कॉर्पोरेट टैक्स छूट से अमीरों को ही रेवड़ियां!

 

आर्थिक जगत की साप्ताहिक पत्रिका के दिसंबर, 2020 के अंक में बताया गया कि किस तरह पिछले 50 सालों से अमीरों को मिलने वाली टैक्स-छूट का अपेक्षित प्रभाव समाज की निचली सतह तक नहीं पहुंच पाया. परिष्कृत सांख्यिकीय कार्यविधि का उपयोग करते हुए और 18 विकसित मुल्कों द्वारा अपनाई आर्थिक नीतियों के परिप्रेक्ष्य में, लंदन के किंग्स कॉलेज के दो अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि अधिकांश लोग जो तर्क सदा देते आए हैं, जाहिर है वह प्रयोग-सिद्ध सबूतों के बिना है.

प्रमाण अब सामने है. जहां बहुत से भारतीय अर्थशास्त्रियों द्वारा कॉर्पोरेट टैक्स घटाने की जरूरत को न्यायोचित ठहराने का यत्न किया जाता है वहीं उक्त अध्ययन, कुछ अन्य भी, निर्णयात्मक तौर पर दर्शाते हैं कि न तो टैक्स में छूट देने से अर्थव्यवस्था में बढ़ोतरी हुई व न ही इससे और ज्यादा रोजगार के अवसर पैदा करने में मदद मिली. यह अगर कहीं मददगार हुए तो केवल आर्थिक असमानता का पाट और चौड़ा करने में, क्योंकि आसानी से मिला पैसा अति-धनाढ्यों ने अपनी जेब में रख लिया.

भारत में जहां इन दिनों ‘रेवड़ी संस्कृति’ को लेकर बहुत चर्चा चली हुई है और अधिकांश अखबारों में किसान सहित गरीब तबके को मुफ्त की सुविधाओं या वस्तुएं देने के खिलाफ लेख आ रहे हैं वहीं कॉर्पोरेट्स जगत की भारी-भरकम कर्ज माफी, जो किसी भी तरह खाए-अघाए अमीरों को मिठाई देने से कम नहीं है, पर कोई चर्चा नहीं हो रही. सिवाय इक्का-दुक्का टीकाकारों द्वारा जिक्र किए जाने के, जिस तरह और मात्रा में कॉर्पोरेट्स को मिलने वाली सब्सिडी, ऋण-माफी, टैक्स-हॉलीडे, प्रोत्साहन राशि, कर-छंटाई इत्यादि बांटे जा रहे हैं, उलटा इसका महिमामंडन किया जा रहा है.

हालांकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी ‘गैर-जरूरी मुफ्त की चीजों-सेवाओं’ को पूरी तरह परिभाषित नहीं किया है, लेकिन वैश्विक अध्ययन पक्के तौर पर स्थापित करता है कि भारत में भी कॉर्पोरेट्स को दी जाने वाली कर-कटौती शायद इसी श्रेणी में आती है. एक साक्षात्कार में, कोलंबिया यूनिवर्सिटी के जाने-माने अर्थशास्त्री जेफरी सैच्स से एक बार पूछा गया था कि भारी-भरकम टैक्स छूटों का क्या हुआ जबकि इन्होंने न तो औद्योगिक उत्पादन बढ़ाया और न ही अतिरिक्त रोजगार पैदा किए, इस पर उनका संक्षिप्त उत्तर था ‘टैक्स रियायतों से बचा पैसा शीर्ष कंपनियों के कर्ता-धर्ताओं की जेब में जाता है’.

आइए पहले देखें कि कुछ मुख्य अर्थव्यवस्थाओं के केंद्रीय बैंकों ने जो अतिरिक्त मुद्रा छापी वह किस तरह अति धनाढ्यों की जेबों में गई. 2008-09 में जब वैश्विक मंदी बनी थी, तब से लेकर यह हल, जिसे अर्थशास्त्र की भाषा में ‘मात्रात्मक उपाय’ कहा जाता है, इसके तहत अमीर मुल्कों ने 25 ट्रिलियन डॉलर मूल्य की अतिरिक्त मुद्रा छापी, जिसे कम ब्याज वाले ‘फेडरल बॉन्ड्स’ के रूप में जारी किया गया, इनकी ब्याज दरें काफी समय तक अधिकांशतः औसत दर से 2 फीसदी कम रही और अमीरों को उपलब्ध थी. उन्होंने इस धन को उभरती अर्थव्यवस्थाओं में निवेश किया और हमने देखा कि इससे उनकी शेयर मार्केट में कैसे एकदम उछाल आया. लेकिन एक तो ब्याज दरों में हालिया वृद्धि ने पहले ही उथल-पुथल मचा दी थी तिस पर संघीय नीतियों में कड़ाई होने से सूद की दरों में 4 प्रतिशत का इजाफा होने की उम्मीद है, लगता है कि अभी तक जिस तरह आजाद होकर स्टॉक मार्केट ने खेल का आनंद का लिया है, अब उस पर लगामें कसने वाली हैं और ऐसा करने की बहुत जरूरत भी है.

