स्वामी अग्निवेश: भगवा और मानवता में लिपटा अनूठा संन्यासी
“अगर सबसे ज्यादा बार किसी का सामान सड़क पर फेंके जाने का विश्व रिकॉर्ड होगा तो वो मेरा ही होगा।” एक दिन यूं ही स्वामी अग्निवेश जी ने मजाकिया मूड में बोला था। कभी हरियाणा सरकार ने अपने पूर्व मंत्री और विधायक को गेस्ट हाउस से सड़क पर फेंका तो कभी केंद्र सरकार ने तो कभी जनता पार्टी के लोगों पार्टी दफ्तर से उनका सामान फेंका। जिस जगह उनका सामान फेंका गया था, बाद में वह जगह देश के मजबूर, दलित, आदिवासी, जातिगत, धार्मिक या लैंगिक भेदभाव के पीड़ितों का आश्रय स्थल बन गई। पिछले चार दशक से 7, जंतर-मंतर का एक छोटा-सा कमरा सिर्फ स्वामी अग्निवेश का दफ्तर या आशियाना ही नहीं है बल्कि देश के सभी छोटे-बड़े तमाम आन्दोलनों का केंद्र भी रहा है। कोई भी साधनहीन कार्यकर्ता आकर स्वामी जी के दफ्तर का बेहिचक इस्तेमाल कर सकता है।
आंध्र प्रदेश के एक प्रतिष्ठित हिन्दू ब्राह्मण परिवार में जन्म हुआ। घर में किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। न आर्थिक और न सामाजिक। लेकिन मात्र चार वर्ष की उम्र में ही वेप्या श्याम राव के सिर से पिता का साया उठ गया। तत्पश्चात आगे के लालन-पालन के लिए उन्हें उनके नाना जी के पास भेज दिया। उनके नाना उस समय के राज्य ‘शक्ति’ जो कि अब छत्तीसगढ़ बन गया है, के दीवान थे। स्कूली शिक्षा खत्म करने के पश्चात वे अपनी बहन के पास कलकत्ता चले गए। उनकी बहन का ससुराल भी एक प्रतिष्ठित और धनी परिवार था।
स्वामी जी को पैसे या पद का मोह कभी नहीं हुआ और वो कलकत्ता में ही आर्य समाज के साथ जुड़ने लगे। अनेक सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हुए उन्होंने कॉमर्स और विधि की शिक्षा पूरी की। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी हालांकि उनसे उम्र में बड़े थे लेकिन कॉलेज में जूनियर थे। जब इन दोनों का बड़े सालों बाद आमना-सामना हुआ तो एक मजेदार बात निकलकर आई कि स्वामी जी ने ही सबसे पहले प्रणव मुखर्जी को कॉलेज में लाइब्रेरी सेक्रेटरी का चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया था। स्वर्गीय प्रणव मुखर्जी को उनका बचपन का नाम अभी तक याद था। इस वार्तालाप का मैं खुद साक्षी हूं।
तो फिर आप हरियाणा कैसे आ गए? दक्षिण भारत का एक हिन्दू ब्राह्मण, सेंट जेवियर कलकत्ता के मैनेजमेंट विषय का प्राध्यापक हरियाणा की खड़ी बोली वाले क्षेत्र में कैसे चला गया?
