पहलगाम आतंकी हमला: हमें अपने गिरेबान में भी झांकना चाहिए

 

मंगलवार को कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों ने अंधाधुंध गोलीबारी कर दी. इसमें 28 लोगों की मौत हो गई और दर्जनों लोग घायल हो गए. यह हमला 2019 के पुलवामा हमले के बाद से सबसे घातक माना जा रहा है. पूरे देश की आंखों में आंसू हैं. इस दुख की घड़ी में हमें उन लोगों से भी कड़े सवाल पूछने होंगे जिनको हमने नागरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी सौंपी है. -संपादक

कई लोग बोलेंगे यह सवाल पूछने का वक़्त नहीं है. अब तक 28 लोगों के मारे जाने की खबर है. ये लोग न तो सुरक्षा बलों से हैं, न फिर किसी नफरती गिरोह समुदाय के हिस्से. ये वे लोग हैं, जो इस यकीन के साथ वहां गये थे, कि बतौर सैलानी कश्मीर जाया जा सकता है.

यह यक़ीन किसने दिलवाया था उन्हें? किसने कहा था कि कश्मीर में धारा 370 हटाकर, राज्य का स्तर छीन कर केंद्रशासित प्रदेश बना कर और उसके बाद लुंजपुंज लोकतंत्र लाकर कश्मीर में अब सब सामान्य हो गया है.

दूसरा, जब श्रीनगर तक में शुक्रवार को वहां की सबसे बड़ी मस्जिद में नमाज पढ़े जाने से सरकार असहज थी, तो फिर सैलानियों के लिए सब कुछ सामान्य कैसे था? जब वहां के स्थानीय लोगों, पत्रकारों के साथ सरकार तुर्शी के साथ लगातार पेश आती रही है, तो फिर सैलानियों के लिए कश्मीर सुरक्षित कैसे था. जब वहां की सरकार खुद जरा से बात पर खतरे को महसूस करने लगती है.

तीसरा, इतनी बड़ी फौज, पैरा मिलिट्री, पुलिस, जासूस, खबरी नेटवर्क के बाद भी इतनी आसानी से आतंकवादियों का गिरोह कैसे आकर चोट कर जाता है. चाहे पुलवामा हो या फिर पहलगाम. ये सब उस इलाके में हो रहा है, जहाँ प्रति व्यक्ति बंदूक लिए चलते सुरक्षाकर्मी की तैनाती शायद दुनिया में सबसे अधिक है. उन सबके बीच ये कैसे हो रहा है. इतने सारे चैक पोस्ट, इतने सारे इंतजाम. इतना सारे ड्रोन. फिर भी ऐसा कैसे है कि आतंकवादी इतने आराम से हमले करके चले जाते हैं.

चौथा, कश्मीर के व्यापारियों के लिए दो सबसे बड़े व्यापार है. एक पर्यटन और दूसरा सेब. इस हमले के पीछे अगर स्थानीय लोग हैं, तो ये अपने कारोबार पर ही कुल्हाड़ी मारना है. अभी तक आतंकवादी ज्यादातर सुरक्षाबलों को निशाना बनाते रहे हैं. पर अब अगर सैलानियों को निशाना बनाया जाने लगा है, तो ये थोड़ा बदले हुए अंदाज है.

पांचवा, बजाय छाती ठोंक कर भभकियां देने के सरकार और हम सबको अपने गिरेबान में झांक कर देखना चाहिए कि ग़फ़लत कहां हो रही है. अभी सब आश्चर्य जता रहे हैं प्रधानमंत्री से लेकर नीचे तक. पर यह तो एक प्रेस नोट या ट्ववीट भर है. पुलवामा के इंटेलिजेंस फेल्योर की जवाबदेही किसकी है, और उस पर क्या कार्रवाई हुई, देश को नहीं बताया गया. इस तरह की उम्मीद पहलगाम को लेकर भी कैसे की जा सकती है.

छठवां, इस बारे में सोशल मीडिया में दिन भर सांप्रदायिक दुष्प्रचार चलता रहा. अगर सरकार जिम्मेदार है और गंभीर भी, तो इस पर ध्यान देना चाहिए था. कोई तथ्य की पुष्टि नहीं, कोई जांच-परख नहीं. जब सरकार और राजनीति ही प्रोपोगंडा आधारित नैरेटिव पर आधारित हो, तो इस हमले की आग देश में फैलने से कौन रोक सकता है. और कश्मीर में आग लगाकर सियासी रोटियां सेंकने के लिए सबसे बड़ा लाभार्थी कौन है, सबको पता है.

सातवां, इसका असर हर उस कश्मीरी पर पड़ता है, जो अपने राज्य से बाहर पढ़ाई या रोजी-रोटी के लिए निकला है. हर उस गैर कश्मीरी पर भी, जो उस राज्य में जाता है. संदेह, नफरत, हिंसा ऐसे में और बढ़ते ही हैं.

कश्मीर नीति पर सरकार का रवैया और रिकॉर्ड कैसा रहा है, उसके लिए कुछ समय पहले के ही सत्यपाल मलिक के रहस्योद्घाटन काफी है, जो सबसे ज्यादा सरकारी नीयत की गंभीरता को ही संदिग्ध बनाते हैं. पर सरकार के पुराने खटरागों से ये उम्मीद की जा सकती है, वह बड़े बयान देगी. सच को छिपाने की कोशिश करेगी. जवाबदेही तय नहीं करेगी. जैसा चीनी सीमा पर हुआ और पुलवामा पर भी.

ये भी उम्मीद की जा सकती है कि कश्मीर का पर्यटन व्यवसाय मुश्किलों का सामना करेगा, स्थानीय लोग और ज्यादा परेशान किये जाएंगे, पहले से ही मिलिटराइज्ड ज़ोन में और ज्यादा निरंकुशताएं लागू की जाएंगी, आम आदमी की जिंदगी और मुश्किल होगी और कश्मीर? कश्मीर के बारे में देश की संसद में, मुख्यधारा के मीडिया में, सरकारी प्रोपेगंडा में कई बेतुके और बेमतलब दावे किये जाएंगे कि कश्मीर में अब सब ठीक है. दावे जो काफी पहले अपने मायने खो चुके हैं.