रामदेव का शर्तिया इलाज और डॉक्टरों की आहत भावनाएं

 

कोरोना कुप्रबंधन में मोदी और योगी सरकार की खूब फजीहत हुई। इस कलंक को पब्लिक मेमोरी से मिटाने के लिए बहस का रुख मोड़ना जरूरी है। रामदेव यही कर रहे हैं। सरकार की नाकामी पर चर्चा की बजाय देश में एलोपैथी बनाम आयुर्वेद की बहस छिड़ गई। इस बहस में रामदेव ने खुद को आयुर्वेद के प्रतिनिधि के तौर पर स्थापित कर लिया है। जबकि वे आयुर्वेद के डॉक्टर भी नहीं हैं। फिर भी लगभग हर बीमारी का शर्तिया इलाज उनके पास है। क्योंकि उन्हें सत्ता का संरक्षण और मीडिया का समर्थन हासिल है।

पिछले 20 साल से रामदेव यही करते आ रहे हैं। उनका पूरा कारोबार एलोपैथी और निजी अस्पतालों से त्रस्त लोगों की सहानुभूति पर टिका है। शुरुआत में मेडिकल व फार्मा इंडस्ट्री को रामदेव के दावों से कोई फर्क नहीं पड़ा। लेकिन अंग्रेजी दवाओं के खिलाफ प्रवचन देते-देते रामदेव खुद दवा कंपनी के मालिक बन चुके हैं। अब फार्मा इंडस्ट्री को उनसे फर्क पड़ता है। इसलिए जब रामदेव ने अंग्रेजी दवा खाने से लोगों के मरने की बात कही तो मेडिकल बिरादरी तिलमिला उठी। जबकि हाल के वर्षों में ज्ञान-विज्ञान और तर्कशील सोच पर इतने हमले हुए, तब चिकित्सा समुदाय चुप्पी साधे रहा। यह चुप्पी डॉक्टरों को अब भारी पड़ रही है।

रामदेव के सवालों का मुकाबला डॉक्टर आहत भावनाओं से नहीं कर सकते हैं। क्योंकि विज्ञान सवाल उठाने की छूट देता है। विज्ञान हर बीमारी के इलाज का दावा नहीं करता। ना ही अपनी नाकामियों को छिपाने में यकीन रखता है। चमत्कार और विज्ञान में यही तो फर्क है। इसलिए जब रामदेव एलोपैथी का मजाक उड़ाते हैं या उस पर सवाल उठाते हैं तो उसका जवाब कोरी भावुकता की बजाय वैज्ञानिक तथ्यों और तर्कसंगत तरीके से देना चाहिए। इसके लिए आयुर्वेद का मजाक उड़ाने या उसे कमतर साबित करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है।

“हम तो मानवता की सेवा कर रहे हैं। रामदेव हम पर सवाल उठा रहे हैं?” इस तरह की भावुकता भरी दलीलों से डॉक्टर विज्ञान का पक्ष कमजोर ही करेंगे। जबकि जरूरत रामदेव के दावों को वैज्ञानिक और कानूनी कसौटियों पर कसने की है। लेकिन इस काम में देश के चिकित्सा समुदाय ने कभी दिलचस्पी नहीं दिखायी। वरना एक इम्युनिटी बूस्टर कोरोना की दवा के तौर पर लॉन्च न हो पाता। हालिया विवाद के बाद भी कोरोनिल की मांग बढ़नी तय है।

रामदेव ने सिर्फ डॉक्टरों पर ही नहीं बल्कि समूचे मेडिकल साइंस पर सवाल उठाये हैं। रामदेव के मन की बात को न्यूज चैनल मेडिकल साइंस के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं। क्योंकि प्रमुख विज्ञापनदाता के तौर पर रामदेव मीडिया के साथ हैं। रामदेव का कुछ ऐसा ही रिश्ता सत्ताधारी भाजपा के साथ है। लेकिन जिन राज्यों में गैर-भाजपाई सरकारें हैं वहां भी रामदेव को कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। यह रामदेव की आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक ताकत है जो उन्होंने योग, आयुर्वेद, स्वदेशी और हिंदुत्व के घालमेल से हासिल की है।

एलोपैथी से निराश और निजी अस्पतालों से लूटे-पिटे लोगों का बड़ा तबका रामदेव पर भरोसा करता है। भले ही तबीयत बिगड़ने पर एलोपैथी का ही सहारा लेना पड़े। यह बात रामदेव भी जानते होंगे। इसलिए उनका टारगेट संभवत: कम गंभीर रोगी हैं जो डॉक्टर के पास जाए बिना सीधे दुकान से दवा खरीद सकते हैं। कोरोना काल में ऐसे लोगों की तादाद काफी बढ़ी है। बाकी तर्कसंगत और वैज्ञानिक सोच रखने वाले लोग रामदेव के बारे में क्या सोचते हैं, इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है देश की आम जनता से। यह आम जनता ही रामदेव की श्रोता, पतंजलि की उपभोक्ता और भाजपा की मतदाता है। सुबह-सुबह रामदेव उन्हीं को संबोधित करते हैं। हर घर में बिना डिग्री के डॉक्टर तैयार करने का उनका अभियान दवा कंपनियों को डराने लगा है। यह खुद लोगों के लिए भी खतरनाक है।

डॉक्टरों के लिए सोचने वाली बात यह है कि महामारी में इतनी सेवा करने के बावजूद समाज में उनके प्रति कोई खास सहानुभूति क्यों नहीं उमड़ी? जिन डॉक्टरों को पिछले साल कोरोना योद्धा बताकर फूल बरसाये जा रहे थे, इस बार वे आईटी सेल के निशाने पर क्यों हैं? इसके दो कारण हैं। पहला, मरीजों की जेब काटने वाले अस्पतालों और डॉक्टरों के प्रति लोगों में रोष है। दूसरा, जब से डॉक्टरों ने ऑक्सीजन की किल्लत के बारे में खुलकर बोलना शुरू किया है, तब से वे भाजपा समर्थकों के निशाने पर आ गये हैं। रामदेव ने डॉक्टरों पर हमला बोलकर आईटी सेल वालों को टारगेट दिखा दिया। इससे सरकार को बड़ी राहत मिली होगी। क्योंकि जिन लोगों को इलाज नहीं मिला, उन्हें समझाया जा सकता है कि वह इलाज ठीक नहीं था। इसलिए तो सोशल मीडिया के दौर में हकीकत से ज्यादा नैरेटिव की अहमियत है।