कृषि सुगमता सूचकांक का वक्त : गन्ना किसानों के बकाया भुगतान की राह में रोड़े और सुप्रीम कोर्ट के निर्देश
लगभग तीन दशक पहले मैं गन्ना किसानों द्वारा अपने बकाया भुगतान की मांग को लेकर किए जा रहे विरोध प्रदर्शन को कवर करने पंजाब के गुरुदासपुर में गया था. तीस साल बाद भी देश के कई हिस्सों में गन्ना किसानों को अपने बकाया भुगतान के लिए लंबे समय तक विरोध का सहारा लेते हुए देखना दुखद है. वे मुफ्त की मांग नहीं कर रहे हैं, बल्कि वे चीनी मिलों द्वारा खरीदे गए गन्ने के समय पर भुगतान की वैध बकाया राशि की मांग कर रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट और कुछ उच्च न्यायालयों ने चीनी मिलों को 14 दिनों में भुगतान करने का निर्देश दिया है और भुगतान में देरी होने पर 15 प्रतिशत का ब्याज देने का निर्देश दिया है. यह महत्वाकांक्षी भारत है, जहां इसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता. हमें अक्सर बताया जाता है कि उद्यमशीलता की संस्कृति का विकास भारत की सफलता की कुंजी है. लेकिन ऐसा क्यों है कि जब हम युवा भारत की उद्यमशीलता की भूख की बात करते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि गांवों के युवा भी महात्वाकांक्षी उद्यमी बनने के अवसर तलाश रहे हैं?
वे भी नवाचार करने, अपने कौशल में सुधार करने और कृषि में क्रांति (पैमाने और दक्षता, दोनों में) लाने के इच्छुक हैं. ग्रामीण भारत की उद्यमशीलता की भूख मिटाने की सबसे बड़ी बाधा किसानों को उनकी सही आय से वंचित करना है, और उन्हें उनके बकाये के भुगतान की मांग के लिए विरोध प्रदर्शन करने पर मजबूर करना है. किसानों के भी सपने होते हैं और जैसे-जैसे उनकी आय बढ़ती है, (उनमें अंतर्निहित जोखिम लेने की उनकी क्षमता को देखते हुए), वे तस्वीर बदलने की क्षमता रखते हैं.
लेकिन अगर गन्ने जैसी फसल की खेती करने के बाद, जिसे तैयार होने में एक साल लगता है, उनमें से कई को मिलों से भुगतान प्राप्त करने के लिए महीनों या लगभग एक और साल तक विरोध प्रदर्शन करने पर मजबूर होना पड़ता है, तो यह निश्चित रूप से उड़ान भरने की उनकी आकांक्षा को मार देता है. हालांकि वर्ष 2020-21 में जब गन्ना सीजन खत्म हुआ था, तब किसानों का बकाया घटकर 6,667 करोड़ रुपये रह गया था, जो एक साल पहले 10,342 करोड़ रुपये था. बड़ा सवाल यह है कि चीनी मिलें समय पर भुगतान क्यों नहीं कर सकती हैं.
मिलों का कहना है कि उत्पादन की लागत बढ़ गई है, क्योंकि गन्ने के लिए राज्य सरकार द्वारा उच्च मूल्य निर्धारित किया जाता है, जिससे सरकारें मिलों को बकाया चुकाने के लिए बार-बार सब्सिडी प्रदान करने के लिए मजबूर होती हैं. उदाहरण के लिए, वर्ष 2017-18 में, सरकार ने बकाया राशि चुकाने के लिए संकटग्रस्त मिलों को 7,000 करोड़ रुपये का राहत पैकेज दिया था. इसके अलावा, कई अन्य प्रोत्साहन हैं, जो सरकार समय-समय पर मिलों के लिए जारी करती रही है.
पंजाब में, निजी चीनी मिलों को 2015-16 में 50 रुपये, वर्ष 2018-19 में 25 रुपये और 2021-22 में 35 रुपये प्रति क्विंटल की सब्सिडी प्रदान की गई थी. फिर भी, चार निजी मिलों से 126 करोड़ रुपये का बकाया भुगतान हासिल करने के लिए किसानों को फगवाड़ा में लंबे समय से धरने पर बैठने को मजबूर होना पड़ा है. इसने पंजाब सरकार को निजी चीनी मिलों के ऑडिट का आदेश देने के लिए प्रेरित किया है, ताकि चीनी मिलों की अर्थव्यवस्था का पता चल सके.
