कौशल विकास के दावों पर खाली सीटों के सवालिया निशान
साल 2015 में केंद्र सरकार ने अपने फ्लैगशिप कार्यक्रम स्किल इंडिया मिशन की शुरुआत की थी। इसका उद्देश्य था 2022 तक लगभग 40 करोड़ लोगों को प्रशिक्षित करना। विषय की गंभीरता और आवश्यकता को समझते हुए केंद्र सरकार द्वारा मिशन के लिए अलग से कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्रालय की स्थापना की गई। प्रधानमंत्री ने भी कौशल विकास की खूब बातें की। तकनीकी क्षेत्र में कौशल विकास का दायित्व जिन सार्वजनिक संस्थानों पर है उनमें औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों (आईटीआई) और पॉलिटेक्निक संस्थानों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जहां आईटीआई मुख्य रूप से प्रशिक्षण के बुनियादी और व्यावहारिक पक्ष पर जोर देते हैं, वहीं पॉलिटेक्निक संस्थानों को व्यावहारिक विज्ञान के साथ-साथ शुरुआती लेकिन सशक्त तकनीकी दृष्टिकोण विकसित करने के उद्देश्य से बनाया गया था।
देश में सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में वर्ष 2019-20 में कुल 1326 पॉलिटेक्निक संस्थान थे। इसमें से 147 संस्थान सरकारी, 19 अनुदानित, 1155 संस्थान प्राइवेट और 05 संस्थान प्रदेश सरकार के अन्य विभागों द्वारा संचालित हैं। इन पॉलिटेक्निक संस्थानों में कुल लगभग 2.31 लाख सीटें उपलब्ध हैं। इनमें से लगभग 34 हजार सीटें राजकीय या सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों में प्रतिवर्ष उपलब्ध रहती हैं। फिलहाल राज्य में कुल पॉलिटेक्निक सीटों की संख्या लगभग 2.40 लाख है।
कुछ साल पहले तक पॉलिटेक्निक संस्थानों में प्रवेश के लिए काफी प्रतिस्पर्धा रहती थी। लेकिन हाल के वर्षों में पॉलिटेक्निक संस्थानों खासकर प्राइवेट संस्थानों में काफी सीटें खाली रह जाती हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, पॉलिटेक्निक संस्थानों में प्रवेश के लिए 9 दौर की काउंसिलिंग के बाद भी कुल उपलब्ध लगभग 2.41 लाख सीटों में से लगभग 1.20 लाख सीटें (लगभग 50 फीसदी) खाली रह गई थी। इसके बाद 10वें चरण के लिए भी विशेष मौका दिया गया।
हालांकि, प्रवेश परीक्षा और खाली सीटों के बारे में संयुक्त प्रवेश परीक्षा परिषद्, उ.प्र. सरकार के सचिव एसके वैश्य ने बताया कि उनके पास जो डेटा है उसके हिसाब से पॉलिटेक्निक की 85 फीसदी सीटें भर गई हैं। पिछले साल लगभग डेढ़ लाख छात्रों ने तो प्रवेश परीक्षा ही नहीं दी। उन्होंने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के कठोर नियमों और महिला पॉलिटेक्निक संस्थानों में कम प्रवेश को मुख्य रूप से खाली सीटों की वजह बताया।
पिछले साल के दाखिलों पर कोरोना महामारी और लॉकडाउन का असर पड़ा है। लेकिन पॉलिटेक्निक संस्थानों की सीटें खाली रहने का सिलसिला कई वर्षों से जारी है। प्राविधिक शिक्षा निदेशालय के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019-20 में जब कोविड-19 जैसे हालात नहीं थे, तब भी पॉलिटेक्निक की 2.43 लाख सीटों में से एक लाख से ज्यादा यानी 41 फीसदी सीटें खाली रह गईं थी। इससे पहले 2018-19 में पॉलिटेक्निक संस्थानों की 29 फीसदी और 2017-18 में 33 फीसदी सीटें खाली रही थी।