इसका भी एक मजेदार किस्सा है। स्वामी जी (वेप्या श्याम राव) अपनी पढ़ाई के दौरान कलकत्ता के एक प्रतिष्ठित व्यापारी परिवार के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाते थे और उसी परिवार के साथ कश्मीर घूमने गए थे। कश्मीर में उस परिवार की किसी महिला को चोट लग गयी तो वो परिवार वापस कलकत्ता चला गया और स्वामी जी पुरानी दिल्ली के आर्य समाज के हाल में रहने लगे। यहीं पर उनकी मुलाकात आर्य समाज के एक स्वामी जी से हुई। उनकी प्रेरणा से वे हरियाणा के गांवों में घूमने के साथ-साथ झज्जर में एक युवा समाज सेवक से मिलने गए। दोनों की मुलाकात का ही परिणाम था कि इन दोनों युवाओं ने तय किया कि भगवा वस्त्र धारण किये जायें, ताकि समाज में सुधारों की गति को बढ़ाया जा सके।
पर भगवा ही क्यों? आप स्वेत वस्त्रों या सामान्य वस्त्रों में भी समाज सेवा कर सकते थे।
भगवा रंग त्याग का रंग है। भगवा रंग तपस्या का रंग है। भगवा रंग मान-सम्मान, मेरा-तेरा, लोभ लालच से दूर है। भगवा पहनने से पहले अपना खुद का पिंडदान करना होता है। भगवा पहनने के बाद इस संसार में आपका कुछ नहीं है, लेकिन आप पूरे संसार के हो। बस इसी लिए भगवा पहना।
स्वामी अग्निवेश और उनके गुरु भाई स्वामी इंद्रवेश ने हरियाणा में आर्य सभा नाम से राजनीतिक दल बनाया। जयप्रकाश (जेपी) आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया, हरियाणा विधान सभा का चुनाव लड़ा, जीते और शिक्षा मंत्री बन गए।
कहते हैं कि ‘जोगी और जल’ जिस दिन रुक जायेगा वो गन्दा हो जाएगा, वो बदबू मारेगा और बीमारी पैदा करेगा। स्वामी अग्निवेश तो फिर अग्निवेश ही थे, उन्हें कौन-सी सीमा रोक सकती थी।
सरकार बदली, प्रधानमंत्री बदले, और उम्मीद थी कि देश की व्यवस्था भी बदलेगी। लेकिन देश की व्यवस्था तो जस की तस थी। स्वामी अग्निवेश जी हरियाणा सरकार के कैबिनेट मंत्री बने पर मात्र चार महीने में ही उकता गए।
इसी बीच फरीदाबाद में मजदूरों की एक रैली पर पुलिस ने गोली चलाई, जिसमें 10 मजदूरों की मृत्यु हो गई। स्वामी अग्निवेश ने पहले ये मुद्दा कैबिनेट के सामने उठाया और इस दुर्घटना की मजिस्ट्रेट से जांच की मांग की। (क्या आज संभव है कि कोई कैबिनेट मंत्री तो छोड़िये, एक विधायक-सांसद भी ऐसी मांग कर सकता हो) जब मुख्यमंत्री भजन लाल ने उनकी बात नहीं मांगी तो वो इस्तीफा देकर फरीदाबाद चले गए। भजन लाल सरकार ने ही सबसे पहली बार स्वामी अग्निवेश का सामान सरकारी गेस्ट हाउस से सड़क पर फेंक दिया था।
उसके बाद फरीदाबाद से ही स्वामी अग्निवेश ने पत्थर खदानों में व्याप्त बंधुआ मजदूरी प्रथा के खिलाफ आंदोलन किया, बंधुआ मुक्ति मोर्चा का गठन किया और इस मुद्दे पर पहली बार जनहित याचिका डाली। बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया नाम की इस जनहित याचिका ने देश में जनहित याचिकाओं के लिए दरवाजे खोल दिए।
विदित हो कि वर्ष 1976 में श्रीमती इंदिरा गांधी की सरकार बंधुआ श्रमिक प्रथा को खत्म करने के लिए कानून लाई थी और कुछ समय बाद ही सरकार ने घोषणा कर दी कि देश में अब कोई बंधुआ श्रमिक नहीं है।
