पानीपत: नहर किनारे रह रहे घुमंतू परिवारों पर जान का खतरा!

 

औद्योगिक शहर पानीपत के असन्ध रोड पर नहर किनारे करीबन सौ घुमंतू परिवार झोपड़ियों में रहने को मजबूर हैं. चारों और से ट्रैफिक के शोर-गुल और धूल-मिट्टी से घिरे इस महौल में सैकड़ों बचपन बीत रहे हैं. नहर की कच्ची पटरी के किनारे रह रहे इन परिवारों के लिए हर दिन एक नई चुनौती बनकर आता है. नहर किनारे होने के कारण इन झोपड़ियों में आये दिन सांप के काटने का खतरा बना रहता है. आजादी के सात दशक बाद भी देश की एक बड़ी आबादी मकान और जीवन की मूलभूत जरुरतों के बिना रहने को मजबूर हैं.   

दोपहर के करीबन एक बजे हैं. बांस और तिरपाल से बनी सौ परिवारों की बस्ती में से तीसरी झोपडी बसंती की है. दोपहर के खाने के बाद बसंती अपने परिवार के सदस्यों के साथ बैठीं हैं. बुढ़ापा पेंशन के सवाल पर करीबन 62 साल की बसंती ने बताया, “इन सौ विमुक्त घुमंतू परिवारों में 20 से 25 बुजुर्ग ऐसे हैं जिनकी बुढ़ापा पेंशन नहीं बन पाई है. मेरे पास आधार कार्ड और वोटर कार्ड भी है. बुढ़ापा पेंशन के लिए कईं बार सरकारी दफ्तर के चक्कर लगाए लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई.” बच्चों की पढ़ाई के सवाल पर बसंती ने बताया, “पहले एक मैडम यहां पढ़ाने आती थीं लेकिन पिछले कुछ महीनों से वो भी नहीं आ रहीं हैं.

आज से करीबन 65 साल पहले घुमंतू जीवनयापन करते हुए राजस्थान से निकले मूँगा बावरिया समाज के घुमंतू परिवार पानीपत शहर के होकर रह गए. इन 65 सालों के सफर में ये लोग शहर की अलग-अलग जगहों से हटाये गये. बावरिया समाज के घुमंतू परिवार एक जगह से हटाए जाने के बाद दूसरी जगह डेरा डालते गए. इतना लंबा अरसा बीत जाने के बाद भी इस शहर ने इन लोगों को नहीं अपनाया.

शहर की विकास की दौड़ के सामने मूंगा बावरिया समाज के घुमंतू परिवार बहुत पीछे छूट चुके हैं. स्तिथि ये आन बनी है कि विकास की दौड़ ने 65 साल से शहर में रह रहे इन लोगों को शहर से बाहर कर दिया है. अब ये लोग पानीपत-असन्ध बाईपास पर रह रहे हैं.

शनि मंदिर चौक की झुग्गियों में रहने वाले मूँगा बावरिया समाज के अधिकतर लोग गांव-गांव जाकर फेरी का काम करते हैं. ये लोग क्रॉकरी और प्लास्टिक का बना सामान बेचने के बदले पुराने या नये कपड़े लेते हैं। फेरी का काम करने वाले करीबन 25 साल के एक युवा ने बताया कि आज कल गर्मी बहुत है ऐसे में लोग सामान खरीदने के लिए बाहर नहीं निकलते हैं जिसकी वजह से हमारा काम मंदा चल रहा है.

वहीं बसंती की पास वाली झोपड़ी में रहने वाले कबीर बावरिया अपने परिवार के साथ बैठे हुए हैं। कबीर के परिवार में उन्की पत्नी, बेटा, बहू और एक करीबन दसेक साल का पौत्र है. कबीर ने बताया, “बड़ी मुश्किल से घर का गुजारा हो रहा है। फेरी का काम-धन्धा ठप्प पड़ा है. हम प्लास्टिक का सामान बेचने का काम करते हैं, पहले लोग हमारा सामन खरीद लेते थे लेकिन अब बाजार में नये-नये डिजाइन और बड़ी कम्पनियों के सामान आ गए हैं ऐसे में हमारे सामान की बिक्री पहले से बहुत कम हो गई है.”  

इन घुमंतू परिवारों तक सरकारी योजनाओं का कोई लाभ नहीं पहुँच रहा है। वहीं करीबन 65 साल के बंसी ने बताया कि मेरी भी बुढ़ापा पेंशन नहीं बनी है. राशन डिपो वाले हमें राशन देने में आनाकानी करते हैं. हम झुग्गियों वालों को केवल आट्टा देते हैं कोई दाल-चना, चावल, चीनी कुछ नहीं देते.”   

अपने जवान बेटे के साथ झोपड़ी में बैठीं रत्नी देवी ने बताया, “ रोजगार खत्म हो चुका है. शनि मंदिर के बाहर मांगकर खाने को मजबूर हैं. सरकार को सोचना चाहिये हम भी इसी देश के वासी हैं हमें भी प्लॉट मिलना चाहिये. हमें बना बनाया घर नहीं चाहिये हमें बस खाली प्लॉट दे दिया जाए मकान हम अपनी मेहनत से बना लेंगे.”

नहर की कच्ची पटरी पर रह रहे इन लोगों के लिये जान का खतरा बना रहता है. बंसी ने बताया, “बारिश के मौसम में यहां सांप आते हैं. सांप हमारी झोपड़ियों में घुस जाते हैं और कईं बार हमारे लोगों को नुकसान भी पहुंचा चुके हैं.

DNT समाज से आने वाले इन समुदायो की 70 सालों से अनदेखी हो रही है.  केंद्र सरकार की ओर से अगले पांच साल के लिये 200 करोड़ का बजट तय किया गया है लेकिन बीते वित्त वर्ष में डीएनटी बजट का एक पैसा भी इन समुदायों के लिए खर्च नहीं किया गया है.  

रैनके कमीशन-2008 की रिपोर्ट के अनुसार घुमंतू समुदाय के करीबन 90 फीसदी लोगों के पास अपने मकान और 50 फीसदी लोगों के पास पहचान पत्र तक नहीं हैं। विमुक्त घुमंतू एवं अर्धघुमंतू समुदाय को लेकर एनडीए सरकार में गठिन इदाते आयोग की रिपोर्ट आए हुए चार साल और यूपीए सरकार में आई रेनके कमीशन की रिपोर्ट को 14 साल होने को हैं लेकिन दोनों में से किसी भी रिपोर्ट को चर्चा के लिए सदन में पेश नहीं किया गया है. तमाम आयोग और कमेटियों के गठन और इनकी सिफारिशों के बाद भी विमुक्त घुमंतू जनजातियों के उत्थान के लिए कोई काम नहीं हुआ.