यूपी के पॉलिटेक्निक संस्थाओं में पंजीकरण
वर्ष | कुल सीटें | पंजीकरण | खाली सीटें |
2016-17 | 141833 | 100745 | 29% |
2017-18 | 139644 | 93828 | 33% |
2018-19 | 148629 | 105635 | 29% |
2019-20 | 243279 | 142973 | 41% |
आश्चर्य की बात है कि 2019-20 में राजकीय पॉलिटेक्निक संस्थानों की भी 81 फीसदी सीटें ही भर पायी थीं, जबकि प्राइवेट पॉलिटेक्निक संस्थानों की तो 46 फीसदी सीटें खाली रह गई थीं। हर साल पॉलिटेक्निक की इतनी सीटें क्यों खाली जा रही हैं? इसे समझने के लिए नीतिगत और जमीनी अव्यवस्थाओं से जूझते इन संस्थानों की स्थिति को समझने की जरूरत है। साथ ही पॉलिटेक्निक की सीटों में वृद्धि, उद्योग जगत की हालत और नौकरियों की अवसरों में आई कमी पर भी गौर करना जरूरी है।
उत्तर प्रदेश के सभी आईटीआई और पॉलिटेक्निक संस्थान ‘उत्तर प्रदेश प्राविधिक शिक्षा अधिनियम -1962’ से संचालित होते हैं। इस समय उत्तर प्रदेश के विभिन्न पॉलिटेक्निक संस्थानों में 3 वर्ष के लगभग 67 विषयों में डिप्लोमा कोर्स करवाए जाते हैं। शायद ही कोई ऐसा महत्वपूर्ण क्षेत्र हो जिसमें पॉलिटेक्निक डिप्लोमा कार्यक्रम उपलब्ध न हो। यहां तक कि एआईसीटीई द्वारा सत्र 2020-21 के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, थ्री-डी प्रिंटिंग, रोबोटिक्स तथा मशीन लर्निंग जैसे उभरते क्षेत्रों में भी डिप्लोमा कार्यक्रम की अनुमति प्रदान की गई है।
2014 में लोकसभा में जवाब देते हुए संबंधित मंत्रालय के मंत्री महोदय ने लगभग एक हजार नए पॉलिटेक्निक संस्थानों को खोलने की बात कही थी। 2015 के बाद लगभग 300 नए संस्थानों के लिए भी योजना तैयार की जा चुकी है। कुछ के लिए धन आवंटित किया जा चुका है तो कुछ का निर्माण कार्य भी शुरू हो चुका है। परंतु अगर हम उत्तर प्रदेश में पहले से मौजूद पॉलिटेक्निक संस्थानों की हालत देखें तो काफी निराशाजनक तस्वीर दिखाई देती है। विद्यार्थियों में यह निराशा पढ़ाई और प्रशिक्षण की गुणवत्ता को लेकर है। उद्योगों के साथ संस्थानों के तालमेल में कमी प्रशिक्षुओं के आगे बढ़ने के अवसरों पर असर डालती है। और अंततः लचर ट्रेनिंग और प्लेसमेंट उनके भविष्य की रीढ़ तोड़ देता है।
पॉलिटेक्निक संस्थान कौशल, प्रशिक्षण व औद्योगिक विकास की प्रमुख कड़ी हैं। किंतु पॉलिटेक्निक शिक्षा व्यवस्था नीति-निर्माताओं और सरकारी सिस्टम के बीच फंसकर लचर होती गई। कोई सरकार नहीं चाहेगी कि करोड़ों रुपये की सरकारी मदद के बावजूद उसके छात्र मूलभूत सुविधाओं से वंचित रहें। दुर्भाग्यवश, उत्तर प्रदेश के सरकारी पॉलिटेक्निक संस्थानों में यही हो रहा है। यहां छात्र और संस्थान दोनों सरकारी मदद के बावजूद विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे हैं। इस बीच साल दर साल पॉलिटेक्निक संस्थानों की खाली सीटें कौशल विकास के दावों पर सवालिया निशान लगा रही हैं।
