कृषि कानूनों पर संसदीय परामर्श से ही निकलेगा सहमति का रास्ता

 

पिछले दिनों हुई एक सर्वदलीय बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कथित तौर पर तीन कृषि कानूनों को 18 महीने के लिए स्थगित रखने का प्रस्ताव दिया है। इस सुझाव पर अमल तभी करना चाहिए जब इस अवधि के दौरान कृषि कानूनों पर विचार-विमर्श करने का जिम्मा किसी संसदीय समिति को सौंपा जाए। सरकार ने इन कानूनों को लाने से पहले जो विधायी परामर्श नहीं किया था, उसके लिए पश्चाताप तो करना ही पड़ेगा। कृषि कानूनों पर पूर्णतः नए सिरे से विचार करने की जरुरत है, और ये काम केवल संसद ही कर सकती है। 

इस बात से कोई इंकार नहीं है कि कृषि क्षेत्र में सुधारों की जरूरत है। लेकिन किस तरह के सुधार से किसानों को फायदा होगा? यह बड़ा सवाल है। ये कानून महामारी के दौरान जल्दबाजी में पर्याप्त चर्चा और व्यापक स्वीकृति के बगैर लागू किये गये थे। जिसके परिणामस्वरूप किसानों को 75 दिनों से हाड़ कंपा देने वाली ठंड में दिल्ली की सीमाओं पर कंटीले तारों, कीलों, किले जैसी नाकेबंदी का सामना करना पड़ रहा है। किसानों की बिजली, पानी, इंटरनेट और शौचालय की सुविधाएं भी सरकार ने बंद कर दी। इस दौरान लगभग 150 को जान गंवानी पड़ी। किसी भी आंदोलन के लिए यह बहुत बड़ा बलिदान है। अब केंद्र सरकार ने इन कानूनों को 18 महीने के लिए स्थगित करने का प्रस्ताव दिया (जो किसानों को मंजूर नहीं) है, तो इन कृषि सुधारों पर नए सिरे से सोचने की आवश्यकता है। हमें भारत के कृषि क्षेत्र को नई क्षमता प्रदान करने की आवश्यकता है। इसके लिए तीन पहलू महत्वपूर्ण हैं।

पहला, कृषि राज्य का विषय है इसलिए राज्यों को कानून बनाने का पहला अधिकार होना चाहिए। अलग-अलग राज्यों को अलग-अलग से तरह प्रभावित करने वाले कानूनों को पूरे देश पर लागू करना केंद्र सरकार की हड़बड़ी और गलत अनुमान का नतीजा है। केंद्र सरकार को मॉडल एग्रीकल्चर लैंड लीजिंग एक्ट, 2016 के कार्यान्वयन से सबक लेना चाहिए था, जिसे सत्तारूढ़ पार्टी शासित राज्यों ने भी लागू नहीं किया। कृषि मंत्रियों, वित्त मंत्रियों और सभी राज्यों के विशेषज्ञ प्रतिनिधियों से युक्त जीएसटी परिषद की तर्ज पर एक ‘कृषि सुधार परिषद’ का गठन करने की आवश्यकता है। यह राज्यों और केंद्र के बीच कई मुद्दों को भी हल करेगी। ‘कृषि सुधार परिषद’ के प्रस्ताव को कृषि कानूनों में शामिल किया जा सकता है और राज्यों को अपने हिसाब से बदलाव लाने के लिए पर्याप्त स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। यही संघीय ढांचे और “टीम इंडिया” के अनुरुप होगा।   

दूसरा पहलू है – संसदीय प्रणाली की उपयोगिता। संसद में एक विधायिका के रूप में कानूनों में संशोधन करने की सर्वोच्च शक्ति है। कानूनों के पारित होने के बाद भी ऐसा करना संभव है। एक स्थायी समिति या संसद की एक प्रवर समिति तीनों कृषि कानूनों की जांच कर सकती है और किसान संगठनों को भी सदन में अपना पक्ष रखने का मौका मिल सकता है। संसदीय स्थायी समिति महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा के लिए एक महत्वपूर्ण मंच है। ये विचार-विमर्श संसद के फर्श पर नारेबाजी और शोरगुल में नहीं हो सकता है, जहां नेता राजनीतिक बढ़त बनाने के लिए बहस में हिस्सा लेते हैं । केवल संसदीय समिति द्वारा कानूनों की सावधानीपूर्वक जांच-पड़ताल कर उपयुक्त संशोधनों के सुझाव दिए जा सकते हैं और सभी पक्षों की चिंताओं को दूर किया जा सकता है। 