कलकत्ता में अधिवक्ता सब्यसाची मुखर्जी जो कि बाद में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश भी बने, उनके शागिर्द की हैसियत से सीखे कानूनी दावपेंच ही काम आये और सुप्रीम कोर्ट ने बंधुआ मुक्ति मोर्चा के पक्ष में ऐतिहासिक निर्णय दिया। बंधुआ श्रमिकों को नए सिरे से परिभाषित किया गया। हालांकि बाद की सरकारों ने इस नई परिभाषा को मानने से लगभग इंकार कर दिया। वरना आज की परिस्थिति में देश का 75 प्रतिशत श्रमिक, कॉल सेंटर में काम करने वाले एक्सिक्यूटिव, सॉफ्टवेयर कंपनी के इंजीनियरों के साथ-साथ भारत सरकार और राज्य सरकारों में ठेका पद्धति से काम पर लगे सभी लोग बंधुआ श्रमिक की श्रेणी में आते।
लेकिन पिछले 30 साल में तो देश में जो माहौल बना है वहां पर तो किसी को अपने खुद के मानवाधिकारों की चिंता नहीं है। सबको चिंता है तो धर्म की, जाति की, पाकिस्तान की, अम्बानी और अडानी की। वरना क्या कारण था कि झारखंड के एक छोटे से कस्बे के कुछ भटके नौजवान विश्व प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता, भगवाधारी बुजुर्ग सन्यासी पर हमला करते। और कौन थे वो भटके हुए लड़के, निम्न मध्यम वर्ग परिवारों के, उनमे से अधिकांश दलित, आदिवासी थे। हमले की असली वजह आर्थिक थी।
आप किसी का विरोध भी करते हो और फिर उस व्यक्ति के पास चले भी जाते हो। ऐसा कैसे कर लेते हो? जो व्यक्ति आपको गाली देता है आप उससे भी हंसकर मिल लेते हो, ऐसा क्यों और कैसे कर लेते हो? ये प्रश्न मैंने उनसे एक बार पूछा था। तो उन्होंने कहा कि
“सन्यासी हूं, न किसी से राग न द्वेष।
न किसी की बात का बुरा मानता हूं,
और न किसी को इस डर से कुछ बोलने से पीछे रहता हूं कि उसको बुरा लगेगा।”
आर्य समाज के सन्यासी थे, लेकिन आर्य समाज में आ रही बुराईयों के अलावा लगभग सभी धर्मों की खुलकर आलोचना भी करते थे। धार्मिक पाखंड, अन्धविश्वास, और अंधभक्ति के खिलाफ वे ताउम्र मुखर रहे। लेकिन जब बात आई कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ सभी धर्म गुरुओं को इकठ्ठा करने की, तो सबकी चौखट पर गए। जिसका विरोध करते थे उससे भी मिले और उसे भी समझाया कि कन्या रहेगी तो धर्म भी रहेंगे। परिणामस्वरुप वर्ष 2005 में दिवाली के दिन अर्थात लक्ष्मी पूजा के दिन टंकारा गुजरात से सर्वधर्म यात्रा शुरू हुई जो 22 दिन बाद अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में समाप्त हुई। मुझे गर्व है कि इस यात्रा के संचालन में मेरी भी अहम भूमिका थी।
स्वामी जी से जुड़ी ऐसी और भी बहुत-सी बातें हैं जिनके कई लोग साक्षी रहे होंगे। कैसे जनता पार्टी में चंद्रशेखर के खिलाफ पार्टी अध्यक्ष का चुनाव लड़ा, चुनाव हारे, अटल बिहारी बाजपेयी जी के खिलाफ कई बार लड़े और हारे, आर्य समाज ने अनेकों बार उन्हें आर्य समाज से ही निकाल दिया लेकिन उस निडर-कर्मयोगी ने कभी हार नहीं मानी। वर्ष 2004 में दुनिया का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार “दी राइट लाइवलीहुड अवार्ड’ – जिसे कि अल्टरनेटिव नोबल पुरस्कार भी कहा जाता है, सहित अनेक पुरस्कार मिले। लेकिन कोई पुरस्कार, कोई मान-अपमान स्वामी अग्निवेश को उनके पथ से डिगा नहीं पाया।
देश में सांप्रदायिक दंगा हो, जातिगत हिंसा, कश्मीरी अलगावादियों का आंदोलन या नक्सली आंदोलन, जब-जब सरकार या समाज को स्वामी जी की जरूरत पड़ी, उन्होंने देश हित में तत्काल जिम्मेदारी निभाई। अक्सर वार्ता करने या दो पक्षों के बीच जमीं बर्फ को तोड़ने का काम स्वामी अग्निवेश ने ही किया। आज भले ही अनेक प्रकार के धर्मगुरु खुद को मध्यस्थ की भूमिका में प्रतिस्थापित करने के लिए इच्छुक रहते हों, लेकिन देश-दुनिया में एक निष्पक्ष व्यक्ति के तौर पर जो सम्मान स्वामी अग्निवेश को प्राप्त था वो शायद ही किसी और को हासिल हो। मेरी नजर में अनेक मामलों में उनका सम्मान महात्मा गांधी के आसपास ही है।