इन समस्याओं के मुख्यत: दो पहलू हैं। पहला – इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमी और दूसरा – संस्थान विशेष से जुड़ी समस्याएं।
उत्तर प्रदेश के राजकीय पॉलिटेक्निक संस्थान बिजली की किल्लत, अपूर्ण प्रयोगशालाएं, नई किताबों का अभाव, अध्यापकों की कमी और संस्थान की मुख्यालय से दूरी जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। किसी में प्रयोगशाला के उपकरण खराब हैं, तो किसी में उपकरण सिर्फ कागजों में उपलब्ध हैं। जबकि सरकार के अनुसार वो पूरा पैसा और सुविधाएं प्रदान कर रही हैं, परन्तु ये सुविधाएं शायद नीचे तक पहुंच नहीं पा रही हैं।
दूसरी समस्या के बीज पॉलिटेक्निक संस्थानों के प्रशासन में पनप रहे हैं। उदाहरण के लिए – कक्षाओं का रेगुलर न लगना, कोर्स पूरा न होना, अध्यापकों का समय पर क्लास न लेना, छात्रों के साथ अध्यापकों का इनटरैक्टिव संबंध न होना, अध्ययन व शिक्षकों को लेकर छात्रों हेतु शिकायत फोरम का अभाव तथा ट्रैनिंग एवं प्लेसमेंट अधिकारी (TPO) की निष्क्रिय भूमिका जैसे प्रमुख कारण आदि।
इसके अतिरिक्त एक तीसरी समस्या छात्रों में अपने भविष्य को लेकर है। जूनियर इंजीनियर जैसे पदों के लिए नाममात्र की सरकारी नौकरी ही उपलब्ध हैं। सरकारी नौकरी की समस्याओ को लेकर छात्रों में एक खास किस्म की निराशा का भाव पनप चुका है। कानपुर जोन में स्थित राजकीय पॉलिटेक्निक, घाटमपुर के एक छात्र से जब पूछा कि आपको कोई समस्या है? तो उसने जो जवाब दिया वो सिर्फ जवाब नहीं बल्कि संस्थागत और अवसंरचनात्मक समस्याओं का पिटारा था। ऑटमोबाइल ब्रांच से डिप्लोमा कर रहे इस छात्र ने कहा कि “यहां नाम मात्र की बिजली आती है, इसलिए हम अपने ज्यादातर प्रैक्टिकल नहीं कर पाते। लेथ मशीन जैसी हैवी मशीने किसी इंवर्टर से नहीं चल सकती, बिना बिजली के ये मशीनें चल ही नहीं सकतीं। बिजली उपलब्ध भी हो तब भी हमारे पास बहुत से ऐसे उपकरणों का अभाव है जिनकी प्रैक्टिकल के दौरान हमें जरूरत पड़ती है।” लाइब्रेरी को लेकर जो जवाब मिला वो तो पूरी तरह चौंकाने वाला था। डिप्लोमा के द्वितीय वर्ष के एक छात्र ने कहा “आज तक कभी लाइब्रेरी खुली ही नहीं।”
कौशल विकास की रीढ़ समझे जाने वाले इन संस्थानों में यदि डिप्लोमा अवधि में कभी लाइब्रेरी नहीं खुली, और ज्यादातर समय बिजली नहीं आई तो हम स्वतः ही समझ सकते हैं कि यहां के छात्रों को कैसी ट्रेनिंग मिलेगी और उनका कैसा कौशल विकास होगा।
कानपुर महानगर के पॉलिटेक्निक संस्थान की समस्याएं अलग हैं। यहां के एक छात्र ने तो यहां तक कह दिया की अगर हम कॉलेज के किसी शिक्षक से शैक्षणिक सुविधाओं को लेकर कभी मांग कर लें तो वो नाराज हो जाते हैं। हम प्रधानाध्यापक तक पहुंच जायें तो कॉलेज प्रशासन द्वारा हमारे साथ हिंसक बर्ताव तक कर दिया जाता है। अध्यापक समय से क्लास में नहीं आते। कानपुर के राजकीय पॉलिटेक्निक कॉलेज के एक छात्र का कहना है कि “हम ‘गूगल’ और यू ट्यूब के भरोसे अपना डिप्लोमा पूरा कर रहे हैं। एक तो समय पर क्लास पूरी नहीं होती, और अगर हो भी जाए तो क्लास खत्म होने के बाद कुछ ‘गेन’ हुआ हो, ऐसा कभी नहीं लगता”।
