पर सालाना पांच हजार करोड़ मीट्रिक टन रेत और बजरी का इस्तेमाल होता है. चीन के साथ भारत भी ऐसा देश है जहां रेत बनने की गति से अधिक इसका खनन होता है. अधिक मांग की वजह से भारत को कंबोडिया और मलेशिया जैसे देशों से रेत आयात करना पड़ता है. रेत की मांग अधिक होने की वजह से इसका खनन, खासकर अवैध खनन काफी फल फूल रहा है.
भारत सरकार ने वर्ष 2016 में टिकाऊ खनन के मद्देनजर एक दिशा-निर्देश प्रकाशित किया था. हालांकि इस दिशा-निर्देश का गंभीरता से पालन नहीं होता.
जानलेवा बनता रेत खनन
गैर-सरकारी संस्था साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (एसएएनडीआरपी) ने दिसंबर 2020 से मार्च 2022 तक, 16 महीने में रेत खनन की वजह से होने वाली दुर्घटनाओं और हिंसा के मामलों का मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर अध्ययन किया है.
इसके मुताबिक इस दौरान रेत खनन से जुड़ी वजहों के चलते देशभर में कम से कम 418 लोगों की जान गई है. 438 घायल हुए हैं. इनमें 49 मौत खनन के लिए नदियों में खोदे गए कुंड में डूबने से हुई हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि खनन के दौरान खदान ढहने और अन्य दुर्घटनाओं में कुल 95 मौत और 21 लोग घायल हुए. खनन से जुड़े सड़क हादसों में 294 लोगों की जान गई और 221 घायल हुए हैं. खनन से जुड़ी हिंसा में 12 लोगों को जान गंवानी पड़ी और 53 घायल हुए हैं. अवैध खनन के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले कार्यकर्ताओं/पत्रकारों पर हमले में घायल होने वालों का आंकड़ा 10 है. जबकि सरकारी अधिकारियों पर खनन माफिया के हमले में 2 मौत और 126 अधिकारी घायल हुए हैं. खनन से जुड़े आपसी झगड़े या गैंगवार में 7 मौत और इतने ही घायल हुए हैं.
दिसंबर 2020 से मार्च 2022 के बीच देश के उत्तरी राज्यों उत्तर प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखंड, पंजाब, दिल्ली, जम्मू-कश्मीर और चंडीगढ़ में सबसे ज्यादा 136 मौत हुई हैं. इनमें से 24 मौत खनन के लिए खोदे गए गड्ढों में डूबने से हुई हैं.
नदियों को खनन से बचाने के लिए आंदोलनरत हरिद्वार के मातृसदन आश्रम ने 29 अप्रैल को उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नाम ज्ञापन भेजा. इसमें कहा गया, “हरिद्वार में खनन का माल ले जाने वाले डंपर की चपेट में आने और खनन के लिए बनाए गए गड्ढ़ों में गिरने से आए दिन लोग मर रहे हैं. हालिया आंकड़े 50 से भी ज्यादा हैं. बीते 10 सालों में कितनी मौत हुईं, यह अनुमान लगाना भी कठिन है.”
मातृसदन के ब्रह्मचारी सुधानंद बताते हैं कि स्थानीय मीडिया रिपोर्टिंग के आधार पर हमने ये आकलन किया. गंगा के किनारे कई जगह 30-30 फीट गहरे ग़ड्ढ़े हैं. इनमें नदी का पानी भरा रहता है. अनजाने में लोग इन ग़ड्ढ़ों में गिरते हैं और दुर्घटनाएं होती हैं.
ये आंकड़े इससे कहीं ज्यादा भी हो सकते हैं क्योंकि इसमें सिर्फ अंग्रेजी भाषा के अखबारों में छपी खबरें ही शामिल हैं. क्षेत्रीय या भाषाई अखबारों में छपी खबरें नहीं. इस अध्ययन को करने वाले एसएएनडीआरपी के एसोसिएट कॉर्डिनेटर भीम सिंह रावत कहते हैं, “खनन के चलते होने वाली मौत या सड़क दुर्घटनाओं को नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) सामान्य सड़क दुर्घटना के रूप में दर्ज करता है. जबकि खनन के मामले में तेज़ रफ्तार में वाहन चलाना, पुलिस चेकपोस्ट से बचने की कोशिश, गलत तरह से सड़क किनारे खड़े किए गए रेत-बजरी से लदे ट्रकों के चलते हादसे हो रहे हैं. नदी में बहुत ज्यादा खनन से बने कुंड में डूबने से होने वाली मौत को भी एनसीआरबी को अलग से देखने की जरूरत है.”