कृषि कानूनों को संसद को पंगु बनाकर, हंगामे के बीच राज्यसभा में ध्वनि मत से पारित किया गया। आलोचकों का तर्क हो सकता है कि ध्वनि मत से किसी कानून को पारित करना संसदीय  प्रणाली का उल्लंघन नहीं है। यह बात अपनी जगह सही है। संविधान में भी ध्वनि मत पर कोई पाबंदी नहीं है। हालांकि, 17 वीं लोकसभा में बहुत अधिक विधेयकों को ध्वनि मत से पारित किया गया है। वोट का विभाजन संसद के रिकॉर्ड का हिस्सा बनाता है। क्या हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी ईवीएम की बजाय किसी सार्वजनिक रैली में ‘ध्वनि मत’ के माध्यम से चुना जा सकता है? 

तीसरा, प्राइवेट सेक्टर को कृषि बाजार में प्रवेश करने के लिए ‘खेत से प्लेट तक’ पूरी सप्लाई चेन इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत व्यवस्था की जरूरत है। भारतीय खाद्य निगम की सीमित भंडारण क्षमता और खाद्यान्न की बर्बादी को देखते हुए, सरकार को पहले हजारों छोटी मंडियों के लिए बुनियादी सुविधाओं को दुरुस्त करने की आवश्यकता थी। अकेले सरकार द्वारा मंडियों का निर्माण नहीं किया जा सकता है। इसमें निजी भागीदारी और निवेश की जरूरत है। इसे एक संस्थागत रूप दिए जाने की जरूरत है, जिसमें किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की गारंटी मिले। भले ही कई नीति विशेषज्ञ एमएसपी को हटाने का समर्थन करते हैं, लेकिन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह चुके हैं कि एमएसपी है और आगे भी रहेगा।

एमएसपी के क्रियान्वयन में जो कमियां हैं, उन्हें दूर किया जा सकता है। वर्ष 2012 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने ‘दि फॉरवर्ड कॉन्ट्रैक्ट्स (रेगुलेशन) अमेंडमेंट बिल, 2010’ को मंजूरी देते हुए इस तरह के एक समाधान को अपनाने का प्रयास किया था। इसमें खरीदारों और विक्रेताओं को जोखिम संभालने की सहूलियत दी गई थी और इसे रेगुलेट करने का प्रावधान भी था। कमोडिटी बाजार में ऑप्शंस के लिए रास्ता खोलने का प्रयास किया गया था, लेकिन तब एमएसपी खत्म की कोई भी कोशिश नहीं थी। जैसी इस बार दिख रही है।

ड्राफ्ट एपीएमसी रेगुलेशन, 2007 के जरिये भी कृषि व्यापार में सुधारों को लेकर कई सुझाव दिए गए थे। इसमें राज्यों को किसी भी बाजार को ‘स्पेशल कमोडिटी मार्केट’ घोषित करने का अधिकार दिया गया था। नए कृषि कानून राज्य सरकारों और मंडी समितियों (APMC) को प्राइवेट मंडियों से शुल्क वसूलने से रोकते हैं। इसलिए इन कानूनों में सुधार करना बेहद जरूरी है।

सभी पक्षों के साथ व्यापक विचार-विमर्श के माध्यम से संसदीय स्थायी समिति कृषि कानूनों पर एक सही नजरिया पेश कर सकती है। इससे सरकार और किसानों के बीच गतिरोध को दूर करने में मदद मिलेगी। 

(लेखक बैंगलोर के तक्षशिला संस्थान में लोक नीति का अध्ययन कर रहे हैं। विचार उनके व्यक्तिगत हैं।)