बाबा टिकैत: किसानों को सत्ता से भिड़ने की ताकत देने वाला नेता
चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत (6 अक्टूबर 1935 – 15 मई 2011)
2 अक्टूबर 2018 को जब देश गांधी जयंती मना रहा था तो दिल्ली पुलिस किसानों पर लाठियां बरसा रही थी। लाठियां बरसाने वाले जवान भी ज्यादातर किसानों के ही बेटे थे। इस तरह जवान और किसान आमने-सामने थे। राजधानी से अपने मन की बात कहने चले किसानों को सरकार ने यूपी बॉर्डर पर ही रोक दिया तो टकराव होना ही था। लेकिन इस टकराव के बीच उभरी इस तस्वीर को कौन भूल सकता है? एक बुजुर्ग किसान पुलिसवालों से भिड़ गया! इस तस्वीर के पीछे जिस आदमी का दिया हौसला है उस बाबा टिकैत की आज जयंती है।
यह तस्वीर हाल के दशकों में किसानों की सबसे सशक्त आवाज चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की विरासत मानी जा सकती है। किसानों में जो हौसला टिकैत भर गए थे, वह आज भी कहीं ना कहीं दिख जाता है। अगर चौधरी चरण सिंह के रूप में एक किसान प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचा तो महेंद्र सिंह टिकैत ने सरकारों को किसान के आगे झुकना सिखाया।
खुद को गरीब मां का बेटा कहकर लंबी-लंबी फेंकने वाले आज के नेताओं से उलट चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत का देसी अंदाज, सादा जीवन, जमीनी पकड़ और अक्खड़ मिजाज ही था जो हुकूमत को हिलाने की कुव्वत रखता था। इस आवाज ने कितनी ही बार किसानों के बिजली बिल माफ करवाए, मुआवजे और उचित दाम की मांगें पूरी करवाई। कई बार कुछ नहीं भी करवा पाए तो एक हिम्मत दिलाई कि सरकार को झुकाया जा सकता है। कोई तो है जो किसानों के साथ खड़ा है।
80 के दशक में जब चौधरी चरण सिंह और देवीलाल जैसे किसान नेताओं की सक्रियता के दिन बीत रहे थे और हरित क्रांति के सुनहरे दावे बोझ बनने लगे, तब टिकैत आते हैं। जब फसल की लागत और कीमत का अंतर घटने लगा और किसान नेतृत्व का खालीपन बढ़ रहा था, तब टिकैत खड़े हुए।
17 अक्टूबर, 1986 को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले (अब शामली) के सिसौली गांव में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में बनी भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) देश भर के किसानों की आवाज बन गई। भाकियू का यूपी, हरियाणा और पंजाब के अलावा राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी काफी असर था।
अस्सी के दशक में तब देश और प्रदेशों में कांग्रेस की सरकारें थीं। सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार, बिजली के दाम में बढ़ोतरी और फसलों के दाम को लेकर किसान खासे परेशान थे। इस दौरान जनवरी, 1987 में शामली के करमूखेडी बिजली घर पर किसानों का एक धरना-प्रदर्शन शुरू हुआ जिसकी अगुवाई महेंद्र सिंह टिकैत कर रहे थे। किसान ट्यूब वैल की बिजली दरें बढ़ाए जाने से परेशान थे। इस आंदोलन से निपटने हेतु पुलिस ने किसानों पर गोलियां चला दी जिसमें लिसाढ़ गांव के किसान जयपाल सिंह व सिंभालका के अकबर अली की मौत हो गई। इस टकराव में पीएसी का एक जवान भी मारा गया। इस घटना ने एक बड़े किसान आंदोलन को जन्म दिया।
आखिरकार, उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरबहादुर सिंह ने टिकैत की ताकत को पहचाना और खुद सिसौली गांव जाकर किसानों को राहत का ऐलान किया। टिकैत ने घर आए मुख्यमंत्री को भी मिट्टी के करवे से पानी पिलाकर किसानों का दिल जीत लिया। यह ठेट अंदाज उनकी पहचान बन गया। वे खुद भी ऐसे ही थे। एकदम साधारण किसान।
अगले साल यानी 1988 में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में बड़ी तादाद में किसान मेरठ कमिश्नरी का घेराव करने पहुंचे। मुद्दे तब भी वही थे। फसल का दाम, बिजली की महंगी दरें, महंगा खाद-पानी आदि। तब देश में कांग्रेस विरोधी लहर और जनता दल की अगुवाई में विपक्षी दलों के लामबंद होने के दिन थे। भाकियू के कमिश्नरी घेराव को समर्थन देने के लिए राजनीतिक दलों में होड़ मच गई। लेकिन टिकैत ने अपने संगठन और आंदोलन को अराजनीतिक कहलाना पसंद किया। हालांकि, मोदी के गैर-राजनीतिक इंटरव्यू की तरह इस पर भी मतभेद हैं कि ऐसे किसान आंदोलन या संगठन कितने अराजनैतिक हो सकते हैं। मुख्यधारा की राजनीति के साथ संबंधों को लेकर ऊहापोह की यह स्थिति आज तक भाकियू और इससे टूटे धड़ों का पीछा नहीं छोड़ रही है।