एनसीआरबी की रिपोर्ट में सड़क दुर्घटना, तेज़ रफ्तार, ओवर-लोडिंग, डूबने या दुर्घटनाओं जैसी श्रेणियां होती हैं. लेकिन खनन के चलते होने वाली दुर्घटनाओं को अलग श्रेणी में नहीं रखा जाता.
उत्तराखंड के स्टेट क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एससीआरबी) में दुर्घटनाओं से जुड़ा डाटा तैयार कर रही सब-इंस्पेक्टर प्रीति शर्मा बताती हैं, “हम डाटा में उल्लेख करते हैं कि प्रकृति के प्रभाव के चलते डूबने से मौत हुई. खनन के चलते बने कुंड में डूबने, बाढ़ या अन्य वजह से डूबने की श्रेणी निर्धारित नहीं है.”
एनसीआरबी के लिए सड़क दुर्घटनाओं का डाटा तैयार करने वाले सब-इंस्पेक्टर मनमोहन सिंह बताते हैं कि सड़क हादसे में होने वाली मौत के मामलों में ओवर-लोडिंग और तेज़ रफ्तार जैसी करीब 35 श्रेणियां होती हैं. ऐसी कोई श्रेणी नहीं है जिसमें हम ये दर्ज करें कि खनन से जुड़े वाहन के चलते दुर्घटना हुई. इस बारे में एनसीआरबी के अधिकारियों का ईमेल के जरिए पक्ष जानने की कोशिश की गई. उनका जवाब मिलने पर इस खबर को अपडेट किया जाएगा.
एसएएनडीआरपी के कोऑर्डिनेटर हिमांशु ठक्कर खनन के लिए स्थानीय समुदाय को साथ लेकर निगरानी समिति बनाने का सुझाव देते हैं. इनका कहना है, “सरकारी अधिकारियों को कैसे पता चलेगा कि खनन किस तरह हो रहा है. इसमें लोगों की भागीदारी जरूरी है. नदी किनारे रहने वाले लोगों को पता होता है कि खनन वैध है या अवैध. दिन या रात, मशीन या लोग, बहती नदी या नदी किनारे, किस स्तर तक खनन हो रहा है. स्थानीय लोग अहम कड़ी हैं. वे निगरानी में शामिल होंगे तभी इसका नियमन ठीक से किया जा सकेगा.”
जवाबदेही तय हो!
वेदितम संस्था से जुड़े पर्यावरण कार्यकर्ता सिद्धार्थ अग्रवाल कहते हैं, “खनन से जुड़े मामलों में पारदर्शिता लाना सबसे ज्यादा जरूरी है. ये सार्वजनिक होना चाहिए कि देशभर में रेत खनन के लिए कहां-कहां अनुमति दी गई है. अवैध या अनियमित खनन पर केंद्र या राज्य स्तर पर क्या कार्रवाई की जा रही है. मुश्किल ये है कि खनन से जुड़े मामलों में सरकार की तरफ से कोई दृढ़ इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देती.”
रीवर ट्रेनिंग नीति के मुताबिक हर साल बरसात के बाद नदी में कितना रेत-बजरी-पत्थर और मलबा जमा होता है इसी आधार पर ये तय किया जाता है कि अक्टूबर से मई-जून तक खनन के दौरान नदी से कितना उपखनिज निकाला जा सकता है. वन विभाग हर वर्ष ये खनन रिपोर्ट तैयार करता है. आईआईटी कानपुर में डिपार्टमेंट ऑफ अर्थ साइंस में प्रोफेसर राजीव सिन्हा मानते हैं कि नदी में तय सीमा से अधिक गहराई में खनन होता ही है. “हमने हल्द्वानी में गौला नदी के अंदर सर्वे किया. खनन की मात्रा के आकलन का बेहतर वैज्ञानिक तरीका तैयार करने पर हम काम कर रहे हैं. लेकिन ये कानून-व्यवस्था से जुड़ा मामला भी है. नदी में खनन से बने कुंड से होने वाली मौत इसका एक नतीजा हैं. साथ ही इससे नदी का पूरा इकोसिस्टम बदल जाता है.” सर्वे का काम अभी जारी है.
सरकार ने रेत खनन की मॉनीटरिंग और लगातार निगरानी से जुड़े दिशा-निर्देश जारी किए हैं. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने अपने एक आदेश में कहा था कि दिशा-निर्देशों के होते हुए भी ज़मीनी स्तर पर अवैध खनन हो रहा है और ये सबको अच्छी तरह पता है.
साभार: MONGABAY
(वर्षा सिंह मोंगाबे में रिपोर्टर हैं और खेती बाड़ी और ग्रामीण भारत से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों पर लिख चुकी हैं.)