एक लेख में स्टेनले मार्गन के रूचिर शर्मा ने विस्तार से समझाया है कि किस तरह कोरोना महामारी के दौरान छापी गई 9 ट्रिलियन डॉलर मूल्य की अतिरिक्त मुद्रा, जिसका उद्देश्य लड़खड़ाई अर्थव्यवस्था को संभालना था, यह करने की बजाय स्टॉक मार्केट के रास्ते अति-अमीरों की जेबों में चली गई. यह भारी-भरकम पैसा ही असल में ‘रेवड़ी’ है.

भारत में, 2008-09 की वैश्विक आर्थिक मंदी के दौरान, तीन चरणों में 1.8 लाख करोड़ की अतिरिक्त मुद्रा छापी गई थी. सामान्य रूप में यह राहत उपाय एक साल या उसके आसपास वक्त तक खत्म कर दिया जाना चाहिए था. किंतु एक खबर के मुताबिक ‘कोई नल बंद करना भूल गया’, परिणामस्वरूप ‘राहत’ जारी रही. दूसरे शब्दों में, उद्योगों को 10 साल की अवधि में लगभग 18 लाख करोड़ की आर्थिक खैरात मिली. इसकी बजाय अगर यही धन कृषि में लगाया जाता तो किसानों को प्रधानमंत्री किसान योजना के अंतर्गत मिलने वाले 18 हजार रुपये वार्षिक सीधी आर्थिक सहायता के अलावा मदद मिल जाती.

इतना ही नहीं, पिछले समय के बजट दस्तावेजों में ‘राजस्व माफी’ नामक एक अन्य श्रेणी भी थी. प्रसन्ना मोहंती अपनी किताब ‘एक बिसरा वादा : भारतीय अर्थव्यवस्था को किसने पटरी से उतारा’, इसमें स्पष्ट समझाते हैं कि कैसे अपरोक्ष कराधान को ‘सशर्त’ और ‘बिना शर्त’ श्रेणियों में बांटकर सकारात्मक रूप दिया गया. फलस्वरूप 2014-15 में कॉर्पोरेट्स को ऋण माफी के जरिए मिला 5 लाख करोड़ से ज्यादा किताबों में दिखा, लेकिन बाद में इसे उपरोक्त वर्णित आंकड़ेबाजी से सिकोड़कर 1 लाख करोड़ दर्शा दिया गया. इस विशालकाय कर-माफी और छूट को छिपाने के लिए नया मासूम-सा तकनीकी नाम दिया : ‘कर प्रोत्साहन का राजस्व पर प्रभाव’.

सितंबर 2019 में एक अन्य टैक्स माफी के रूप में 1.45 लाख करोड़ रुपये उद्योगों को दिए गए. यह वह समय था जब ज्यादातर अर्थशास्त्री सरकार को ग्रामीण बाजार में मांग को बढ़ाने के लिए आर्थिक राहत देने की सलाह दे रहे थे. एक ओर कर्ज-संस्कृति को बिगाड़ने का दोष किसानों के माफ किए गए 2.53 लाख करोड़ पर मढ़ा जाता है तो वहीं यह वितंडा फैलाया जाता है कि कॉर्पोरेट जगत की कर्ज माफी से अर्थव्यवस्था को बल मिलता है. हाल ही में संसद को सूचित किया गया है कि पिछले 5 सालों में कॉर्पोरेट जगत का 10 लाख करोड़ बकाया ऋण माफ किया गया है. किसानों की कर्ज माफी की बनिस्बत, जिसमें बैंकों का बकाया राज्य सरकारें भरती हैं, कॉर्पोरेट्स का सारा ऋण सिरे से छोड़ दिया जाता है. इतना ही नहीं ऐसे लगभग 10 हजार से ज्यादा लोगों की सूची है जो कर्ज चुकाने की हैसियत रखने के बावजूद जान-बूझकर नहीं चुका रहे. कुछ महीने पहले, पंजाब सरकार ने कर्ज न चुकाने वाले लगभग 2000 किसानों के खिलाफ जारी हुए वारंट रद्द किए हैं, हैरानी है कि फिर स्वैच्छिक कर्ज-खोर कैसे बख्शे जा रहे हैं.

साभार- दैनिक ट्रिब्यून