मुख्यालय से दूर स्थित पॉलिटेक्निक संस्थानों में अलग किस्म की समस्याएं हैं। कई पॉलिटेक्निक संस्थान इतने इन्टीरीअर में होते हैं कि छात्रों के लिए आना-जाना मुश्किल होता है। इस वजह से बहुत-सी छात्राएं बीच में ही कोर्स छोड़ देती हैं और कुछ क्लास करने से कतराती है। हमारे सामाजिक ढांचे में महिलाओं की जो स्थिति है वहां उनके लिए ‘अवसर’ मिलना ही बड़ी बात होती है। महिलायें सरकारी संस्थानों में मिले अवसर को खोना नहीं चाहतीं परंतु कई पॉलिटेक्निक ऐसी जगह होते हैं कि घरवाले छात्राओं को वहां प्रवेश नहीं लेने देते। और अगर लेने भी देते हैं तो परिजनों को छात्रा की सुरक्षा की चिंता रहती है।
इन समस्याओं के बीच कोविड-19 महामारी ने दिक्कतें बढ़ा दी हैं। अचानक कक्षाएं बंद हो गईं, स्टडी मटेरियल मिलना बंद हो गया, प्रैक्टिकल पहले ही कम होते थे, जो बिल्कुल बंद हो गए। जबकि पॉलिटेक्निक का मतलब ही “प्रैक्टिकल ट्रेनिंग” से है। फिर ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट कनेक्टिविटी की भी समस्या है, जिसकी वजह से ऑनलाइन सीखने में परेशानी आती है। ऐसे में कोरोना संकट का भारी खामियाजा पॉलिटेक्निक समेत व्यावसायिक शिक्षण संस्थानों और वहां के छात्रों को उठाना पड़ा।
सरकारी नौकरी और भविष्य की चिंता
पॉलिटेक्निक कोर्स को लेकर यदि हम थोड़ा गहराई में जाएं तो हमें अहसास होगा कि ज्यादातर छात्र एवं छात्राएं ऐसे हैं जिन्हें जल्द नौकरी की आवश्यकता होती है। या फिर ऐसे छात्र होते हैं जो बीटेक में एडमिशन लेने के लिए कोचिंग संस्थानों में लाखों रुपये की फीस देने में असक्षम होते हैं। इसलिए ऐसे कोर्स में एडमिशन ले लेते हैं, जिससे जल्द नौकरी मिल जाए। परंतु एक पॉलिटेक्निक छात्र के पास भविष्य की क्या संभावनाएं हैं, उसे शुरुआत से नहीं पता होता। संस्थानों में जाने के बाद ही पता चलता है कि यहां सरकारी नौकरी तो बहुत मुश्किल है। प्राइवेट नौकरी में शुरुआत में ना डिप्लोमा के अनुसार जॉब प्रोफाइल मिलता है, और न ही सरकारी-जैसी सैलरी। यही कारण है कि बहुत से डिप्लोमा होल्डर्स प्राइवेट जॉब छोड़ देते हैं।
पॉलीटेक्निक छात्रों के ट्रेनिंग और प्लेसमेंट पर काम करने वाली एक संस्था “मेधा” के अनुसार पालीटेक्निक डिप्लोमा कोर्स पास करने के बाद लगने वाली प्राइवेट नौकरी को 60 से 70% छात्र जॉइन ही नहीं करते, जिसका प्रमुख कारण छात्रों की आकांक्षाओं व प्राइवेट जॉब में मिलने वाली सैलरी के बीच का अंतर ही है। जबकि प्लेसमेंट अधिकारियों के अनुसार उनके ज्यादा से ज्यादा छात्र जॉब कर रहे हैं, इसका प्रमाण वो कागजों में दिखा ही देते हैं, परन्तु सच्चाई ये होती है कि छात्र जॉब न करते हुए इलाहाबाद जैसे शहरों को प्रस्थान करते हैं, और जेई जैसी सरकारी नौकरियों के लिए वर्षों तक तैयारी में लगा देते हैं।