तो फिर बंधुआ श्रमिकों के आंदोलन का क्या हुआ? और क्यों आप अपने संगठन को एक राष्ट्रीय या अंतराष्ट्रीय संगठन नहीं बना पाए जबकि आपके साथ काम कर चुके अनेक लोग विशेषकर कैलाश सत्यार्थी जी का संगठन तो आज अंतराष्ट्रीय बन चुका है, जबकि आपके पास तो अपने कार्यकर्ताओं को तनख्वाह देने के भी पैसे नहीं है।
इस सवाल पर स्वामी जी अक्सर बैचेन हो जाते थे। मैंने संन्यास कोई संगठन खड़ा करने या पुरस्कार पाने के लिए नहीं लिया था। मैं ईमानदारी से बंधुआ श्रमिकों की मुक्ति चाहता हूं। इस लड़ाई में लोग जुड़ेंगे, कुछ दिन साथ रहेंगे, फिर अपनी-अपनी परिस्थिति और स्वार्थानुसार निकल जायेंगे। मैं देश के बंधुआ श्रमिकों की मुक्ति चाहता हूं लेकिन इसके लिए विदेशी मदद नहीं लूंगा और न ही विदेशियों के सामने रोऊंगा। देश के लाखों मजदूरों के आर्थिक हितों को नुक्सान पहुंचाने के लिए मैं दुनिया भर में ये भी प्रचारित नहीं कर सकता कि भारत के कालीन (कार्पेट) में बच्चों का खून लगा हुआ है। जैसा कि अनेक लोग करते हैं और पुरस्कार और पैसा ले आते हैं। आर्थिक संसाधनों की कमी और अनेक बार शारीरिक हमले झेलने के बावजूद भी लगभग 2 लाख श्रमिकों को बंधुआ प्रथा से मुक्त करवाने का श्रेय तो स्वामी जी को जाता ही है। पत्थर खदानों से लेकर, कालीन और जरी उद्योग, ईंट-भट्टों से लेकर चूड़ी उद्योग में काम करने वाले बाल श्रमिक या बंधुआ मजदूरों को मुक्त करवाया। उनको उनके अधिकार दिलवाने के लिए संघर्ष किया।
स्वामी अग्निवेश जीवन के अंत तक अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहे। इस दौरान अनेक साथियों ने उन्हें छोड़ दिया। मुझसे भी स्वामी जी को बहुत उम्मीद थी, लेकिन मैंने भी कुछ साल में ही उनको छोड़ दिया। हालांकि मेरा उनसे मिलना जुलना लगातर बना रहता था। अभी इसी वर्ष मार्च महीने में ही उनसे लंबी बातचीत हुई, अगले कई वर्षों के कार्यक्रम बनाये गए। मई में जयपुर में बंधुआ मुक्ति मोर्चा की राष्ट्रीय चौपाल आयोजित करने का कार्यक्रम था। स्वामी जी चाहते थे कि मैं सब कुछ छोड़कर बंधुआ मुक्ति मोर्चा का काम संभाल लूं। पर क्या ये मेरे जैसे साधारण पृष्ठभूमि के आम मनुष्य के लिए संभव है? घर परिवार की जिम्मेदारियां हो या सांसारिक सुखों का त्याग करना, इसके लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए होता है, बहुत बड़ा काम है ये।
बहुत कुछ है लिखने को, शब्द भी कम पड़ रहे हैं और भावनाएं भी कलम पर हावी हो रही हैं। सती प्रथा के खिलाफ स्वामी जी का आंदोलन, हिंदी भाषा के पक्ष में आप मुखर रहे, पशु क्रूरता के खिलाफ, दहेज प्रथा, धार्मिक-जातिगत और लैंगिग हिंसा के खिलाफ आपसे संघर्ष अतुलनीय हैं।
इसलिए उस कर्मयोगी महामानव को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए सिर्फ इतना लिखूंगा कि स्वामी अग्निवेश जी मैं प्रयास करूंगा कि आपके बताये रास्ते पर चल सकूं। पूरी तरह अगर संभव नहीं भी हुआ तो भी जितना संभव होगा आपकी उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करूंगा।
अलविदा स्वामी अग्निवेश, जिस दुनिया में ही रहोगे अपना आशीर्वाद बनाये रखना।
आपका
(प्रेम बहुखंडी)
11 – 12 सितम्बर, 2020