चीनी मिल लॉबी के दबाव के आगे झुकने के बजाय देश की सभी निजी चीनी मिलों के ऑडिट का काम पहले ही शुरू कर देना चाहिए था. मीडिया हर साल लंबित गन्ना बकाया राशि की खबरें प्रकाशित कर रहा है. यह अजीब नहीं है कि पिछले तीस वर्षों से, जब से मैं जानता हूं, मिलों द्वारा 14 दिनों के भीतर गन्ने का बकाया भुगतान करने का मुद्दा अनसुलझा है? यदि शहरों में उद्यमशीलता के निर्माण के लिए लालफीताशाही की बाधाएं दूर करना, खराब बुनियादी ढांचे में सुधार, समय पर व्यावसायिक, व्यापारिक एवं वित्तीय सेवाएं प्रदान करना पूर्व जरूरतें हैं, तो ग्रामीण इलाकों में महत्वाकांक्षी कौशल को उभारने के लिए किसानों को उनके उत्पाद का समय पर और सुनिश्चित भुगतान शीर्ष पर होना चाहिए.
यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसका हल न निकाला जा सके, बल्कि यह बताता है कि ग्रामीण सपनों की पूर्ति किस तरह हमारे नीति नियंताओं की प्राथमिकता में सबसे नीचे है. चाहे वह गन्ने का बकाया हो, या अचानक बाढ़ या बढ़ते तापमान से फसल को नुकसान या कुछ साल पहले सफेद मक्खी के कारण कपास की फसल को हुआ नुकसान, किसानों को सरकार का ध्यान आकर्षित करने के लिए भूख हड़ताल, विरोध प्रदर्शन और राष्ट्रीय राजमार्ग पर धरने का सहारा लेना पड़ता है. आखिर किसानों को किसी भी तरह की राहत या अपनी उपज के बेहतर मूल्य के लिए विरोध प्रदर्शन क्यों करना पड़ता है.
भारत ने पिछले 75 वर्षों में कृषि क्षेत्र में बड़ी प्रगति की है. मुझे लगता है कि ग्रामीण इलाकों में उद्यमशीलता का माहौल बनाने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक गंभीर बुनियादी ढांचे के विकास के अलावा कृषि क्षेत्र में व्यापार सुगमता सूचकांक लाना है. विश्व बैंक के ईज ऑफ डूइंग बिजनेस की तर्ज पर, जिसमें भारत ने 80 पायदान की छलांग लगाई है, अब समय आ गया है कि भारत अपना खुद का ईज ऑफ डूइंग फार्मिंग इंडेक्स तैयार करे. कृषि क्षेत्र की ज्यादातर समस्याएं शासन की कमी से जुड़ी हैं और बड़ी चुनौती है कि हर स्तर पर आने वाली बाधाओं को दूर किया जाए, ताकि तंत्र को और अधिक किसान अनुकूल बनाया जा सके.
ईज ऑफ डूइंग बिजनेस ने न केवल उद्योग के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने में मदद की, बल्कि रास्ते में आने वाली अनावश्यक बाधाएं भी दूर कीं. व्यावसायिक संचालन आसान बनाने के लिए छोटे-बड़े 7,000 कदम उठाए गए. आखिर भारत विश्व बैंक के प्रस्ताव का इंतजार करने के बजाय खुद का ईज ऑफ डूइंग फार्मिंग इंडेक्स तैयार कर इसे सही तरीके से लागू करने की शुरुआत क्यों नहीं कर सकता? इसका अर्थ एक विस्तृत और कुशल प्रणाली स्थापित करना होगा, जो किसानों की हर समस्याओं का समाधान करे. इससे किसानों को बार-बार धरने पर नहीं बैठना पड़ेगा और यह अंततः ग्रामीण उद्यमियों की नई पौध के उभरने में मदद करेगा.
साभार – अमर उजाला