सरकारी नौकरी, जूनियर इंजीनियर (JE) के लिए बहुत से डिप्लोमा होल्डर्स सपने देखते हैं और भरपूर तैयारी भी करते हैं, परंतु यहां समस्या ये है कि जूनियर इंजीनियर के लिए पदों की भर्ती इतनी आसानी से आती ही नहीं। मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में 2013 में जूनियर इंजीनियर की भर्ती निकली थी जिसकी भर्ती प्रक्रिया 2017 में जाकर पूरी हो पाई और इसे भी 2017 में आई नई सरकार ने रद्द कर दिया। दोबारा भर्ती प्रक्रिया शुरू की गई और अभी हाल में लगभग 1400 नियुक्ति पत्र प्रदान किये गए। अब अगली भर्ती कब निकलेगी नहीं पता, नियुक्ति हो भी जाए तो ये नहीं पता कि नई सरकार आएगी तो नियुक्ति रद्द होगी या नहीं। मतलब छात्र ! जिस पर अनंत दबाव रहता है, उसे नियुक्ति की इस अनिश्चितता से भी लड़ना होता है। इस लड़ाई के लिए उसने अपनी पढ़ाई के दौरान कोई ट्रैनिंग नहीं ली होती है।
उत्तर प्रदेश में उपस्थित अधिकांश पॉलिटेक्निक संस्थान ऐसी ही संरचनात्मक समस्याओं से जूझ रहे हैं। गाजियाबाद जोन के गजरौला सुतावली के एक छात्र ने बताया कि थर्ड ईयर के छात्र होने के नाते उन्हें बाहर गाँव के एक घर में रहना पड़ रहा है क्योंकि हॉस्टल में नए एडमिशन होने है। छात्र ने यह भी बताया कि यहां तो प्लेसमेंट ही नहीं होते क्योंकि यह बहुत ही इंटीरियर में है।
जब इन समस्याओं के बारे में प्राविधिक शिक्षा निदेशालय के निदेशक मनोज कुमार से पूछा गया तो उन्होंने पॉलिटेक्निक संस्थानों की शहर से दूरी, पर कहा कि “शहर से संस्थानों की दूरी को हमें ग्रामीण विकास के नजरिये से देखना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में खुलने वाले संस्थान आसपास के ग्रामीण क्षेत्र के सर्वांगीण विकास में योगदान दे सकते हैं। यद्यपि परिवहन सुविधाओं पर तथा संस्थान तक आसान पहुँच को लेकर अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।” लैबोरेटरी के विषय पर उनसे बात की गयी तो उन्होंने पहले तो कॉलेज के प्रिंसिपल पर प्रहार किया, उन्होंने कहा कि उन्हें जितना बजट मांगते हैं उतना दिया जाता है फिर उन्हें अव्यवस्था नहीं रखनी चाहिए क्योंकि बिना प्रैक्टिकल के पढाई कैसे संभव है? साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि “अव्यवस्था की जिम्मेदारी मै ही लेता हूँ, क्योंकि इन सभी की जिम्मेदारी अंततः मेरी ही तो है,” उनका कहना था कि “बहुत से छात्रों के पास मेरा नंबर है मैंने कहा है कि कोई भी दिक्कत हो तो मुझसे संपर्क करें” उन्होंने कहा कि सभी किताबें डिजिटल कर दी गयी हैं, बच्चे ब्रांच के अनुसार अपने पठन सामग्री को आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। हां, प्रयोगशालों में अभी बहुत जगह काम करना बाकी है, और बहुत से ऐसे कॉलेज हैं जहां नियमित रूप से प्रयोगशालाएं चल रही हैं।”
समाधान के मौलिक आयाम
