गायब मुद्दे: चुनावों में पर्यावरण चुनौतियों पर चुप्पी

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2019 लोकसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान जोरों पर है। सात चरणों में होने वाले लोकसभा चुनावों में से चार चरण के चुनाव हो गए हैं। तीन चरणों का चुनाव बाकी है। लेकिन पर्यावरण की समस्याएं कहीं भी चुनावी मुद्दा बनते नहीं दिख रही हैं। चुप्पी

जबकि सच्चाई यह है कि जलवायु परिवर्तन से लेकर वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, घटता जलस्तर, मिट्टी की खराब होती स्थिति से लेकर कई स्तर पर भारत को पर्यावरण की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे समय में जब भारत में लोकसभा चुनाव हो रहे हैं तो पर्यावरण से संबंधित ये समस्याओं न तो राजनीतिक दलों के लिए मुद्दा बन पा रही हैं और न ही आम लोगों के लिए।

लोकतंत्र के बारे में कहा जाता है कि इसमें जनता से जुड़े मसलों पर बातचीत होती है। लेकिन पर्यावरण के संकट से आम लोगों के हर दिन प्रभावित होने के बावजूद ये संकट चुनावी मुद्दा नहीं बन पा रहा है। कहीं भी वोट देने के निर्णयों को प्रभावित करने वाली वजहों में पर्यावरण संकट एक वजह नहीं है।

जबकि हकीकत यह है कि भारत के शहरों में वायु प्रदूषण कभी इतना नहीं रहा जितना आज है। दिल्ली जैसे शहरों में साफ हवा में सांस लेना एक तरह से बीते जमाने की बात हो गई है। खराब हवा की वजह से भारत मंे लोग कई तरह की बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि 2017 में भारत में जितने बच्चों की जान गई, उनमें से हर आठ में से एक की मौत वायु प्रदूषण की वजह से हुई। इसी तरह से दूषित जल की वजह से भी बच्चों और बड़ों को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

देश की नदियों का हाल बुरा है। 2014 में भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी ने गंगा की साफ-सफाई को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था। लेकिन पांच साल में गंगा की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं आया है। इस वजह से न तो सत्ता पक्ष इस बार नदियों की साफ-सफाई को चुनावी मुद्दा बना रहा है और न ही इसमें विपक्षी खेमे की कोई दिलचस्पी दिख रही है। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में यह जरूर कहा है कि अब वह 2022 तक गंगा को साफ-सुथरा बनाने का लक्ष्य हासिल करेगी।

भूजल का गिरता स्तर और भूजल प्रदूषण देश की बहुत बड़ी समस्या बनती जा रही है। आधिकारिक आंकड़े बता रहे हैं कि देश के 640 जिलों में से 276 जिलों के भूजल में फ्लुराइड प्रदूषण है। जबकि 387 जिलों का भूजल नाइट्रेट की वजह से प्रदूषित हुआ है। वहीं 113 जिलों के भूजल में कई भारी धातु पाए गए हैं और 61 जिलों के भूजल में यूरेनियम प्रदूषण पाया गया है। इस वजह से इन जिलों में रहने वाले लोगों को कई तरह की बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण की वजह से देश में पलायन भी देखा जा रहा है। जहां सूखे की मार अधिक है और जहां प्रदूषण की वजह से जानलेवा बीमारियां हो रही हैं, वहां से लोग दूसरी जगहों का रुख कर रहे हैं। महाराष्ट्र और बुंदेलखंड से सूखाग्रस्त इलाकों से लोगों के पलायन की खबरें अक्सर आती रहती हैं।

जाहिर है कि इस स्तर पर अगर कोई समस्या लोगों को परेशान कर रही हो तो यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि यह चुनावी मुद्दा बनेगा। लेकिन फिर भी ये समस्याएं लोकसभा चुनावों में गायब दिख रही हैं। न तो कोई पार्टी अपनी ओर से ये मुद्दे उठाती दिख रही हैं और न ही प्रभावित लोगों द्वारा इन पार्टियों और स्थानीय उम्मीदवारों पर इन मुद्दों पर प्रतिबद्धता दिखाने और इनके समाधान की राह बताने के लिए कोई दबाव बनाया जा रहा है। न ही सिविल सोसाइटी की ओर से पार्टियों पर पर्यावरण को मुद्दा बनाने के लिए प्रभावी दबाव बनाया गया।

पार्टियों के चुनावी घोषणापत्रों में भी पर्यावरण के मुद्दों पर खास गंभीरता नहीं दिखती है। जो बातें पहले भी इन घोषणापत्रों में कही गई हैं, उन्हीं बातों को कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों के घोषणापत्रों में दोहराया गया है। किसी निश्चित रोडमैप के साथ पर्यावरण की समस्या से निपटने ही राह भाजपा और कांग्रेस में से किसी भी पार्टी ने अपने घोषणापत्र में नहीं सुझाई है।