शुरुआत से ही टिकैत और भारतीय किसान यूनियन पर जाट समुदाय और खाप का दबदबा था। लेकिन टिकैत को सभी धर्म-जात-खाप के लोगों को साथ लेकर चलने का श्रेय मिलना चाहिए। उनके सबसे पहले आंदोलन में जान देने वाले दो किसानों में से एक मुस्लिम था। जाट, गुर्जर और मुस्लिम और अन्य जातियों के किसान उनकी रैलियों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते थे। किसान के तौर पर अपनी पहचान को गले लगाते थे।
1988 में टिकैत ने मेरठ कमिश्नरी का ऐतिहासिक घेराव किया तो मंदिर आंदोलन और सांप्रदायिक राजनीतिक का जोर था। मेरठ दंगों की आग मेंं झुलस रहा था। लेकिन बाबा टिकैत के भाईचारे के नारों ने उस माहौल को बदल दिया। जात-धर्म भूलकर लोग खुद को किसान मानने लगे। हालांकि, नफरत की राजनीति के सामने यह दौर ज्यादा दिनों तक नहीं टिका। फिर भी भाईचारे की एक आवाज टिकैत की शक्ल में पश्चिमी यूपी में मौजूद थी जिसकी कमी आज खल रही है।
1989 में मुजफ्फरनगर के भोपा कस्बे में एक मुस्लिम युवती का अपहरण और हत्याकांड हुआ तो भाकियू ने इंसाफ के लिए नहर किनारे हफ्तों तक आंदोलन किया। उस आंदोलन की धुंधली-सी याद अब भी मेरे जेहन में है। नहर के दोनों किनारे पर दूर तक ट्रैक्टरों और किसानों का हुजूम था। पुलिस ने ट्रैक्टर नहर में धकेल दिए मगर किसान पीछे नहीं हटे। आखिर में एनडी तिवारी की सरकार को झुकना पड़ा और किसानों की मांगे मानने के अलावा ट्रैक्टर भी वापस दिलाने पड़े।
इस घटना ने हिंदू-मुस्लिम भाईचारे को तो मजबूत किया ही, भाकियू को उत्तर भारत के गांव-गांव में पहुंचा दिया। हरी टोपी किसान चेतना का प्रतीक बन गई। देश में एक नए किसान नेता का उभार राष्ट्रीय अखबारों की सुर्खियां बनने लगा।
मेरठ कमिशनरी घेराव की कामयाबी के बाद महेंद्र सिंह टिकैत ने दिल्ली में किसान पंचायत का ऐलान किया। 25 अक्टूबर 1988 को लाखों की तादाद में किसान नई दिल्ली के बोट क्लब पर आ डटे। पिछले तीस-चालीस साल में वह संभवत: सबसे बड़ी किसान रैली थी। दिल्ली पर किसानों का कब्जा-सा हो गया था। मजबूरी में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को इन्दिरा गांधी की पुण्यतिथि का कार्यक्रम लाल किले के पीछे शिफ्ट करना पड़ा। टिकैत का यह अड़ियल रवैया किसानों को आत्मविश्वास से भर देता था। उन्हें अपनी ताकत का अहसास कराता था।
राजीव गांधी को इसलिए भी झुकना पड़ा क्योंकि टिकैत के साथ-साथ देश भर के तमाम किसान संगठन भी एकजुट होने लगे थे। तब कर्नाटक में नंजुंदास्वामी, आन्ध्र प्रदेश पी. शंकर रेड्डी, पंजाब के भूपेन्द्र सिंह मान और अजमेर सिंह लाखोवाल, महाराष्ट्र में नेता शरद जोशी, हरियाणा में घासीराम नैन, प्रेम सिंह दहिया किसानों की आवाज को पुरजोर तरीके से उठा रहे थे। हालांकि, राष्ट्रीय स्तर पर किसान संगठनों के समन्वय की कोशिशें बहुत कामयाब नहीं रही। लेकिन टिकैत के साथ इन सभी किसान नेताओं ने सरकारों पर दबाव बनाए रखा।
आज चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत की जयंती पर कुछ बातें खासतौर गौर करने लायक हैं। जिस उत्तर प्रदेश में नेताओं की भरमार थी और एक के बाद एक प्रधानमंत्री सूबे से निकले रहे थे, वहां टिकैत ने आम किसान को ताकत दी। हर किसान खुद को टिकैत मानने लगा। हरी टोपी किसान स्वाभिमान का प्रतीक बन गई। यह लोगों को “मैं भी अन्ना” लिखी टोपियां पहनाए जाने से काफी पहले की बात है। इन हरी टोपियों का असर आज तक कायम है।
हालांकि, टिकैत के आखिरी दिनों में जैसे-जैसे सांप्रदायिक राजनीति देश पर हावी होती गई, किसान आंदोलनों का असर भी घटने लगा था। किसान आंदोलन के बिखराव की कई दूसरी वजह भी हैं। लेकिन किसानों के हक की लड़ाई लड़ने और उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करने का जज्बा टिकैत में आखिरी सांस तक रहा। यह उनके आंदोलनों की ताकत ही थी कि पश्चिमी यूपी के सिसौली जैसे गांव को किसान राजनीति का केंद्र बना दिया। उनके हुक्के की गुडगुडाहट सरकार के पसीने छुड़ा देती थी। फसल के दाम, खाद-बिजली-पानी और जमीन के मुआवजे जैसे मुद्दों को लेकर वे जीवन भर किसानों के साथ डटे रहे।
सन 2010 में अलीगढ़ के टप्पल में किसानों के भूमि अधिग्रहण का आंदोलन उनकी आखिरी लड़ाई थी। 76 साल की उम्र में भी बाबा टिकैत किसानों की ताकत बने रहे। कभी अपनी जमीन नहीं छोड़ी!