2016 में “वायर्ड” पत्रिका के फाउंडिंग एग्जीक्यूटिव एडिटर और विद्वान केविन केली की एक पुस्तक आई थी। इस पुस्तक का नाम था ‘द इनएविटेबल्स’। इसमें केविन ने रोबोटिक्स एवं ब्लॉक चेन समेत भविष्य की 12 ऐसी टेक्नोलॉजीज का विस्तार से जिक्र किया है जो आने वाले समय में दुनिया को आकार देंगी। भारत दुनिया का सबसे ज्यादा ‘यंग’ देश है यहां 65% आबादी 35 वर्ष या इससे भी कम आयु की है। परंतु यह आशा से भरी आबादी रोजगार भी चाहेगी। वहीं दूसरी तरफ लगातार बदलती तकनीक की दुनिया नए कौशल की मांग करेगी। ऐसे में कौशल विकास भारत की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इसी को ध्यान में रखकर केंद्र सरकार ने “स्किल इंडिया” के तहत कई पहल की हैं। उदाहरण के लिए प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना (PMKVY), दीनदयाल उपाध्याय ग्रामीण कौशल्य योजना (DDU-GKY) इत्यादि।
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि पॉलिटेक्निक संस्थान, आईटीआई संस्थान और अन्य वोकेशनल प्रशिक्षण संस्थान कौशल विकास की धुरी हैं। यह धुरी विभिन्न समस्याओं से जूझ रही है, जिसे तत्काल सुधारने की जरुरत है। हमें यह मानना पड़ेगा कि बेहतरीन ट्रेनिंग न सिर्फ कौशल प्रदान करती है, बल्कि नए विचारों और नए अविष्कारों को जन्म भी देती है। विवेन थॉमस, एक अश्वेत जिन्होंने दुनिया में ह्रदय सर्जरी की शुरुआत की, ऐसे ही एक उदहारण है। उनकी कहानी उनके श्वेत ट्रेनर अल्फ्रेड ब्लालॉक के चारों और घूमती है। थॉमस ‘ग्रेट डिप्रेशन-1929’ की वजह से डॉक्टर नहीं बन पाए थे, पर उनके ट्रेनर और ट्रेनिंग ने उन्हें अमर कर दिया।
विश्व अब लाखों करोड़ों की संख्या में विवेन थॉमस तैयार करने के लिए प्रतिबद्ध है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत सतत विका लक्ष्यों (SDG) तो कम से कम यही कहते हैं। SDG 4.4 के अनुसार “2030 तक पर्याप्त संख्या में ऐसे युवाओं एवं वयस्कों की संख्या को विकसित करना है जिनके पास रोजगार, प्रतिष्ठित नौकरी एवं उद्यमिता के लिए तकनीकी एवं व्यावसायिक कौशल के साथ-साथ प्रासंगिक कौशल भी हो।” सतत विकास लक्ष्यों के प्रति प्रतिबद्ध भारत ने अपनी नई शिक्षा नीति-2020 (NEP-2020) में इस मुद्दे पर नीतिगत संज्ञान लिया है।
भारत में व्यावसायिक शिक्षा की स्थिति अच्छी नहीं रही है। उदाहरण के लिए 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-17) में भारतीय कार्यबल (19-24 वर्ष) का मात्र 5% ही औपचारिक व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त था, इसमें आईटीआई एवं पालीटेक्निक भी शामिल हैं। वहीं वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा USA के लिए 52%, जर्मनी 75% तथा दक्षिण कोरिया में रिकार्ड 96% था। ऐसे में नई शिक्षा नीति में तय किया गया कि कौशल एवं प्रशिक्षण के स्तर को राष्ट्रीय जरूरतों के अनुसार बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है। NEP-2020 में 2025 तक 50% विद्यार्थियों को विभिन्न कौशलों में प्रशिक्षित किये जाने का विज़न है। ऐसे में कौशल एवं प्रशिक्षण की धुरी माने जाने वाले पॉलिटेक्निक संस्थानों में मूलभूत एवं तत्काल परिवर्तन की आवश्यकता है।
उत्तर प्रदेश में पॉलिटेक्निक संस्थानों की हालत खस्ता है। यद्यपि यह स्थिति हर कॉलेज की हर डिप्लोमा ब्रांच के साथ नहीं है। परंतु कमोबेश ये स्थिति ज्यादातर कॉलेजों में है। एक आँकड़े के अनुसार प्रदेश भर के पॉलिटेक्निक में इस समय लगभग 3400 फैकल्टी की जरूरत है, जबकि कुल 1100 ही उपलब्ध हैं। ऐसे में पर्याप्त और परमानेंट शिक्षकों की तत्काल आवश्यकता है। पॉलिटेक्निक संस्थाओं को उद्योगोन्मुख बनाने के साथ साथ करीबी उद्योगों से जोड़ने की भी आवश्यकता है। हमें नवाचार से भरे संगठनों की आवश्यकता है जो न सिर्फ प्लेसमेंट में मदद कर सकें बल्कि समय समय पर छात्रों की संस्थागत काउंसलिंग को भी बढ़ावा दे सकें। कॉलेजों को भी अपने स्तर पर छात्र-छात्राओं की काउंसलिंग करनी चाहिए, जिससे वे चुनौतियों और संभावनाओं के लिए तैयार हो सकें। डायरेक्टरेट ऑफ टेक्निकल एजुकेशन द्वारा कैरिकुलम को प्रतियोगी एवं अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर परखना चाहिए।
प्रदेश के तकनीकी शिक्षा निदेशालय को चाहिए कि वो ऐसी मैकेनिज्म विकसित करें जिसके माध्यम से संस्थानों में मिल रही शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किया जा सके। संस्थानों में मिल रही मूलभूत सुविधाओं जैसे हॉस्टल, पुस्तकालय एवं ट्रेनिंग तथा प्लेसमेंट में पैनी नजर रखने के लिए समिति बनाने की जरुरत है, जोकि समय समय पर इन सुविधाओं के आंकलन के साथ-साथ इनमें सुधारों को लेकर अनुसंशायें भी कर सकें। लगभग सभी पॉलिटेक्निक संस्थानों में छात्रों की करियर काउंसिलिंग के लिए एक नयी पोस्ट सृजित की जानी चाहिए ताकि हमारी कौशल धुरी को सही दिशा दी जा सके। जरूरी ये भी है कि सरकार प्रवेश परीक्षा के पहले एक्स्पर्ट्स के माध्यम से आधिकारिक सलाह जारी करे ताकि छात्र समझ सकें कि उनके लिए या किनके लिए पॉलिटेक्निक डिप्लोमा लाभदायक होगा, और कैसे। ऐसा इसलिए ताकि छात्र किसी बेचे गए हसीन सपने को लेकर अपना करिअर शुरू में ही दिशाहीन न कर लें।
आखिर एक मजबूत राष्ट्र के लिए दक्ष एवं कौशल से भरपूर युवाओं की फौज एक बड़ी जरूरत है। और इस जरूरत में पॉलिटेक्निक संस्थान बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। हम यह आशा नहीं कर सकते कि भारत में रातों-रात रेनसेलर पॉलिटेक्निक इंस्टिट्यूट, न्यूयॉर्क जैसे संस्थानों का निर्माण हो जाएगा। क्योंकि ऐसा करने के लिए हमें रॉबर्टरेसनिक जैसे महान शिक्षकों की जरूरत होगी। लेकिन यह तो है कि सिर्फ सरकार और शिक्षक ठान लें, तो भविष्य में ये जरूर संभव हो सकता है। और इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश से हो सकती है।
(वंदिता मिश्रा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वे तमाम राष्ट्रीय अखबारों में पर्यावरण, शिक्षा जगत, एवं छात्र सम्बन्धी मुद्दों पर स्तंभ लिखती हैं।)